पराली सीज़न खत्म, सवाल अभी भी बाकी है - क्या भारत पराली को ऊर्जा में बदलने की दिशा में तैयार है?
punjabkesari.in Wednesday, Dec 10, 2025 - 08:29 PM (IST)
(वेब डेस्क): पंजाब और हरियाणा में इस साल पराली जलाने के मामलों में उल्लेखनीय गिरावट देखने को मिली है। मौसम बदलने के साथ हवा थोड़ी साफ़ लगती है, लेकिन अगर मजबूत समाधान नहीं अपनाए गए तो कहानी फिर दोहराई जाएगी|
पराली जलाने से न केवल नजदीकी गाँव और कस्बे प्रभावित होते हैं, बल्कि दिल्ली जैसे महानगर भी प्रदूषण की चपेट में आ जाते हैं। यह लगभग 50 मिलियन लोगों की सेहत पर असर डालता है, जो ऑस्ट्रेलिया की आबादी के लगभग दोगुने के बराबर है। इसकी वजह से भारत में हर साल 70,000 से 100,000 मौतें होती हैं।
लक्षित अवला, एग्ज़िक्यूटिव डायरेक्टर एवं सीईओ, एसएईएल इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड ने कहा, "भारत में हर साल 754.8 मिलियन टन कृषि अवशेष उत्पन्न होता है, जिसमें 2015-18 का 228.5 मिलियन टन अतिरिक्त है। इस अवशेष का एक बड़ा हिस्सा या तो सड़ने के लिए छोड़ दिया जाता है या फिर खुले में जला दिया जाता है, जिससे पर्यावरण को गंभीर नुकसान पहुँचता है। हम भारत के सबसे बड़े एग्री वेस्ट-टू-एनर्जी ऑपरेटर तथा 30 जून, 2025 को पराली खरीदने वाले सबसे बड़े औद्योगिक संगठन के रूप में उत्तर भारत में पराली जलाए जाने की समस्या को हल करने की कोशिश कर रहे हैं। कृषि पर केंद्रित 3 राज्यों पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में हमारे 11 एग्री वेस्ट-टू-एनर्जी पॉवर प्लांट्स (10 ऑपरेशनल प्लांट एवं एक निर्माणाधीन प्लांट) में बॉयलर सिस्टम एवं उत्सर्जन नियंत्रण तकनीकों की मदद से हम स्वच्छ ऊर्जा निर्माण, नियंत्रित उत्सर्जन और जवाबदेह जल संरक्षण उपाय सुनिश्चित करते हैं। लेकिन समस्या का दूसरा पहलू खेतों में है, जहाँ फसल चक्र और कृषि पैटर्न इस मुद्दे को और जटिल बना देते हैं।
फसलों के पैटर्न को बदलना आसान नहीं है
कई लोग तर्क देते हैं कि चावल-गेहूँ के चक्र को बदलने से इस समस्या का समाधान हो जाएगा। लेकिन यह व्यवस्था दशकों से ऐसे ही चली आ रही है। किसान इसी व्यवस्था को समझते हैं और सिंचाई के नेटवर्क, मशीनें तथा खरीद के चैनल इसे ही सपोर्ट करते हैं। किसानों ने अपनी मशीनरी और सिंचाई की दिनचर्या बना ली है। उन्होंने इसी के अनुरूप श्रम व्यवस्था की है, जिसमें अचानक परिवर्तन करना बहुत मुश्किल होगा।
इसलिए, इसकी बजाय, चावल के बाद मक्का, सोयाबीन, सरसों, या सब्जियों की खेती करने से स्थिति में सुधार हो सकता है। इससे फसलों की उर्वरता बढ़ेगी, कीटों के हमले कम होंगे और जमीनी जल पर दबाव में भी कमी आएगी। उदाहरण के लिए चावल के बाद मक्का या दालों की खेती से जमीन को आराम मिलेगा, जमीन फिर से रिचार्ज होगी तथा नाईट्रोजन के नुकसान में कमी जाएगी।
लेकिन इस व्यवस्था-परिवर्तन के लिए बाजार के नए संपर्कों, ग्राहकों की मांग तथा नीतिगत सहयोग की जरूरत पड़ेगी। छोटे किसानों के लिए परिवर्तन की अनिश्चितताओं और अल्पकालिक लागतों का बोझ उठाना बिना किसी संस्थागत सहयोग के बहुत अधिक जोखिमपूर्ण होगा। किसानों को फसलें बदलने का निर्देश देने का परिणाम तब तक नहीं मिलेगा, जब तक निश्चित खरीददार, उचित मूल्य और सरकार का मज़बूत सहयोग उनके साथ नहीं होगा।
किसानों से बाजरा, दालें या तिलहन की फसल उगाने के लिए कहने का तब तक कोई फायदा नहीं है, जब तक लोगों के आहार में उसी के अनुरूप परिवर्तन न हो क्योंकि अगर ऐसा नहीं होता है, तो हर जगह बिना बिकी अतिरिक्त फसल के भंडार लग जाएंगे।
तो पराली जलाने की समस्या का हल कैसे निकलेगा? इसका एक व्यवहारिक समाधान है, वैलोराईज़ेशन यानी पराली को एक आर्थिक मूल्य प्रदान करना। पराली को जलाने की बजाय यह उद्योगों और किसानों के लिए एक उपयोगी संसाधन बन सकती है।
चावल की पराली में 38 प्रतिशत सेलुलोज़, 32 प्रतिशत हेमीसेलुलोज़ और 12 प्रतिशत लिग्निन होता है। इसलिए उद्योगों के लिए यह काफी उपयोगी कच्चा माल है। इसमें 20 प्रतिशत सिलिका होता है, जिसके कारण यह जानवरों के चारे के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है।
भारत में हर साल लगभग 190 मिलियन टन चावल की पराली बनती है। सही प्रोत्साहन की मदद से यह डाउनस्ट्रीम उद्योगों के एक पूरे परिवेश का निर्माण कर सकती है, जिसमें निर्माण सामग्री, पेपर उत्पादन, मशरूम की खेती और बायोएथेनॉल का उत्पादन शामिल है।
इस बारे में टेक्नोलॉजी और ज्ञान पहले से मौजूद है, लेकिन वित्तीय सहायता और नीतिगत प्रोत्साहनों की ज़रूरत है ताकि ये उद्योग बड़े पैमाने पर काम कर सकें।
ऊर्जा के लिए पराली का उपयोग
चावल की पराली का उपयोग बॉयलर्स में ईंधन के रूप में बिजली उत्पादन के लिए भी किया जा सकता है। इससे पराली जलाने का एक तत्कालिक और व्यवहारिक समाधान भी मिलेगा। हाल के अनुभवों से प्रदर्शित होता है कि यह दृष्टिकोण कारगर है। आज पराली से उत्पन्न होने वाली बिजली महंगी है, लेकिन जब विशाल स्तर पर ऐसा होने लगेगा, इसमें नीतियों का सहयोग मिलेगा और कार्बन-क्रेडिट प्रणालियाँ लागू की जाएंगी, तब इसकी लागत कम हो सकती है। यह कैसे होगा, इसे सौर ऊर्जा के सेक्टर की मदद से समझा जा सकता है। शुरुआती दिनों में एक यूनिट सौर ऊर्जा पारंपरिक ऊर्जा की चार यूनिटों के साथ बंडल में औसत मूल्य पर दी जाती थी। समय के साथ सौर ऊर्जा बढ़ती चली गई और किफायती हो गई।
बायोमास पर आधारित ऊर्जा के लिए इसी तरह के दृष्टिकोण से पर्यावरण की समस्या को आर्थिक अवसर में बदलने तथा वायु प्रदूषण को कम करने में मदद मिल सकती है।
नीति और इनोवेशन द्वारा समाधानों का निर्माण
स्थायी परिवर्तन लाने के लिए मजबूत नीतिगत सपोर्ट और प्रोत्साहन आवश्यक हैं। उचित मूल्य, फसल बीमा और वैकल्पिक फसलों की निश्चित खरीद जैसे प्रोत्साहनों द्वारा फसल के विविधीकरण को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। साथ ही, पराली पर आधारित उद्योगों को ऋण देने, वित्तीय लाभों और वायबिलिटी-गैप फंडिंग के लिए प्राथमिकता मिलनी चाहिए। कंप्रेस्ड बायोगैस और एथेनॉल ब्लेंडिंग के लिए सरकारी पहलों का विस्तार करके उनमें बायोमास पर आधारित ऊर्जा और पराली से बनी सामग्रियों को शामिल किया जाना चाहिए।
भारत में विचारों की कमी नहीं है, पर किसानों और टेक्नोलॉजी के बीच मज़बूत आर्थिक लिंक न होना एक बड़ी चुनौती है। इनोवेशन, निवेश और प्रोत्साहनों द्वारा इस लिंक का निर्माण करके हवा को स्वच्छ, मिट्टी को सेहतंद और भविष्य को सस्टेनेबल बनाया जा सकता है।
