‘राष्ट्रवाद’ पर मैक्रों का भाषण हमारी आंखें खोलने वाला

punjabkesari.in Tuesday, May 01, 2018 - 02:20 AM (IST)

नेशनल डेस्कः 180 वर्ष पूर्व अमरीका की यात्रा पर गए एक फ्रांसीसी व्यक्ति ने अमरीकी लोकतंत्र की व्याख्या करते हुए एक निबंध लिखा था। अलैक्सी डी टॉकविल्ले नामक इस व्यक्ति ने अपनी पुस्तक में अमरीकी लोकतंत्र में ‘बहुमत के अत्याचार’ के संबंध में चेतावनी दी थी।  यह एक ऐसी पुस्तक है जिसे अमरीकियों ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी बहुत गंभीरता से लिया क्योंकि यह उनके हाईस्कूलों में अनिवार्य रूप में पढ़ाई जाती थी। (यहां तक कि 30 वर्ष पूर्व मुझे भी अमरीकी स्कूल में यह पुस्तक पढऩी पड़ी थी।

इमैनुअल मैक्रों ने डोनाल्ड ट्रम्प को कड़वी सच्चाइयों से अवगत कराया
अमरीका में फ्रांसीसियों को आमतौर पर सांस्कृतिक नफरत का निशाना बनाया जाता है। अमरीकी श्रमिक वर्ग के जीवन पर आधारित बहुत ही प्रभावशाली टी.वी. सीरियल ‘द सिम्पसन्ज’ ने द्वितीय विश्व युद्ध में पैरिस वासियों की भूमिका के संबंध में एक उक्ति गढ़ी थी : ‘‘पनीर भक्षक आत्मसमर्पक बंदर’’ इसका अर्थ यह था कि वे ऐसे बेकार के आधुनिकतावादी हैं जो यथार्थ से बिल्कुल टूटे हुए हैं। लेकिन अप्रैल माह में फ्रांसीसियों के मुंह से अमरीकियों को इसी तरह के शब्द सुनने पड़े और वह भी अमरीकी संसद भवन में। फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रों खड़े हुए तथा अमरीकियों और खासतौर पर अपने मित्र राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को कुछ कड़वी सच्चाइयों से अवगत करवाया। उन्होंने डी टॉकविल्ले का तो उल्लेख नहीं किया परन्तु बैंजेमिन फ्रैंकलिन, अब्राहम लिंकन, मार्टिन लूथर किंग, छातोब्रयां और वाल्टेयर के जीवन के प्रसंग सुना-सुनाकर अमरीकी सीनेटरों और कांग्रेस सदस्यों को तैश में आने से रोके रखा। वैसे यह सोच कर हैरानी होती है कि मैक्रों ने जो कुछ कहा, उसकी ट्रम्प को क्या कुछ समझ लगी होगी! दुनिया आज जिस ओर जा रही है उसके बारे में अपने विचार व्यक्त करते हुए मैक्रों ने कहा- ‘‘यदि आप मेरी निजी राय पूछें तो मैं नई मजबूत शक्तियों के प्रति दीवानगी का पक्षधर नहीं हूं ... मैं स्वतंत्रता के परित्याग और राष्ट्रवाद की मृगतृष्णा के प्रति भी कोई दीवानगी की भावना नहीं रखता... इस संबंध में अमरीका और यूरोप की भूमिका ऐतिहासिक है क्योंकि अपने सार्वभौमिक जीवन मूल्यों को बढ़ावा देने और यह मत व्यक्त करने के मानवाधिकार, अल्पसंख्यकों के अधिकार तथा आजादी की हिस्सेदारी ही दुनिया की व्याधियों का सही समाधान हैं-जैसे विचारों का समर्थन करने का यही एकमात्र तरीका है। मैं इन अधिकारों और जीवन मूल्यों में आस्था रखता हूं।’’

राष्ट्रवाद के मुद्दे पर मैक्रों ने अपने विचार विशेष रूप में जोरदार ढंग से प्रस्तुत करते हुए कहा: ‘‘हम अलहदगीवाद, आत्म विस्मृतिवाद तथा राष्ट्रवाद में से चयन कर सकते हैं। हमारे पास विकल्प मौजूद हैं। हमारे अंदर छिपे विभिन्न प्रकार के भय का निवारण करने के लिए यह एक अस्थायी औषधि है। लेकिन यदि हम दुनिया के प्रति अपने दरवाजे बंद कर लेते हैं तो इससे दुनिया का क्रमिक विकास रुकेगा नहीं। इसकी ज्वाला बुझने की बजाय हमारे नागरिकों के अंदर डर को और भी प्रज्वलित करेगी। हमारी आंखों के ऐन सामने जो नए-नए जोखिम प्रकट हो सकते हैं हमें उनके प्रति अपनी आंखें खुली रखनी होंगी। मैं पूरे विश्वास से कह सकता हूं कि यदि हम अपनी आंखें अच्छी तरह खोलकर रखने का फैसला लेते हैं तो हम और भी मजबूत बनेंगे तथा दरपेश खतरों पर हावी हो जाएंगे। हम चरम राष्ट्रवाद की विनाशक शक्तियों को व्यापक खुशहाली की अपनी उम्मीदों पर हावी नहीं होने देंगे।’’

मिल रही है अधिक से अधिक राष्ट्रवाद की घुट्टी
क्या आपको याद है कि आपने इस तरह के विचार इससे पहले किस नेता के मुंह से सुने थे? वैश्वीकरण के बारे में हमारी समझ केवल यहां तक सीमित है कि हमें दुनिया भर से आऊटसोर्सिग का काम मिलना चाहिए और हमें एच1-बी वीजा तथा आई-फोन का अधिकार है लेकिन हम शरणार्थियों को नहीं चाहते। राष्ट्रवाद को एक मृगतृष्णा (जोकि वास्तव में यह है ही) तथा एक प्रकार का खतरा करार देना एक ऐसी चुनौती है जिसकी हमारे इलाकों में बहुत अधिक जरूरत है। हमारा दुर्भाग्य ही कहिए कि हमें अधिक से अधिक राष्ट्रवाद की घुट्टी मिल रही है। ‘भारत माता की जय’ के रूप में विडम्बना यह है कि इस संबंध में हमें उस देश के नेता से सबक सीखना पड़ रहा है जिसने 1789 में राष्ट्रवाद का आविष्कार किया था।

वैसे हमारा राष्ट्रवाद तो उस राष्ट्रवाद से कहीं अधिक भयावह है जिसके संबंध में मैक्रों अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे थे। हमारा राष्ट्रवाद भयावह इसलिए है कि यह हमारे अपने ही लोगों को लक्ष्य बनाता है। मुझे यह व्याख्या करने की जरूरत नहीं कि इसका तात्पर्य क्या है लेकिन क्या आप सपने में भी ऐसा सोच सकते हैं कि हमारा नेता यह कहेगा कि ‘‘अल्पसंख्यकों के अधिकार ही दुनिया की व्याधियों का सच्चा इलाज हैं?’’ मैं यह स्वीकारोक्ति करता हूं कि मैं अपने देश के नेता के मुंह से ऐसे शब्द सुनने की कल्पना नहीं कर सकता। फिर भी मैं बहुत कठोर परिश्रम करके ऐसे पल की विशेष रूप में परिकल्पना करने का प्रयास कर रहा हूं। अल्पसंख्यकों के लिए ‘विषाक्त’ जैसी संज्ञा प्रयुक्त करने के बाद हम उम्मीद ही किस बात की कर सकते हैं!

भारतीय मजहबी राष्ट्रवाद की वानर सेनाओं ने ‘मानवाधिकारों’ को बनाया डरावना
मुझे यह भी स्वीकारोक्ति करनी चाहिए कि मैं मैक्रों के एक अन्य उल्लेख से अचानक हत्प्रभ रह गया था। उन्होंने कहा था : ‘‘हमारे मध्य सबसे अविनाशी, सबसे शक्तिशाली और सबसे अधिक स्पष्ट बंधन वह है जो हमारे लोगों को अब्राहम ङ्क्षलकन के शब्दों में ‘लोकतंत्र के अधूरे एजैंडे’ को पूरा करने की दिशा में आगे बढऩे के लिए एक सूत्र में पिरोता है।’’ आखिर लोकतंत्र का यह अधूरा एजैंडा क्या है? मैक्रों इसकी व्याख्या  ‘‘सभी के लिए मानवाधिकार’’ के रूप में करते हैं। मानवाधिकारों के प्रति सकारात्मक उल्लेख हमारे जमाने में कुछ अजब-गजब तथा अटपटा-सा लगता है। ‘सैकुलर’ तथा ‘उदारवादी’ शब्दों की तरह भारतीय मजहबी राष्ट्रवाद की वानर सेनाओं ने ‘मानवाधिकारों’ को जनता के लिए एक डरावनी चीज बनाकर रख दिया है और अब यह उनके अस्तित्व की गारंटी बिल्कुल नहीं रह गया है।

फ्रांसीसी राष्ट्रपति के शब्दों में एक काविकता है जो हमें बताती है कि इस भाषण को उन भाषणों की तरह भुला नहीं दिया जाएगा जो उनसे पहले अमरीकी संसद में दिए गए थे। (हमारे देश के नेता ने इसी स्थान पर जो भाषण दिया था उसका तो एक भी शब्द जेहन में नहीं आता) यही कारण है कि मैक्रों के भाषण को अमरीका में ऐसी कवरेज मिली जैसी बहुत कम भाषणों को मिलती है।

मैक्रों के भाषण को पढऩे से यह उजागर हो जाएगा कि हम लोग किस तरह शर्मनाक हद तक संकीर्ण मानसिकता वाले बन चुके हैं। सचमुच में अजीब बात यह है कि मैक्रों के भाषण की व्याकरण पूरी तरह हमारे संविधान से लयबद्ध है। जो उन्होंने कहा है वह किसी भी तरह उससे अलग नहीं है जिसका वायदा 15 अगस्त 1947 की आधी रात को हमारे देश के लोगों के साथ किया गया था। - आकार पटेल     (साभार : इंडियन एक्सप्रैस)


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