रानी लक्ष्मीबाई बलिदान दिवस: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की प्रथम महिला को नमन

punjabkesari.in Tuesday, Jun 18, 2019 - 12:05 PM (IST)

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झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का जन्म नवम्बर 1828 में वाराणसी (काशी) के पुण्य व पवित्र क्षेत्र अस्सीघाट में हुआ था। इनके पिता का नाम ‘मोरोपंत तांबे’ और माता का नाम ‘भागीरथी बाई’ था। इनका बचपन का नाम ‘मणिकर्णिका’ रखा गया परंतु मणिकर्णिका को ‘मनु’ पुकारा जाता था। मनु की अवस्था अभी चार-पांच वर्ष ही थी कि इनकी मां का देहांत हो गया। पिता मोरोपंत तांबे एक साधारण ब्राह्मण और अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय के सेवक थे। माता भागीरथी बाई सुशील, चतुर और रूपवती थीं। अपनी मां की मृत्यु हो जाने पर वह पिता के साथ बिठूर आ गईं। यहीं उन्होंने मल्लविद्या, घुड़सवारी और शस्त्रविद्याएं सीखीं।

PunjabKesariचूंकि घर में मनु की देखभाल के लिए कोई नहीं था इसलिए उनके पिता मोरोपंत मनु को अपने साथ बाजीराव के दरबार में ले जाते थे, जहां चंचल एवं सुंदर मनु ने सबका मन मोह लिया था। बाजीराव मनु को प्यार से ‘छबीली’ बुलाते थे। पेशवा बाजीराव के बच्चों को पढ़ाने के लिए शिक्षक आते थे। मनु भी उन्हीं बच्चों के साथ पढऩे लगी। मनु ने पेशवा के बच्चों के साथ-साथ ही तीर-तलवार तथा बंदूक से निशाना लगाना सीखा। इस प्रकार मनु अल्पवय में ही अस्त्र-शस्त्र चलाने में पारंगत हो गई। अस्त्र-शस्त्र चलाना एवं घुड़सवारी करना मनु के प्रिय खेल थे। 

समय बीता और मनु विवाह योग्य हो गई। इनका विवाह सन् 1842 में झांसी के राजा गंगाधर राव निवालकर के साथ बड़ी धूमधाम से हुआ। विवाह के बाद इनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। इस प्रकार काशी की कन्या मनु, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई बन गई। सात साल की उम्र में ही लक्ष्मीबाई ने घुड़सवारी सीखी। साथ ही तलवार चलाने में, धनुर्विद्या में निष्णात हुई। बचपन में लक्ष्मीबाई ने अपने पिता से कुछ पौराणिक वीरगाथाएं सुनीं। वीरों के लक्षणों व उदात्त गुणों को उन्होंने अपने हृदय में संजोया।

रानी बनकर लक्ष्मीबाई को पर्दे में रहना पड़ता था। स्वच्छन्द विचारों वाली रानी को यह रास नहीं आया। उन्होंने किले के अंदर ही एक व्यायामशाला बनवाई और शस्त्रादि चलाने तथा घुड़सवारी के लिए आवश्यक प्रबंध किए। उन्होंने स्त्रियों की एक सेना तैयार की। राजा गंगाधर राव अपनी पत्नी की योग्यता से बहुत प्रसन्न थे।

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रानी अत्यंत दयालु थीं। एक दिन कुलदेवी महालक्ष्मी की पूजा करके लौट रही थीं, कुछ निर्धन लोगों ने उन्हें घेर लिया। उन्हें देखकर महारानी का हृदय द्रवित हो उठा। उन्होंने नगर में घोषणा करवा दी कि एक निश्चित दिन गरीबों में वस्त्रादि का वितरण कराया जाए। सन् 1851 में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया। सम्पूर्ण झांसी आनंदित हो उठी एवं उत्सव मनाया गया किंतु यह आनंद अल्पकालिक ही था। कुछ ही महीने बाद बालक गंभीर रूप से बीमार हुआ और चार महीने की आयु में ही उसकी मृत्यु हो गई। झांसी शोक के सागर में डूब गई। सन् 1853 में राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य बहुत बिगडऩे पर दरबारियों ने उन्हें पुत्र गोद लेने की सलाह दी। अपने ही परिवार के पांच वर्ष के एक बालक को उन्होंने गोद लिया और उसे अपना दत्तक पुत्र बनाया। इस बालक का नाम दामोदर राव रखा गया। पुत्र गोद लेने के बाद राजा गंगाधर राव की दूसरे ही दिन 21 नवम्बर 1853 को मृत्यु हो गई।

अंग्रेज झांसी को अपने अधीन करना चाहते थे। उन्हें यह एक उपयुक्त अवसर लगा। उन्होंने रानी के दत्तक पुत्र को राज्य का उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया और रानी को एक पत्र भेजा कि चूंकि राजा का कोई पुत्र नहीं है, इसलिए झांसी पर अब अंग्रेजों का अधिकार होगा। 

रानी यह सुनकर क्रोध से भर उठीं एवं घोषणा की कि मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी। शोधकर्ताओं को लंदन से झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का एक खत मिला है। पूर्व में लोगों के लिए यह खत अज्ञात था। बी.बी.सी. ने यह जानकारी देते हुए इस खोज को बेहद महत्वपूर्ण बताया है। रानी लक्ष्मीबाई ने 1857 के भारतीय विद्रोह से कुछ समय पहले ही यह खत लिखा था। बी.बी.सी. के अनुसार शिक्षाविदें का मानना है कि चूंकि झांसी की रानी के जीवन के बहुत थोड़े ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध हैं, इसलिए इस खत की खोज बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है। यह खत ईस्ट इंडिया कंपनी के गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी को लिखा गया था। 19वीं शताब्दी के लेखक लीहवन बेनथम बोवरिंग ने लंदन की ब्रिटिश लाइब्रेरी के लेखागार में अन्य दस्तावेजों, छाया चित्रों और यादगार वस्तुओं के साथ इस खत को रखा था।

विक्टोरिया एंड अल्बर्ट म्यूजियम के हाल में लंदन में आयोजित ‘महाराजा प्रदर्शनी’ की अनुसंधान निरीक्षिका दीपिका अहलावत का कहना है कि झांसी की रानी ने खत में उस रात की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं का वर्णन किया है जिस रात उनके पति की मृत्यु हुई थी।

डलहौजी के विलय के सिद्धांत से असहमत लक्ष्मीबाई ने गवर्नर जनरल से कहा था कि उनके पति दामोदर राव गंगाधर को अपने बेटे और झांसी के अगले राजा के रूप में गोद लेने के लिए सभी आवश्यक रस्में पूरी कर ली गई हैं लेकिन डलहौजी ने इस बच्चे को उत्तराधिकारी स्वीकार नहीं किया और झांसी का विलय करने की धमकी दी, जिससे लक्ष्मीबाई 1857 के स्वतंत्रता सेनानियों के साथ शामिल हो गईं।

अंग्रेजों ने झांसी पर आक्रमण कर दिया। रानी ने भी युद्ध की पूरी तैयारी की। किले की प्राचीर पर तोपें रखवाईं। रानी ने अपने महल का सोने, चांदी का सामान तोप के गोले बनाने के लिए दे दिया। रानी के किले की प्राचीर पर जो तोपें थीं उनमें कड़क बिजली, भवानी शंकर, घनगर्जन एवं नालदार तोपें प्रमुख थीं। रानी के कुशल एवं विश्वसनीय तोपची थे- गौस खां तथा खुदा बख्श। रानी ने किले की मजबूत किलाबंदी की। रानी के कौशल को देखकर अंग्रेज सेनापति सर ह्यूरोज भी चकित रह गया। अंग्रेजों ने किले को घेरकर चारों ओर से आक्रमण किया।

अंग्रेज आठ दिनों तक किले पर गोले बरसाते रहे परंतु किला न जीत सके। रानी एवं प्रजा ने प्रतिज्ञा कर ली थी कि अंतिम श्वास तक किले की रक्षा करेंगे। अंग्रेज सेनापति ह्यूरोज ने अनुभव किया कि सैन्य बल से किला जीतना संभव नहीं है अत: उसने कूटनीति का प्रयोग किया और झांसी के ही एक विश्वासघाती सरदार दूल्हा सिंह को अपने साथ मिला लिया जिसने किले का दक्षिणी द्वार खोल दिया। फिरंगी सेना किले में घुस गई और तहस-नहस करना शुरू कर दिया।

घोड़े पर सवार दाहिने हाथ में नंगी तलवार लिए, पीठ पर पुत्र को बांधे हुए रानी ने रणचंडी का रूप धारण कर लिया और शत्रु दल का संहार करने लगीं। झांसी के वीर सैनिक भी शत्रुओं पर टूट पड़े। ‘जय भवानी’ और ‘हर-हर महादेव’ के उद्घोषों से रणभूमि गूंज उठी परंतु झांसी की सेना अंग्रेजों की तुलना में छोटी थी। 

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रानी अंग्रेजों से घिर गईं। कुछ विश्वासपात्रों की सलाह पर रानी कालपी की ओर बढ़ चलीं। दुर्भाग्य से एक गोली रानी के पैर में लगी और उनकी गति कुछ धीमी हो गई। अंग्रेज सैनिक उनके समीप आ गए। रानी ने अपना घोड़ा दौड़ाया, पर दुर्भाग्य से एक नाला आ गया। घोड़ा नाला पार न कर सका। तभी अंग्रेज घुड़सवार भी आ गए। एक ने पीछे से रानी के सिर पर प्रहार किया जिससे उनके सिर का दाहिना हिस्सा कट गया और उनकी एक आंख बाहर निकल आई। उसी समय दूसरे गोरे सैनिक ने उनके हृदय पर वार कर दिया। अत्यंत घायल होने पर भी रानी अपनी तलवार चलाती रहीं और उन्होंने दोनों आक्रमणकारियों का वध कर डाला। फिर वह भूमि पर गिर पड़ीं। पठान सरदार गौस खां अब भी रानी के साथ था। उसका रौद्र रूप देखकर गोरे भाग खड़े हुए।

स्वामीभक्त रामाराव देशमुख अंत तक रानी के साथ थे। उन्होंने रानी के रक्तरंजित शरीर को समीप के ही बाबा गंगादास की कुटिया में पहुंचाया। रानी ने व्यथा से व्याकुल हो जल मांगा और बाबा गंगादास ने उन्हें जल पिलाया। रानी को असह्य वेदना हो रही थी परंतु मुखमंडल दिव्य कांति से चमक रहा था। उन्होंने एक बार अपने पुत्र को देखा और फिर वे तेजस्वी नेत्र सदा के लिए बंद हो गए।

वह जून 1858 का दिन था, जब क्रांति की यह ज्योति अमर हो गई। उसी कुटिया में उनकी चिता लगाई गई, जिसे उनके पुत्र दामोदर राव ने मुखाग्रि दी। रानी का पार्थिव शरीर पंचमहाभूतों में विलीन हो गया और वह सदा के लिए अमर हो गईं। 


 


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Niyati Bhandari

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