अनाथालय में पली-बढ़ी दो कश्मीरी लड़कियां बनी प्रेरणा

punjabkesari.in Friday, Oct 20, 2017 - 03:49 PM (IST)

श्रीनगर : ऐसे समाज में जहां माहवारी को लेकर तमाम तरह की गलत धारणाएं पाई जाती हों, जम्मू एवं कश्मीर के सीमावर्ती गांव की दो महिला सामाजिक उद्यमी इस नियमित जैविक प्रक्रिया से जुड़ी धारणाओं के प्रतिरोध में सामने आई हैं। वे ना सिर्फ जागरूकता फैलाने में जुटी हैं, बल्कि उन गरीब महिलाओं की मदद करने के लिए सैनिटरी नैपकिन बनाकर इनकी बिक्री भी करती हैं, जो ब्रांडेड उत्पादों को खरीदने में सक्षम नहीं हैं।


मीर मुशर्रफ  (18) और मुबीना खान (25) यहां एक अनाथालय में पली-बढ़ी हैं। उन्होंने अपनी उद्यमिता की यात्रा की शुरुआत दो साल पहले की थी और उन्हें अच्छी तरह से पता था कि उन्होंने किस कठिन काम को चुना है। मीर ने बताती हैं कि हमने अनुभव किया है कि कश्मीर में महिलाएं, खासतौर से सीमावर्ती इलाकों की और ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाएं माहवारी के दौरान किस दौर से गुजरती हैं। यह केवल माहवारी से जुड़ी कलंक लगाने वाली बातों के बारे में नहीं है, यह इस दौरान स्वच्छता के बारे में भी है। मुबीना ने कहा कि यह कभी भी आसान नहीं होने वाला था। हम इसे जानते थे कि कश्मीर में माहवारी के बारे में बात करना, यहां तक कि महिलाओं के साथ भी इसके बारे में बात करना आसान नहीं होगा। लेकिन, हम इस कलंक को परास्त करना चाहते थे।

बचपन में खो दिया पिता का साया
बतादें मीर मूल रूप से केरन गांव की हैं, जो राज्य की राजधानी श्रीनगर से करीब 100 किलोमीटर उत्तर में है। उन्होंने अपने पिता को अपनी युवावस्था में ही खो दिया था। उनके पिता किसान थे और रक्त कैंसर से पीड़ित थे। केरन, भारत और पाकिस्तान के बीच जम्मू और कश्मीर को विभाजित करने वाले नियंत्रण रेखा (एल.ओ.सी.) के पास का गांव है, जहां अक्सर दोनों देशों की सेनाओं के बीच झड़पें होती रहती हैं। मीर का परिवार सीमा पर अक्सर होने वाली झड़पों के कारण 1990 की शुरुआत में कुपवाड़ा आ गया। यह वह दौर था जब कश्मीर में आतंकवाद चरम पर था और पाकिस्तान, सीमा पर गोलीबारी की आड़ में सशस्त्र घुसपैठियों को भारतीय सीमा में भेजता था।

मां ने भेज दिया अनाथालय
मीर की मां के पास अपने पति के मौत के बाद परिवार चलाने के लिए आय का कोई स्रोत नहीं था। ऐसे में उन्होंने अपनी बेटी को बसेरा-ए-तबस्सुम में दाखिल करा दिया, जो कुपवाड़ा में एक अनाथालय है, जिसे पुणे की गैर-सरकारी संस्था बार्डरलेस वल्र्ड फाउंडेशन द्वारा चलाया जाता है। अनाथालय में मीर की दोस्ती ‘खुद उन्हीं की जैसी मानसिकता वाली’ मुबीना खान से हुई, उसने भी अपने पिता को महज ढाई साल की उम्र में ही खो दिया था।

अनाथालय में सीखा हुनर
इस अनाथालय में ना सिर्फ  लड़कियों को पाला पोसा गया, बल्कि उन्हें कुपवाड़ा में सामाजिक-आर्थिक बदलाव का दूत बनने के लिए उद्यमशीलता का कौशल भी सिखाया गया। कुपवाड़ा एक ऐसा क्षेत्र हैं, जहां की करीब 40 फीसदी आबादी गरीबी रेखा के नीचे है। अनाथालय के अपने दिनों को याद करते हुए मीर और मुबीना बताती हैं कि किस प्रकार वे घंटों बातें करती थीं और अपने जीवन में जो करना चाहती थीं, उसकी योजनाएं बनाती थीं।

महिलाओं के लिए कुछ करने की चाह
मीर ने कहा कि मैं हमेशा से महिलाओं के लिए कुछ करना चाहती थी, खासतौर से वे जो सीमावर्ती इलाकों में रहती हैं। लेकिन, मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि कभी महिलाओं से माहवारी के बारे में इस तरह खुलकर बात कर पाउंगीए सैनेटिरी नैपकिन के निर्माण को तो छोड़ ही दें।
उन्होंने कहाए श्वास्तव में यह विचार मुबीना का था और आप जानते हैं कि क्यों, मुबीना खान हमेशा इस बात से परेशान रहती थीं कि महिलाओं के साथ माहवारी के दौरान कितने बुरे तरीके से व्यवहार किया जाता है। उन्हें रसोईघर में जाने की अनुमति नहीं होती, वे प्रार्थना नहीं कर सकतीं। वे उन दिनों अछूत जैसी हो जाती हैं।
मुबीना ने कहा कि हमें जब पहली माहवारी आई थी, तो हमारी मां ने हमें कुछ गंदे कपड़े दिए थे और यह निर्देश दिया था कि इसके बारे में खुले तौर पर बात नहीं करनी चाहिए, साथ ही परिवार के बाकी सदस्यों से दूर रहना चाहिए।
उन्होंने कहा, आप कल्पना कर सकते हैं कि जब हम इस बारे खुले तौर पर बात करने के लिए बाहर निकलते हैं, तो वास्तव में लड़कियां हमारी बेशर्मी के बारे में फुसफुसाती हैं। लेकिन हमें कोई भी चीज रोक नहीं सकती।

बाजार से सस्ता उत्पाद
दोनों ने सेनेटरी पैड के निर्माण के बारे में बताया कि रोजाना वे छह पीस के 250 पैक बनाती और हरेक पैक की कीमत 26 रुपये होती, जबकि बाजार में मिलने वाले सेनेटरी नैपकिन की कीमत औसतन 35 रुपये है। इसके बावजूद उन्हें हर पैक पर 16 रुपये का लाभ होता है।

 

 


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