नहीं टूटेगा भारतीय राजनीति के ‘प्रथम रथयात्री’ का मौन

Monday, Mar 25, 2019 - 11:50 AM (IST)

नई दिल्ली: भारतीय राजनीति के ‘प्रथम रथयात्री’ लालकृष्ण अडवानी एक ऐसा नाम हैं, जिसने पिछले करीब छह दशक में कई सियासी हवाएं अपनी सूझबूझ से पलटी हैं। उन्होंने सियासत की विपरीत हवाओं का रुख भाजपा के पक्ष में मोड़ा और कभी दो सीटों पर सिमट गई पार्टी को सत्ता के दरवाजे तक लाए। मगर अब पांच साल से वह मौन हैं। पार्टी ने उन्हें इसबार गुजरात के गांधीनगर से टिकट नहीं दिया है।  

दूरंदेशी फैसलों के लिए पहचाने जाते हैं अडवानी
अडवानी दूरंदेशी फैसलों के लिए पहचाने जाते हैं। राम मंदिर, रथयात्रा और हिंदुत्व पर अपने रुख से उन्होंने पार्टी को उत्तर भारत में मजबूत किया। वह सूझबूझ भरे संगठन कौशल, प्रखर बयानों और प्रबुद्ध व्यक्तित्व के लिए जाने जाते हैं। लेकिन जब उनके खुद के बारे में पार्टी में फैसले होने लगे तो वे उन मौकों पर चूक गये। वर्ष 2005 की चर्चित पाकिस्तान यात्रा और 2013-14 में प्रधानमंत्री पद के लिए उम्मीदवार के चयन के मामले में उनके निर्णय उन्हें भारी पड़े। पार्टी ने उन्हें पहले मार्गदर्शक मंडल में डाला और अब उन्हें टिकट तक नहीं दिया गया। उन्हें राजनीति के अर्श से फर्श पर धकेल दिया गया है मगर वह मौन हैं।  अडवानी के राजनीतिक जीवन पर यदि नजर डालें तो 2004 का वर्ष निर्णायक था। भारतीय राजनीति में तब यह लगभग तय हो गया था कि अब भाजपा की कमान अडवानी ही संभालेंगे। उन्हें पीएम इन वेटिंग कहकर प्रचारित किया गया। 

जिन्ना की मजार पर जाकर अडवाणी ने दी श्रद्धांजलि
इस बीच 2005 में वह पाकिस्तान यात्रा पर गए। इस यात्रा का एक छिपा मकसद सभी वर्गों में अडवानी की स्वीकार्यता बढ़ाना था। क्योंकि रथयात्राओं और रामजन्म भूमि आंदोलन के कारण उनकी छवि एक हिन्दूवादी नेता की बन चुकी थी। पाकिस्तान यात्रा के दौरान अडवानी ने न केवल मोहम्मद अली जिन्ना की मजार पर जाकर उन्हें श्रद्धांजलि दी, बल्कि उन्हें एक ‘धर्मनिरपेक्ष नेता’ भी बताया। अडवानी के इस बयान से राजनीतिक तूफान खड़ा हो गया। पाकिस्तान से लौटने के फौरन बाद उन्हें भाजपा अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा।  तमाम राजनीतिक खींचतान के बावजूद भाजपा ने अडवानी को अपना चेहरा बनाते हुए 2009 का चुनाव लड़ा। किंतु भाजपा सरकार बनाने में विफल रही और इसी के साथ अडवानी की संभावनाओं का दायरा भी सिकुड़ गया। गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी उन्हें चुनौती दे सकने वाले नेता के रूप में धीमे धीमे उभरने लगे। 

वाजपेयी के बाद सबसे कद्दावर नेता माने जाते हैं अडवाणी
भाजपा ने 2014 के आम चुनाव से पहले मोदी को पार्टी की अभियान समिति का अध्यक्ष बनाया तो अडवानी ने परोक्ष असहमति जतायी। फिर जब पार्टी ने मोदी को प्रधानमंत्री चुना तो उन्होंने चुप्पी साध ली। मोदी सरकार में 75 वर्ष की आयु का एक अलिखित नियम बनाकर अडवानी सहित कई उम्रदराज नेताओं को कोई मंत्री पद नहीं दिया। बाद में पार्टी ने उनको मार्गदर्शक मंडल में डाल दिया जिसे लेकर विपक्ष आज तक भाजपा पर तीखे तंज कसता है। हालांकि इन मुद्दों पर अडवानी ने आज तक आरएसएस या भाजपा के विरुद्ध एक भी शब्द नहीं कहा। अब जबकि पार्टी ने पारंपरिक गांधीनगर सीट छीनकर वहां से भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को मैदान में उतारा है तो माना जा रहा है कि अडवानी इस निर्णय पर भी मौन ही रहेंगे क्योंकि वह संघ और पार्टी के निष्ठावान कार्यकर्ता हैं।  अडवानी को भाजपा में अटल बिहारी वाजपेयी के बाद सबसे कद्दावर नेता माना जाता है। इसका कारण भी स्पष्ट है। 

1984 के आम चुनाव में महज दो सीटों पर सिमट गई थी भाजपा
1984 के आम चुनाव में भाजपा महज दो सीटों पर सिमट गई थी। उसके बाद इस पार्टी ने धीरे धीरे भारतीय राजनीति में जिस प्रकार अपने पैर मजबूती से जमाये और पहले विपक्ष की मजबूत आवाज के रूप में और फिर सत्ता में पहुंचने पर अपनी खास छाप छोड़ी, उसमें उनके व्यक्तित्व और उनकी रथयात्राओं की महत्वपूर्ण भूमिका है। अविभाजित भारत में आठ नवंबर 1927 को कराची एक व्यावसायिक सिंधी परिवार में जन्मे अडवानी की शुरूआती शिक्षा कराची, हैदराबाद (पाकिस्तान स्थित) में हुई। देश विभाजन के बाद उनका परिवार भारत आ गया और उन्होंने बंबई विश्वविद्यालय के सरकारी लॉ कालेज से कानून की पढ़ाई की। सार्वजनिक जीवन की शुरुआत अडवानी ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के स्वयंसेवी के रूप में कराची से ही कर दी थी। आपातकाल दौरान उन्हें जेल में रखा गया। आपातकाल के बाद बनी मोरारजी देसाई सरकार में आडवाणी को सूचना प्रसारण मंत्री बनाया गया था। सूचना प्रसारण मंत्री के रूप में अडवानी का एक वाक्य आपातकाल के दौरान अधिकांश भारतीय मीडिया की तस्वीर बयां करता है और आज भी इसे दोहराया जाता है...‘आपसे केवल झुकने को कहा गया था, आप तो रेंगने लगे।’     

Anil dev

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