एक और कॉरिडोर की जरूरत

punjabkesari.in Saturday, Dec 08, 2018 - 04:15 AM (IST)

टी.वी. पर प्रोड्यूसरी जवानी में मेरी साथी बनी थी और फिर मेरी जात के साथ ऐसे चिपक गई जैसे यह मेरे अस्तित्व का हिस्सा हो। इस प्रोड्यूसरी ने मुझसे मेरी आंखें छीन ली हैं, उनकी जगह कैमरे फिट कर दिए और मैं हर समय फिल्में बनाता रहता हूं। इस तरह की एक फिल्म मुझसे बनी नहीं बल्कि जबरदस्ती मुझसे बनवाई गई है। जबरदस्ती इसलिए कि अगर मेरी जगह मेरे जैसा कोई भी और होता तो उसने भी यह फिल्म हर सूरत में बनानी थी। यह फिल्म थी करतारपुर साहिब के कॉरीडोर बनाने का संग-ए-बुनियाद रखने वाले दिन सिखों की हालत की।

हर शख्स खुश भी होता है और दूसरों को खुश हुआ भी देखता है परन्तु कभी-कभी ये खुशियां ऐतिहासिक भी बन जाती हैं। ऐसी ऐतिहासिक खुशी उसी दिन हर सिख के चेहरे पर सजी हुई थी और उनके चेहरे चमक रहे थे। हर सिख की रूह अस्तित्व से बाहर निकल कर भंगड़ा डालना चाहती थी। बूढ़े जवान हो गए थे और हर जवान का सीना फख्र से तन कर फटने वाला हो गया था। सत्तर सालों से करोड़ों सिख बिना नागा रोज दो वक्त अरदास करते आए हैं कि ईश्वर हमें हमारे बिछड़े गुरुद्वारों के दर्शन का मौका दे। अरदास सिर्फ वाघा की दूसरी तरफ रोके और रुके हुए सिख ही नहीं करते आए, बल्कि दुनिया के हर हिस्सों में रहते सिखों की अरदास है। और तो और, पाकिस्तान में रहते सिखों की अरदास का भी हिस्सा है। अगर इस अरदास को सिख धर्म की इबादत का लाजिमी हिस्सा कहा जाए तो गलत नहीं होगा। 

कई धर्मों में उस धर्म के मानने वालों पर आई मुसीबतों को याद करके रोने और स्यापा करने की धार्मिक रस्म है। यहूदी रोने वाली दीवार के आगे आकर रोते हैं। शिया कर्बला में पैगम्बर पाक के खानदान पर ढहाए गए जुल्मों को याद करके रोते हैं। नामधारी अपने गुरु राम सिंह और उसके मानने वालों पर अंग्रेजों द्वारा ढहाए गए जुल्मों पर रोते और दहाड़ें मारते हैं, जिस वजह से उनको कूके कहा जाता है। इस तरह के जुल्म सिखों पर भी ढहाए गए हैं, उनकी एक शक्ल तो औरंगजेब के राज में उन पर ढहाए गए जुल्म हैं। 

मेरे ख्याल में सब सिखों के रोने की दूसरी सूरत उनके इंतिहाई मुकद्दस और पवित्र धार्मिक स्थानों जैसे ननकाना साहिब, करतारपुर साहिब, पंजा साहिब से बिछडऩे का दुख है। जिन सिखों के मुकद्दर अच्छे होते हैं, वे पाकिस्तान जाकर उन मुकद्दस स्थानों के दर्शन कर माथा टेक आते हैं। बाकी बेचारे सारी जिंदगी तरसते रहते हैं। पाकिस्तान में इन स्थानों के दर्शन करने पर भी कई पाबंदियां होती हैं। कभी वे ननकाना साहिब जा सकते हैं परन्तु किसी और जगह नहीं जा सकते। सिखों के लिए सबसे मुश्किल करतारपुर साहिब का दर्शन करना रहा है। 

सबसे मुकद्दस जगह
ननकाना साहिब के बाद सिख मजहब में शायद करतारपुर साहिब ही सबसे अधिक मुकद्दस जगह है क्योंकि गुरु नानक देव जी उस जगह पर ही सबसे अधिक अरसा रहे। वहां मुसलमानों ने उनकी कब्र बनाई और हिंदुओं और बाबा जी के मानने वालों ने उनका संस्कार किया। अब गुरुद्वारा करतारपुर साहिब वाघा बार्डर से 100 से अधिक मील दूर है और वहां जाने के लिए न रेल, न कोई बस और न वैगन है। इसके अतिरिक्त यहां आकर दर्शन करने के लिए खास परमिट की भी जरूरत पड़ती है। इसलिए अक्सर सिख करतारपुर साहिब के दर्शन किए बगैर ही लौट जाते थे। यह इस तरह ही है जैसे मुसलमान मक्का जाकर हज करने के बाद मदीना न जा सकें। 

करतारपुर के दर्शन करने का एक ही तरीका था कि सिख हिंदुस्तान में बार्डर की दूसरी तरफ खड़े होकर 4 मील दूर से करतारपुर गुरुद्वारे को दूरबीन से देख लें। यहां फिर मुसलमानों की मिसाल देनी पड़ती है कि अगर मुसलमानों को मक्के और मदीने से चार मील दूर रोक दिया जाए और उनको न हज करने दिया जाए और न ही रोजा रसूल की जियारत। अब जब पाकिस्तान की हुकूमत ने सिखों को चार मील का यह बार्डर पार करके बगैर वीजे के करतारपुर आकर दर्शन करने की इजाजत दे दी तो यह बात सिख इतिहास में सुनहरी शब्दों में लिखी जाएगी। पूरी दुनिया में बसते सिखों के लिए यह दिन किसी ईद या दीवाली से कम नहीं होगा। 

मैं जब इन खुश और निहाल सिखों के चेहरे देख रहा था तो मुझे उनके चेहरों के पीछे कुछ और चेहरे दिखाई दिए जो उदास, अफसुर्दा और मुरझाए हुए थे। यूं लगता था जैसे उनके आंसू सूख कर जख्म बन गए हों। ये पंजाबी हिन्दुओं के चेहरे थे। इन चेहरों में ही एक चेहरा कुलदीप नैयर का था जो लाहौर-लाहौर पुकारता मर गया। उसने लाहौर जाकर बसने का अरमान अपनी राख को रावी दरिया में शामिल करके पूरा किया। इन चेहरों में ही बूढ़े मल्होत्रे का चेहरा भी था जिसको मैं दिल्ली में मिला था। वह हड़प्पा में पैदा हुआ, वहीं पला-बढ़ा और ठेठ पंजाबी बोलता था जो कहता था हड़प्पा की हर झाड़ी मेरे साथ पली-बढ़ी और जवान हुई थी और जो अभी भी मेरे साथ खेलती और ठट्ठा-मजाक करती है। मैं हिंदुस्तान नहीं आया, मैं तो हड़प्पे ही रहता हूं, ये कहते हुए उसकी बूढ़ी आंखों ने सावन-भादों की बरसात लगा दी। 

मुझे वह हिन्दू भी कभी नहीं भूलेगा जिसने मुझे कहा : सिख तो यात्रा के द्वारा अपने दादा-परदादा का देश देख आते हैं, मेरा क्या कसूर है, मैं क्यों नहीं जा सकता? मेरे भी तो दादे-परदादे उसी देश में जन्मे-पले थे। सिखों के तो चंद एक मुकद्दस पवित्र स्थान हैं, जिनके जाकर वे दर्शन करते हैं, मेरे लिए तो उधर का सारा पंजाब ही एक मंदिर है। मेरा राम तो वहां पैदा हुआ था। एक ही राम नहीं बल्कि सभी देवते और देवियां भी वहां के थे। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो से लेकर 1947 तक मेरी कितनी हजार नस्लें इस मिट्टी का हिस्सा हैं। 

1947 के बाद पाकिस्तान में जन्म लेने वाली नस्लों के दिमाग में हिंदू की जो तस्वीर डाली गई है उसमें उसकी चोटी है बदन से नंगा, नीचे लांगड़, एक हाथ में पीतल की गड़वी और दूसरे हाथ में एक छुरी है जो मुसलमान के खून से सनी है। वह राम-राम करता मंदिर की तरफ जा रहा है। पाकिस्तान के लोग, जिनका अक्सर किसी जीते-जागते हिंदू के साथ वास्ता नहीं पड़ा, वे समझते हैं कि हिन्दू कोई इंसान की शक्ल नहीं बल्कि कोई और जीव है। यह बुजदिल और डरपोक है परन्तु कश्मीरियों को गाजर-मूली की तरह काट रहा है। हिंदुस्तान में जो भी मुसलमान कत्ल होता है, उसका कातिल हमेशा हिन्दू होता है। 

हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो की तहजीबों का वारिस हिंदूू
मैं अक्सर सोचता था कि यह वह हिंदू था जो हड़प्पे और मोहनजोदड़ो वालों की तहजीबों का वारिस था। यदि यह सारी तारीख में मुसलमानों का खून ही बहाता  रहा तो फिर नए लाहौर का पिता गंगा राम कौन था जो करोड़ों इंसानों का रहबर था। उसने तो कभी भी हिंदू-मुसलमान, सिख-ईसाई की बांट नहीं की थी। उसने तो कभी नहीं कहा कि उसके अस्पताल में मुसलमान का दाखिला मना है। उसके पुण्य का लंगर तो अभी तक भी चल रहा है। फिर कोई अकेला गंगा राम तो नहीं था, बल्कि जगह-जगह कितने गंगा राम थे। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो से लेकर 1947 तक न जाने कितने करोड़ों गंगा राम हुए होंगे। 

मेरे ख्याल में 1947 की बांट का सबसे बड़ा मजलूम पंजाबी हिंदू है। यह शाह से खाक शाह हो गया। अरबों-खरबों की जायदादें छोड़कर तीन कपड़ों में घर से बेघर हो गया। यह 1947 के कत्लेआम का हिस्सा नहीं था परन्तु खुद कत्लेआम का निशाना बना। लुट-लुटा कर हिंदुस्तान पहुंचा तो आगे कोई राह तकती बांहें उसको गले लगाने को मौजूद नहीं थीं। मुकामी हिन्दू ने उसको भाई नहीं बल्कि शरीक समझा। सारी पंजाबी कौम को करतारपुर साहिब का कॉरीडोर खुलने पर लाखों बधाइयां परन्तु सिर्फ एक ही कॉरीडोर क्यों, पंजाबी हिंदू के लिए कॉरीडोर क्यों नहीं? लेहा (लव) राम के बेटे का बसाया शहर-ए-लाहौर भी तो हिंदू का मंदिर है। इसके अतिरिक्त आज भी पाकिस्तानी पंजाब में सैंकड़ों और हजारों मंदिर हैं, जिनमें से न जाने कितने मंदिर ऐतिहासिक और महा पवित्र हैं। इन मंदिरों के दर्शन के लिए हिंदू के लिए कॉरीडोर क्यों नहीं?-सय्यद आसिफ शाहकार


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Pardeep

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