प्राचीन संस्कृति को भूलते जा रहे लोग एक क्लिक में जानें क्या है बैसाखी

Thursday, Apr 13, 2017 - 08:34 AM (IST)

‘बैसाखी’  बैसाख की संक्रांति को कहा जाता है। इस दिन को सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है। इसी दिन सिखों के दसवें गुरु श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने 1699 ईस्वी को आनंदपुर  साहिब में ‘पांच प्यारों’ को अमृत छकाकर ‘खालसा पंथ’ की सृजना की थी। पांच प्यारों को अमृत छकाने का मूल उद्देश्य गुलाम मानसिकता  की जिंदगी व्यतीत कर रही जनता में ‘चढ़दी कला’ अर्थात जोश और शक्ति की भावना भर कर आत्मबल और शक्ति पैदा करना था ताकि हर प्रकार के जुल्म का डट कर सामना कर सकें। हमारे देश की स्वतंत्रता का संबंध भी किसी न किसी रूप में बैसाखी से ही जा जुड़ता है। सन् 1919 में अमृतसर में श्री हरिमंदिर के पास जलियांवाला बाग में क्रूर अंग्रेज जनरल डायर ने जिस दिन दुखदायक घटना को अंजाम दिया था, वह भी बैसाखी का ही दिन था।

 

बैसाखी से जुड़ी मान्यताओं के साथ जानें विभिन्न क्षेत्रों में कैसे मनाया जाता है यह पर्व

 


हमारा देश विभिन्न त्यौहारों का एक खूबसूरत गुलदस्ता है। इस गुलदस्ते का एक सुंदर फूल है  ‘बैसाखी’। इस पर्व का संबंध गेहूं की फसल की कटाई से है। कई लोगों  का मानना है कि बैसाखी पर आकाश में विशाख नक्षत्र होता है। अत: इस  बैसाखी के दिन व्यास ऋषि ने ब्रह्मा द्वारा रचे चार वेदों का पवित्र पाठ सम्पूर्ण किया था। इसी दिन ही राजा जनक ने एक महान यज्ञ का आयोजन किया था जिसमें अवधूत अष्टवक्र ने राजा को ज्ञान प्रदान किया था।

 

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विभाजन से पूर्व यह त्यौहार पाकिस्तान के अलग-अलग स्थानों में मनाया जाता था। आज भी वहां के गुरुद्वारों में यह परम्परा चलती आ रही है। पंजाब में श्री आनंदपुर साहब, दमदमा साहब (रोपड़), तलवंडी साबो (भटिंडा), करतारपुर (जालंधर), बहादुरगढ़ (पटियाला) और पंडोरी  महंतां दी (गुरदासपुर) के बैसाखी-मेलों में तो पूरा पंजाब और इसके पड़ोसी प्रांतों-हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान आदि से भी बड़ी संख्या में लोग श्रद्धा भावना से आते हैं।


बैसाखी का संबंध फसल के पकने की खुशी का प्रतीक है। इसी दिन गेहूं की पकी फसल को द्रांति से काटने की शुरूआत होती है। किसान इसलिए खुश है कि अब फसल की रखवाली करने की चिंता समाप्त हो गई है। बैसाखी के पर्व पर लोगों का कारोबार भी खूब चलता है। इन मेलों में बड़़े-बड़े पशु मेले आयोजित किए जाते हैं। लोग अच्छी नस्ल के पशुओं की खरीदो-फरोख्त करके अपने कारोबार में वृद्धि करते हैं। मेले में मिठाइयों के अम्बार नजर आते हैं। बच्चे पसंदीदा खिलौनें लेकर प्रसन्नता से घरों को लौटते हैं। इस तरह पूरे भारत वर्ष में हर भाईचारे के लोग मिलजुल बैसाखी का पर्व बड़ी धूमधाम से मनाते हैं। आज का मानव मशीन बन कर अपनी प्राचीन संस्कृति को भूलता जा रहा है। पश्चिमी संस्कृति की चकाचौंध में आकर बैसाखी के पर्व को भूलना नहीं चाहिए बल्कि इसे और ज्यादा उत्साह, श्रद्धा और उल्लास से मिलजुल कर मनाना हम सब का दायित्व है।      
                                                                                                                                                      

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