किसानों के आंदोलन के राजनीतिक निहितार्थ, सबसे बड़ा वोट बैंक है किसान

Saturday, Dec 01, 2018 - 04:07 PM (IST)

नेशनल डेस्क (मनोज कुमार झा): अपनी मांगों को लेकर शुक्रवार को भारी संख्या में किसानों ने दिल्ली की सड़कों पर मार्च किया और रामलीला मैदान पहुंचे। किसानों की मुख्य मांग कर्ज-माफी और फसलों की लागत का डेढ़ गुना समर्थन मूल्य दिए जाने की थी। अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के बैनर तले लगभग 200 किसान संगठनों, विभिन्न राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों ने किसानों की मांग का समर्थन करते हुए आंदोलन में भागीदारी की। लगभग सभी बड़े राजनीतिक दलों के नेताओं ने किसानों के आंदोलन का समर्थन किया। अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के महासचिव अवीक शाहा और स्वराज इंडिया के संयोजक योगेंद्र यादव ने प्रमुख रूप से किसानों के मार्च का नेतृत्व किया, वहीं अखिल भारतीय किसान सभा के महासचिव अतुल कुमार अंजान भी किसानों के आंदोलन में सक्रिय रहे। 

किसानों को मिला भारी समर्थन 
किसानों की मांगों के समर्थन में डॉक्टर, वकील और अन्य पेशेवर लोग भी सामने आए। सामाजिक कार्यकर्ता और किसानों के मुद्दे पर लगातार लिखने वाले पत्रकार पी साईनाथ भी किसानों के समर्थन में उनके साथ नजर आए। साईनाथ की अगुआई में गठित समूह नेशन फॉर फार्मर्स के बैनर तले विभिन्न सामाजिक समूहों ने भी इस आंदोलन में भाग लिया। इसके अलावा रंगकर्मियों और छात्र संगठनों ने भी किसानों के इस मार्च में हिस्सा लिया। तमिलनाडु के किसान भी अपनी खास वेशभूषा और अंदाज में इस मार्च में मौजूद थे। पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवगौड़ा भी इस आंदोलन में शामिल हुए और उन्होंने किसानों को संबोधित करते हुए उनकी मांगों का समर्थन किया। राहुल गांधी से लेकर शरद पवार, केजरीवाल और डॉ. फारूख अब्दुल्ला भी किसानों के समर्थन में बोलते दिखे। किसान नेताओं ने सरकार पर खेती की अनदेखी करने का आरोप लगाया और और खेती के संकट पर संसद का विशेष सत्र बुलाने की मांग की।  

वामपंथी नेताओं ने किया मार्च का नेतृत्व 
प्रदर्शन में बिहार, झारखंड, ओडिशा, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, हरियाणा, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक आदि राज्यों के किसानों ने हिस्सा लिया। किसानों के इस मार्च का नेतृत्व मुख्य रूप से वामपंथी विचारधारा के नेताओं के हाथ में था, पर खास बात यह है कि इसे भारतीय जनता पार्टी विरोधी सभी दलों का प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष समर्थन हासिल था। उल्लेखनीय है कि इन्हीं मुद्दों को लेकर किसानों ने अक्टूबर में भी दिल्ली में प्रदर्शन किया था, लेकिन तब भी सरकार से आश्वासनों के अलावा उन्हें कुछ भी नहीं मिल सका था। खास बात यह भी है कि इस बार जितना व्यापक समर्थन इन्हें मिला, पहले नहीं मिल पाया था। बहरहाल, अभी किसानों के इस आंदोलन को इतना व्यापक राजनीतिक समर्थन मिलने के पीछे वजह क्या है, इस पर गौर करना जरूरी है। अभी पूरे देश में चुनाव की फिजा बनी हुई है। कई राज्यों में विधानसभा चुनावों के संपन्न होने के साथ जहां चुनाव परिणाम का बेसब्री से इंतजार किया जा रहा है, वहीं अगले साल होने वाले लोकसभा चुनावों की तैयारियां भी शुरू हो गई हैं। 

भाजपा विरोधी गठबंधन में कई बाधाएं 
2019 में होने वाला लोकसभा चुनाव भाजपा व कांग्रेस समेत तमाम दलों के लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन गया है। जहां तक भाजपा विरोधी गठबंधन के अस्तित्व में सामने आने की बात है, इसमें कई बाधाएं दिखाई पड़ रही हैं। राष्ट्रीय जनता दल, समाजवादी पार्टी जो पहले काफी मजबूत थीं, अब उनकी ताकत नहीं के बराबर रह गई है। फिलहाल, तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो ममता बनर्जी का रुख भी बहुत साफ नजर नहीं आ रहा है। मायावती किसी कीमत पर कांग्रेस के गठबंधन में शामिल नहीं होंगी, यह स्पष्ट हो गया है, क्योंकि उन्हें पता है कि गठबंधन की जीत होने पर भी व्यक्तिगत तौर पर उन्हें कुछ खास हासिल होने वाला नहीं है। वामपंथी दलों में कांग्रेस के समर्थन को लेकर ऊहापोह की स्थिति है। मार्क्सवादी  कम्युनिस्ट पार्टी के पोलित ब्यूरो सदस्य प्रकाश करात जहां कांग्रेस का समर्थन नहीं करते हुए अपने बल पर भाजपा विरोध की नीति पर चल रहे हैं, वहीं सीताराम येचुरी कांग्रेस के साथ आने के पक्ष में हैं। 

विफल साबित हुआ विपक्ष 
देखा जाए तो भाजपा के विरोध में एकजुट होने की कोशिश कर रहा पूरा विपक्ष अभी तक विफल साबित हुआ है और इस दिशा में उसकी कोई खास नीति भी सामने नहीं आ रही, जबकि आगामी लोकसभा चुनावों में ज्यादा वक्त नहीं रह गया है। ऐसे में, कतिपय राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि दिल्ली में किसानों के भारी जुटान से सरकार पर दबाव बनाने के साथ ही भाजपा विरोधी तमाम दलों को भी एकजुट होने का एक आधार मिल सकता है, क्योंकि राजनीतिक दलों के अलावा स्वतंत्र बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, कलाकारों और पेशेवर लोगों के समर्थन में सामने आने से उन्हें एक नैतिक बल मिला है। 

उपेक्षा का शिकार हो रहे किसान
सवाल यह है कि केंद्र में चाहे जिस भी दल या गठबंधन की सरकार रही हो, क्या कभी उसने किसानों के मुद्दों के हल के बारे में ईमानदारी से सोचने और कोई कदम उठाने की पहल की है। किसानों के संगठनों के नेता और उनसे सहानुभूति रखने वाले समूह भी मानेंगे कि ऐसा कभी नहीं हुआ। पिछले कई दशकों से केंद्र में जिन दलों और गठबंधनों की सरकारें रही हैं, उन्होंने किसानों की समस्याओं पर कभी कोई ध्यान नहीं दिया। चाहे कर्जमाफी का सवाल हो या फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य दिए जाने का मुद्दा, किसानों को उपेक्षा के सिवा और कुछ नहीं मिला। भूलना नहीं होगा कि इस देश में किसानों का वोट बैंक सबसे बड़ा है। किसानों का वोट जिस दल अथवा गठबंधन को मिलेगा, उसकी जीत सुनिश्चित होगी। ऐसे में, ठीक उस वक्त पर जब देश में धान की कटनी और उससे जुड़े खेती के काम अभी खत्म नहीं हुए हैं, दिल्ली में किसानों के भारी जमावड़े के राजनीतिक निहितार्थ को समझना कोई कठिन नहीं।
 

vasudha

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