मोदी ने काली मंदिर में की पूजा; बहादुर शाह जफर की मजार पर चढ़ाए फूल, दिल्ली रवाना

Thursday, Sep 07, 2017 - 11:39 AM (IST)

यंगून: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की म्यांमार यात्रा का आज आखिरी दिन था। बादशाह बहादुर शाह जफर की मजार पर जाने के बाद वे वापिस दिल्ली के लिए रवाना हो गए हैं। दिल्ली रवानगी से पहले मोदी ने काली बाड़ी मंदिर में पूजा की। फिर आंग सान म्यूजियम गए। म्यूजियम में मोदी के साथ स्टेट काउंसलर आंग सान सू की भी थीं। बुधवार को मोदी बागान गए थे, जहां उन्होंने आनंद मंदिर का दौरा किया था। बाद में मोदी ने यंगून में भारतीय कम्युनिटी के लोगों को संबोधित किया था।

2,500 वर्ष पुराने श्वेदागोन पगोडा के दर्शन
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आज म्यांमा स्थित 2,500 वर्ष पुराने श्वेदागोन पगोडा के दर्शन किए। इसे देश की सांस्कृतिक विरासत की धुरी माना जाता है। बौद्ध बहुलता वाले देश की तीन दिवसीय द्विपक्षीय दौरे के अंतिम दिन मोदी ने आज पगोडा के दर्शन किए। प्रधानमंत्री ने पगोडा परिसर में एक बोधी वृक्ष का पौधा लगाया जो साझी विरासत के महत्व को दर्शाता है। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रवीश कुमार ने ट्विटर पर लिखा है, ‘‘शश्वतता के साथ एक क्षण। पगोडा में भगवान बुद्ध के केश और अन्य पवित्र अवशेष रखे हुए हैं। यंगून में रॉयल लेक (शाही झील) के पश्चिम में स्थित पगोडा को म्यांमा के लोग सबसे पवित्र और महत्वपूर्ण बौद्ध स्थल मानते हैं। शुरुआत में 8.2 मीटर जगह में बना यह पगोडा अब 110 मीटर के परिसर में फैला हुआ है। पगोडा सोने की सैकड़ों चादरों से ढका हुआ है, जबकि स्तूप के शीर्ष पर 4,531 हीरे जड़े हुए हैं। सबसे बड़ा हीरा 72 कैरेट का है।

बहादुर शाह जफर की मजार पर चढ़ाए फूल
पीएम सुबह बादशाह बहादुर शाह जफर की मजार पर गए। उन्होंने मजार पर फूल चढ़ाए और इत्र भी छिड़का। इससे पहले वे कालीबाड़ी मंदिर पहुंचे। वहां पर पूजा-अर्चना  की। मोदी ने यांगून के श्वेदागोन पगोडा का दौरा किया।

खास है जफर की दरगाह
बहादुर शाह जफर की मौत 1862 में बर्मा (अब म्यांमार) की तत्कालीन राजधानी रंगून (अब यांगून) की एक जेल में हुई थी लेकिन उनकी दरगाह 132 साल बाद 1994 में बनी। इस दरगाह में महिलाओं और पुरुषों के लिए अलग-अलग प्रार्थना करने की जगह बनी है। ब्रिटिश शासन में दिल्ली की गद्दी पर बैठे बहादुर शाह जफर नाममात्र के बादशाह थे। बहादुर शाह जफर को हालांकि एक बादशाह के तौर पर कम और कवि एवं गजल लेखक के तौर पर ज्यादा जाना जाता है। उनकी कितनी ही नज्मों पर बाद में फिल्मी गाने बने। उनकी दरगाह दुनिया की मशहूर और एतिहासिक दरगाहों में गिनी जाती है। 1837 के सितंबर में पिता अकबर शाह द्वितीय की मौत के बाद वह गद्दीनशीं हुए। अकबर शाह जफर को मुगलों का शासन नहीं सौंपना चाहते थे।

1857 में ब्रिटिशों का पूरे भारत पर कब्जा
1857 में ब्रिटिशों ने तकरीबन पूरे भारत पर कब्जा जमा लिया था। ब्रिटिशों के आक्रमण से तिलमिलाए विद्रोही सैनिक और राजा-महाराजाओं को एक केंद्रीय नेतृत्व की जरूरत थी, जो उन्हें बहादुर शाह जफर में दिखा। बहादुर शाह जफर ने भी ब्रिटिशों के खिलाफ लड़ाई में नेतृत्व स्वीकार कर लिया लेकिन 82 वर्ष के बूढ़े शाह जफर अंततः जंग हार गए और अपने जीवन के आखिरी वर्ष उन्हें अंग्रेजों की कैद में गुजारने पड़े।

दिल्ली में दफन होना चाहता था जफर
ऐसा कहा जाता है कि बहादुरशाह जफर मृत्यु के बाद दिल्ली के महरौली में कुतुबुद्दीन बख्तियार की दरगाह के पास दफन होना चाहते थे। उन्होंने इसके लिए दो गज जगह की भी निशानदेही कर रखी थी। बर्मा में अंग्रेजों की कैद में ही 7 नवंबर, 1862 को सुबह बहादुर शाह जफर की मौत हो गई। उन्हें उसी दिन जेल के पास ही श्वेडागोन पैगोडा के नजदीक दफना दिया गया। इतना ही नहीं उनकी कब्र के चारों ओर बांस की बाड़ लगा दी गई और कब्र को पत्तों से ढंक दिया गया। जफर की मौत के 132 साल बाद साल 1991 में एक स्मारक कक्ष की आधारशिला रखने के लिए की गई खुदाई के दौरान एक भूमिगत कब्र का पता चला। 3.5 फुट की गहराई में बादशाह जफर की निशानी और अवशेष मिले, जिसकी जांच के बाद यह पुष्टि हुई की वह जफर की ही हैं।

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