राजनीति के फेर में गुम होते राज्य के मुद्दे

punjabkesari.in Saturday, Oct 14, 2017 - 11:19 AM (IST)

भारतीय राजनीति में एक बड़ी दिलचस्प कहावत है कि राजनीति में कोई भी स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता है। इसी कहावत को चरितार्थ कर रही है बिहार की वर्तमान राजग गठबंधन वाली सरकार। लेकिन, इस दोस्ती-दुश्मनी के फेर में सियासतदां अपनी प्राथमिकताओं और राजनीतिक समीकरणों को जिस प्रकार से उलट देते हैं, वह बहुत ही हास्यास्पद लगता है। विडंबना तो देखिए कि बिहार के लिए विशेष दर्जा की मांग को लेकर पटना के गांधी मैदान से लेकर दिल्ली के रामलीला मैदान तक दहाडऩे वाले और इसके लिए कुछ भी कर गुजरने की बात करने वाले नीतीश कुमार की अपनी ही पार्टी इस मुद्दे पर मौन ही नहीं हैं, बल्कि इस मांग को विराम देने की भी बात कर रही है। भाजपा के साथ तालमेल बैठाने के लिए जदयू ऐसा करना जरूरी समझ रही है। तो फिर इसे तालमेल क्यों कहें? इसे अवसरवादिता की पराकाष्ठा न कहें? वही अवसरवादिता जिसका इल्जाम पहले भाजपा जदयू पर लगाती थी और अब राजद व कांग्रेस लगा रही है। 

लेकिन, इस आरोप-प्रत्यारोप में बिहार का भविष्य कहां है? सवाल है कि जदयू की इस लाग-लपेट वाली राजनीति से क्या समझा जाए? क्या यह समझा जाए कि सत्ता हथियाने और अपनी राजनीतिक भविष्य को सुरक्षित करने के लालच में राज्य के फायदे की बलि चढ़ा दी गई है? क्या यह न समझा जाए कि ‘बिहारी अस्मिता और ‘बिहारी डीएनए’ के रथ पर सवार होकर सत्ता हासिल करने वाली पार्टी बिहारियों के विकास की अनदेखी कर रही है? यहां पर नीतीश कुमार का वह दावा भी खोटा लग रहा है जिसमें उन्होंने कहा था कि जब राज्य और केंद्र में एक ही पार्टी की सरकार रहेगी तो राज्य के विकास की गति बढ़ जाएगी। लेकिन शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की बदहाल स्थिति जस की तस बनी हुई है। इस राजग सरकार का एक भी उल्लेखनीय काम न दिखना और  इसके बाद बाढ़ की समस्या से बिहार की कमर का टूट जाना, राज्य के प्रति सरकार की फिक्रमंदी की पोल खोलता है। नीतीश सरकार को बताना चाहिए कि इन सभी मुद्दों पर वह सिर्फ राजनीति ही कर रहे हंै या जमीनी स्तर पर कुछ काम भी करेंगे। नीतीश कुमार को बताना चाहिए कि एक लाख 25 हजार करोड़ के उस पैकेज का क्या हुआ जिसकी घोषणा प्रधानमंत्री मोदी ने की थी।

प्रधानमंत्री मोदी के विशेष राज्य के दर्जे के वादे का क्या हुआ। लेकिन इन सभी मुद्दों पर नीतीश कुमार की चुप्पी उनकी नीयत पर ही संदेह पैदा करती है। महागठबंधन की सरकार में रहते हुए विशेष पैकेज और विशेष दर्जे के लिए बेचैन रहने वाले नीतीश कुमार के सुर का बदल जाना महज वादे से पलटन जाना भर नहीं है, बल्कि उनके उस दावे का पोल खुल जाना भी है जिसमें वह खुद को सुशासन बाबू और विकासपुरूष बतलाते रहे हैं। अगर आप गौर करेंगे तो पाएंगे कि एक महीन राजनीति की दौड़ चल पड़ी है। एक ऐसी राजनीति जिसमें कोई भी दल गठबंधन के दूसरे दल को असहज नहीं करना चाहती। जदयू जानती है कि विशेष राज्य के दर्जे की मांग उसकी सहयोगी भाजपा के लिए मुश्किल खड़ी कर सकती है। जदयू यह भी समझती है कि केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार बिहार को विशेष दर्जा देने के मूड में नहीं है। फिर ऐसे में भाजपा को असहज कर विपक्ष को कोई मौका नहीं देना चाहती। 

लिहाजा जिन मुद्दों पर जदयू भाजपा का विरोध करती थी अब उन्हीं मुद्दों पर जदयू की भागीदार बनने को तैयार है। ऐसा करने के पीछे  जदयू की मजबूरी है या कोई राजनीतिक दांव, यह तो समय बताएगा। लेकिन जदयू के इस दोहरे चरित्र के कारण जनता में असंतोष की लहर जरूर चल रही है। जनता को ज्यादा दिनों तक मुगालते में रखना आसान नहीं है, यह जदयू भी समझती है। यही कारण है कि बिहार में चुनावी सरगर्मी अभी से ही तेज हो गई है। लोकसभा की 40 और विधानसभा की 243 सीटों पर दोनों जदयू व भाजपा दोनों की अलग-अलग चुनावी तैयारियां बता रही है कि अंदरूनी तौर पर सबकुछ ठीक नहीं है। अमित शाह और मोदी की जोड़ी की राजनीतिक महत्वाकांक्षा से नीतीश कुमार भी बखूबी वाकिफ हैं।

भाजपा द्वारा अरूणाचल प्रदेश और उत्तराखंड में बड़े उलट फेर के नीहितार्थ को नीतीश भी भलीभांति समझते होंगे। ऐसे में यह देखना बड़ा दिलचस्प होगा कि आने वाले चुनाव में नीतीश कुमार की रणनीति क्या होती है। लेकिन फिर सवाल है कि इस राजनीति दांवपेंच में जनता के मुद्दे कहां हैं?  बिहारी अस्मिता और बिहार में बहार वाले नारे फीके क्यों पडऩे लगे हैं?  क्या राजनीतिक पार्टनर बदल जाने से प्राथमिकताएं भी बदल जाती है? लिहाजा अगर अपनी राजनीतिक जमीन बचानी है तो इन सभी सवालों के जवाब नीतीश कुमार को देना चाहिए। यह कतई नहीं भूलना चाहिए कि जनता जब वोटर में तब्दील हो जाती है तो वह किसी भी सियासी दलों की राजनीतिक जमीन खिसका देती है। (रिजवान अंसारी )


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