देश की संसद देश की जनता से दूर तो नहीं जा रही

Thursday, Jan 07, 2021 - 04:40 PM (IST)

नई दिल्ली(सुधीर शर्मा): आज देश भले ही चौमुखी विकास पा रहा हो, उद्योगपतियों की सम्पत्ति दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ रही हों, उनकी विलासिता की वस्तुएं वैश्विक स्वरूप पा रही हों, पैसे के बल पर सबकुछ खरीदनें की शक्ति कुछ लोगों में आ गयी हो, पर देश का किसान-श्रमिक उचित मूल्य के लिए तथा जमीन अपनी उर्वरता के लिए तरस रही है। इसी कारण लगता नहीं कि हम राजेन्द्र प्रसाद, सरदार पटेल, गांधी और लालबहादुर शास्त्री के देश में रह रहे, जिन्होंने देश के किसानों एवं गरीब-मजदूरों के लिए जिया था। देश की संसदीय व्यवस्था इन प्राथमिकताओं के साथ निर्मित हुई थी कि देश के इस विशाल वर्ग को स्वावलम्बी एवं आत्मनिर्भर बनाना है। जिन्होंने देश के मजदूर, गरीब वर्ग के स्वाभिमान को बढ़ाना संसद की प्राथमिकताओं में रखा था, जिससे कोई पूजीपति उद्योगपति अपने पैसे और प्लान के बल पर उनका शोषण न कर पाये।

देश की आम जनता भूख से मुक्त हो सके
देश के सरकारी चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी और देश के किसानों की आय बढ़ाने का संकल्प इसी संसद के बीच लिया था। देश की आम जनता को सस्ता अनाज उपलब्ध कराने, देश को आत्मनिर्भर बनाने का संकल्प इस आशय के साथ व्यक्त किया गया था, कि जिससे देश की आम जनता स्वाभिमान से दो जून की रोटी खा सके और आत्मनिर्भर बने। देश भूख के कारण न मर जाय। लाल बहादुर शास्त्री ने तो जय जवान का नारा ही दे डाला था। देश के किसानों को उन्होंने भी बाजार की दौड़ में सामिल कराने का लक्ष्य रखा था, किन्तु वे लोग उसे इतना प्रयोगधर्मी बना देना चाहते थे कि वह अपने उत्पादन शक्ति एवं नये प्रयोगों के सहारे बाजार को टक्कर दे सके। न कि अपनी कृषि व्यवस्था को यंत्रीय उद्योगपतियों के हाथ गिनवीं रखकर असहाय बन जाये। सरदार पटेल ने तो यहां तक सावधान किया था कि हमें अपने देश के गरीबोें के सरोकारों को संसद में प्रमुखता से जगह देना होगा। यह वह देश है जहां किसानों को लेकर हरित व दुग्ध क्राति लाई गयी, जिससे देश की आम जनता भूख से मुक्त हो सके।

सरकार से दूर होता दिख रहा किसान और मजदूर
वर्तमान सरकार जब सरदार पटेल के नाम पर आगे बढ़ी, तो लगा था कि देश में अब गरीबों और किसानों मजदूरों की सुनी जायेगी। उनके दिन अब बहुरेंगे। पर हो विपरीत रहा है। आज तो किसान और मजदूर ही इस सरकार से दूर होता दिख रहा है। अन्य सरकारें भी किसानों को ठगती रहीं, पर वर्तमान ने पूरी तरह से जैसे कसम खा ली है कि हम देश के किसान, श्रमिक और कृषि को नेस्तनाबूत करके मानेंगे। तभी तो देश की संसद के सिर पर व राजधानी दिल्ली के चारों ओर ठंठ झेलते हजारों किसानों की तरफ से ये केंद्र सरकार अपनी बेरुखी अपनाये बैठी है। यही नहीं किसान आंदोलन की आवाज देश में न गूंजे इसके लिए देश भर में इवेंट मैनेजमेंट के तहत सरकार के शीर्ष स्तर के कार्यक्रम आयोजित हो रहे हैं। रिमोट के बलपर देश भर में हमारे प्रधानमंत्री सौगातें बांट रहे हैं और देश के मुख्यधारा की मीडिया उनके गुणगान में लगी है।

आर्थिक हालत इस सरकार में सबसे खस्ता
जबकि सरकार के ही आंकड़े बताते हैं कि आजादी के बाद से अब तक की सरकारों की अपेक्षा अपने देश की आर्थिक हालत इस सरकार में सबसे खस्ता है, बेरोजगारी सबसे भयावह स्तर पर पहुुंच गयी है, स्वास्थ्य शिक्षण संस्थान, विश्वविद्यालय से लेकर विविध क्षेत्रें में इस सरकार के विकास कार्य ठप से हैं। निर्माण व विकास की दृष्टि से सरकार फिसड्डी साबित हो रही है, उंगली पर भी गिनाने लायक इन्फास्टक्चर इन सात वर्षों में नहीं तैयार कर पायी हैै। फिर भी सरकार अपने मंत्री सहित शीर्ष स्तर पर अपनी महिमागान में लगे हैं। इन सबके बीच देश के हजारों किसानों के इस आंदोलन को कोई सुनने वाला न होना, भारत जैसे लोकतांत्रिक देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है।

तीनों कृषि कानून रद्द किये जाएं
कड़ाके की ठंड के बीच आज किसान आंदोलन का 39वां दिन है। सिंघु बॉर्डर, टिकरी बॉर्डर, गाजीपुर बार्डर पर किसानों का अपनी मांग कि तीनों कृषि कानून रद्द किये जाएं और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर गारंटी के लिए कानूनी प्रक्रिया पूरी हो, इसे लेकर सरकार के खिलाफ प्रदर्शन जारी। किसान और सरकार के बीच सात दौर की बातचीत हो चुकी है। कल 4 जनवरी को अगली बैठक को लेकर 80 किसान संगठनों के नेताओं की रणनीतिक मंथन बैठक हो चुकी है। कई किसान संगठन कह चुके हैं कि यदि 4 जनवरी को कोई हल नहीं निकलता, तो किसान और सरकार के बीच संघर्ष तेज होगा। वैसे भी जिन दो मुद्दों पर सहमति बनी है, उसे किसानों को दी जाने वाली लालीपाप ही कहना चाहिए। सरकार में सामिल दलों को लेकर भी किसानों के तेवर तल्ख हैं कि जिसे हमारे आंदोलन का समर्थन करना है, वह पहले सरकार का समर्थन वापस ले, जो बड़ी बात है। किसानों ने सरकार को चेता डाला है कि सरकार आन्दोलनों की तरह इस आंदोलन को हल्के में ना ले। उधर कन्फेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्ज के मुताबिक इस आंदोलन से देश के हजारों करोड़ के नुकसान का अनुमान भी सामने आ रहा है। अब तक इस आंदोलन से 53 के लगभग किसानों की मौत भी हो चुकी है।

कहीं और से संचालित हो रही सरकार
जन और धन हानि जैसी इन परिस्थितियों के बावजूद भी सरकार द्वारा किसान आंदोलन के प्रति सकारात्मक रुख न दिखाना, साबित करता है कि सरकार देश की संसद से नहीं अपितु कहीं और से संचालित हो रही है। सरकार के पीछे निश्चित ही वे आर्थिक व कानून के दांवपेजबाज काम कर रहे हैं, जिन्हें अपने लाभान्श से मतलब है। वे शक्तियां काम कर रही हैं, जो क्रूर हैं और येनकेन प्रकारेण अपना हित साधना चाह रही हैं, अन्यथा सरकार पसीजती जरूर। केवल किसान आंदोलन ही नहीं, अपितु इस सरकार के सामने अनेक आंदोलन आये, पर सरकार का रुख समान कठोरता वाला रहा। सभी आंदोलनों को सरकार कठोरता से बदनाम करने से लेकर कुचलने पर ही जोर देती रही।

जनता की इन मांगों से कोई लेना देना नहीं
इससे भी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह कि सरकार ने अपने कठोर से कठोर उन निर्णय को जिसका देश व्यापी भारी विरोध हुआ, उन सबको देश की जनता के सामने अनुकूल साबित करने के लिए वह ऐसा कुछ करती रही है, जो लोकतंत्र के गहरे जानकार लोगों की दृष्टि में सरकार के प्रति अविश्वास पैदा होना स्वाभाविक है। अपनी अनुकूलता के लिए सरकार द्वारा मीडिया मैनेजमेंट, इवेन्टमैनेजमेंट, प्रतिरोधातात्मक समूह को खडे़ करना, अनेक निजी आईटी सेल का सहारा लेना, अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं का भरपूर उपयोग करना, सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग करना आदि पक्ष ऐसे हैं, जो देश की स्वाभाविकता एवं लोकतंत्रीय व्यवस्था दोनों के लिए दूरगामी कठिनाइयों भरा संकेत दे रहे हैं। साथ ही साबित करता है कि सरकार स्पष्ट है कि हमें जनता की इन मांगों से कोई लेना देना नहीं। सच कहें तो इसे सरकार एवं प्रधानमंत्री की असंवेदनशीलता से कम और क्या कहा जा सकता है, जिसे देश को आज झेलना पड़ रहा है।

सरकार अपनी हठधर्मिता छोड़कर उचित कदम उठायेे
यह वही भारत देश है जहां आजादी के बाद करोड़ों विस्थापित दिल्ली सहित देश के विभिन्न हिस्सों में डेरा जमा लिये थे, जिनको स्थापित करने के लिए देश की तत्कालीन सरकार ने प्रभावी कदम उठाया था। आज उसी देश की संसद अपने ही किसानों की बसी बसाई व्यवस्था को उजाड़ने पर तुली है। किसी सरकार की यह मानसिकता तभी बनती है, जब वह अहम में आकर देश की परम्पराओं को भूलकर संख्याबल और सरकारी ताकत पर गुमान करने लगती है। जिसका दुष्प्रभाव सरकार पर भले न पडे़, पर देश को इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है। हां श्रीमती इंदिरागांधी जैसी शक्तिशाली सरकार को भी देश की जनभावना को नजरंदाज करने की कीमत चुकानी पड़ी है और देश ने उन्हें उखाड़ फेका। इसलिए वर्तमान सरकार को भी सावधान होकर कदम उठाने की जरूरत है। उसे याद रखना चाहिए कि देश की सरकार व संसद बहुमत के अहंकार से नहीं, अपितु करोड़ों देशवासियों की भावसंवेदनाओं, उनके सरोकारों से चलती। अतः ये आंदोलनरत किसान देश व्यापी घेराबंदी करें, उसके पहले सरकार अपनी हठधर्मिता छोड़कर उचित कदम उठायेे। इसी में सरकार और देश दोनों का हित शामिल है।

rajesh kumar

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