धारा 377 के खिलाफ जी जान से लड़ने वाले बोले- ये ‘लोगों और प्यार की जीत’
Sunday, Sep 09, 2018 - 01:27 PM (IST)
नई दिल्ली: तनवीर कौर रंधावा उस समय बेंगलुरु में भारतीय विज्ञान संस्थान की प्रयोगशाला में थी जब सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक यौन संबंधों पर प्रतिबंध से संबंधित धारा 377 को निरस्त करने का फैसला दिया। यह समलैंगिक यौन संबंधों को प्रतिबंधित करने वाला औपनिवेशिक युग का कानून था। आईआईटी रुड़की की एलुमनी रंधावा ने कहा कि मैं बहुत खुश, भावुक और जीत का अनुभव कर रही थी। यह मिली-जुली भावनाएं थी।’’ वह उन याचिकाकर्त्ताओं में से एक थी जो सुप्रीम कोर्ट में इस कानून के खिलाफ जी जान से लड़ी। उन्होंने कहा, ‘‘यह फैसला इस समुदाय को पहचान और विश्वास देगा।’’ उन्होंने कहा कि मेरे लिए यह फैसला सशक्त करने वाला है। यह हमें सामने आने और अपनी लैंगिकता को पहचानने का साहस देगा।’’ बहरहाल, आईआईएससी बेंगलुरु में पीएचडी की 25 वर्षीय छात्रा का मानना है कि समलैंगिक संबंधों को समाज में स्वीकार करना अब भी ‘‘बहुत बड़ी चुनौती’’ है।
रंधावा ने कहा, ‘‘अब लोगों को संवेदनशील बनाने की जरुरत है, खासतौर से देश के ग्रामीण इलाकों के लोगों को, जिनके लिए समलैंगिकता एक धब्बा और अपराध है।’’ अन्य याचिकाकर्ता अहमदाबाद से आईटी इंजीनियर विराल ने कहा कि यह फैसला ‘‘लोगों का फैसला’’ है। आईआईटी खड़गपुर के 28 वर्षीय एलुमनी ने कहा, ‘‘मेरे लिए सबसे ज्यादा जो मायने रखता है वह हमें मिली स्वीकार्यता है, जिस तरह की प्रतिक्रिया हमें लोगों से मिलती है। ना केवल सेलिब्रिटियों और कार्यकर्ताओं ने इस फैसले का स्वागत किया बल्कि आम आदमी ने भी इसका स्वागत किया।’’ एक और याचिकाकर्ता आईआईटी दिल्ली के देबोत्तम साहा ने कहा कि वह मानते हैं कि ‘‘मेरा देश बड़ा हो गया है।’’
पीएचडी के 28 वर्षीय छात्र ने कहा, ‘‘अब मैं शर्म महसूस नहीं करता हूं कि मैं क्या हूं। मैं अब अपराधी भी नहीं हूं और यह एहसास ही आजादी है।’’ भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के छात्रों और एलुमनी के 20 छात्रों के एक समूह ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर कर भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को चुनौती दी थी जिसके तहत समलैंगिक यौन संबंध बनाना अपराध है। इस फैसले का समाज के अधिकतर वर्गों से स्वागत किया खासतौर से युवाओं ने जिन्होंने इसे प्यार की जीत बताया। आईआईटी गुवाहाटी के एलुमनी और गोल्डमैन सैक्स में वरिष्ठ विश्लेशक रोमेल बराल ने कहा कि अगला कदम स्वीकार्यता है। 25 वर्षीय याचिकाकर्ता ने कहा, ‘‘हमें वो मौलिक अधिकार दिया गया जिसके हम हकदार थे।’’