बदलते वक्त की मार, कुम्भकार लाचार

punjabkesari.in Monday, Apr 15, 2019 - 12:49 PM (IST)

रानियां (दीपक): मिट्टी के देसी फ्रिज व मटके व सुराही का पानी पीने में जो आनंद आता है, वह फ्रिज के ठंडे पानी में नहीं। कई साल पहले मटकों की इतनी मांग रहती थी कि कुम्हार के घर से मटका लेने के लिए लोग दूर से आते थे। पहले लोगों के पास बहुत कम फ्रिज हुआ करते थे। लोग घरों में रखा पानी पीते थे, यह न सिर्फ ठंडा होता था बल्कि इसका स्वाद भी कई गुना बेहतर होता था। लगभग 12 से 15 साल पहले चाक पर गुल्लक, दीपक, मटकी, सुराही, कप, गिलास, कुल्हड़ और मिट्टी की चिलम बनाया करते थे।

बदलते दौर के कारण मिट्टी के बर्तन की डिमांड घटी लेकिन रोजी रोटी के कार्य करना जरूरी हैं। अपने परिवार का जीवनयापन करने वाले कारीगर काम के महंगाई की चपेट में आने तथा अन्य कारणों से प्रभावित होने के चलते ङ्क्षचतित हैं। कुम्हारों की बात को सच माना जाए तो दूसरों को पानी पिलाने से घर सजाने तथा बसाने का काम करने वाला चाक शीघ्र एक बेकार पहिया साबित होने जा रहा है क्योंकि अधिकतर कुम्हार घड़े बनाने का कार्य छोड़ते जा रहे हैं। किसी जमाने में मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुम्हारों के घरों में गरीबों के लिए फ्रिज के नाम से जाने वाला मटका लाइनों में बिका करता था और लोग बड़े चाव से खरीदते थे लेकिन मशीन युग के चलते आजकल गरीब से गरीब परिवारों में भी फ्रिज ने अपना स्थान बना लिया है।

अपना रहे दूसरा व्यवसाय
अधिकांश इस व्यवसाय को छोड़ कर अन्य व्यवसायों की तरफ अपना रुख करते नजर आ रहे हैं। रानियां में पहले 2 परिवार ही घड़े बनाने का कार्य करते थे लेकिन वो भी अब छोड़ चुके हैं। रानियां के आसपास के गांव बालासर, महमदपुरियां, द्योतड़ में ही केवल घड़े बनाने का कार्य किया जा रहा है। पहले जहां मिट्टी मुफ्त में मिलने के कारण एक बार में 400 मटकों पर पकाई समेत करीब 1000 रुपए खर्च आता था अब इनकी अकेली पकाई का खर्च 7000 रुपए है। इसके अलावा मिट्टी की खरीद व अन्य खर्च अलग से हैं। इस व्यवसाय में रानियां व आसपास के क्षेत्रों के सैकड़ों प्रजापत परिवार जुड़े हुए थे लेकिन परिवर्तन के चलते अब क्षेत्र में नाममात्र ही ऐसे प्रजापत रह गए हैं जो अपनी इस प्रवृत्ति को चलाकर अपनी रोजी-रोटी का साधन अवश्य जुटा रहे हैं। 

कैम्पर व फ्रिज ने किया धंधा चौपट
गांव द्योतड़ के प्रसिद्ध मिट्टी के बर्तन के निर्माता सुखराम व उसकी पत्नी सुशीला ने बताया कि विरासत में मिले इस धंधे को चलाने के लिए उसका परिवार जुटा हुआ है मगर युग बदलने के साथ उनके धंधे पर भी काफी प्रभाव पड़ चुका है। सुशीला ने बताया कि किसी समय में उनके द्वारा बनाए गए मटके  बेचने के पश्चात इतनी कमाई हो जाती थी कि परिवार का गुजारा ठीक से हो जाता था, मगर इन मटकों का स्थान कैम्पर व फ्रिजों द्वारा ले लेने के कारण धंधा चौपट हो गया है। अपने भाइयों के इसी व्यवसाय में हाथ जुटाने वाले हरबंस, जिले सिंह ने बताया त्यौहारों आदि में बिकने वाले मिट्टी के बर्तनों का स्थान भी आजकल आधुनिक साधनों ने ले लिया है। उन्होंने बताया कि गर्मी का मौसम आने के कारण उन्हें बेहद खुशी अवश्य है लेकिन आम व्यक्ति का रुझान इन बर्तनों की तरफ न जाने के कारण उनके व्यवसाय पर काफी नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है जिसके कारण उन पर रोजी-रोटी कमाने का संकट छाया हुआ है। 
 


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kamal

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