मां जैसी बनना गर्व की बात है, लेकिन कुछ विरासतें छोड़ देना भी जरूरी है
punjabkesari.in Friday, Jun 27, 2025 - 09:44 PM (IST)

नेशनल डेस्कः हम में से बहुत से लोग अपनी मां जैसे बनने पर गर्व महसूस करते हैं। लेकिन क्या कभी आपने सोचा है कि हर विरासत को आगे बढ़ाना जरूरी नहीं होता? कुछ विरासतें ऐसी होती हैं जो चुपचाप त्याग, दर्द और आत्म-बलिदान की कहानी कहती हैं और उन्हें छोड़ देना भी उतना ही जरूरी है जितना उन्हें पहचानना।
कंडीशनिंग का बोझ
मनोचिकित्सक और Gateway of Healing की संस्थापक डॉ. चांदनी तुगनैत कहती हैं, “बहुत सी महिलाओं ने अपनी मांओं को यह सिखाते हुए देखा कि त्याग ही ताकत है। उन्होंने देखा कि मांएं सब कुछ समेटे रहीं, भावनाओं को दबाया, खुद को पीछे रखा और इस सबको ‘अच्छी औरत’ होने का हिस्सा मान लिया गया।”
हम अक्सर इसे ‘संघर्षशीलता’ या ‘सहनशीलता’ का नाम देते हैं। और हां, वो थीं भी। लेकिन क्या ये भी मुमकिन है कि वो औरतें थकी हुई थीं, नाराज थीं, अकेली थीं — पर इतनी गरिमा से भरी थीं कि कभी कुछ कह नहीं पाईं?
खुद को खो देना कोई आदर्श नहीं
मुंबई की काउंसलिंग साइकोलॉजिस्ट, अब्सी सैम, इस उलझन को खुलकर बताती हैं। “मेरी मां एक सुपरवुमन थीं — डॉक्टर, टीचर, मां — सब कुछ। लेकिन इसी सब कुछ में उन्होंने खुद को थोड़ा-थोड़ा खो दिया। मैं ये पैटर्न तोड़ना चाहती हूं। मैं ऐसी मां नहीं बनना चाहती जो सब कुछ करती है। मैं एक ऐसी मां बनना चाहती हूं जो पूरी हो — अंदर से।”
‘परफेक्ट रोल’ का झूठ
डॉ. तुगनैत इसे “एक आदर्श भूमिका” का मिथक कहती हैं। समाज ने महिलाओं को केवल एक तरह की भूमिका में ढालने की कोशिश की — देखभाल करने वाली, शांतिदूत और हमेशा सब कुछ ठीक रखने वाली।
“लेकिन जिंदगी में एक ही मुखौटा नहीं चलता। जिंदगी को सच्चाई चाहिए। महिलाओं को यह जानना जरूरी है कि वे कोमल भी हो सकती हैं और मुखर भी। nurturing भी और ambitious भी।”
गिल्ट – सबसे बड़ा रोड़ा
कई बार हम अपने मां-बाप के बताए रास्तों से हटने में अपराधबोध महसूस करते हैं। लगता है जैसे हम उन्हें धोखा दे रहे हैं। डॉ. चांदनी कहती हैं, “कृतज्ञता कहती है, ‘मैं तुम्हारा आभार मानती हूं, और अब अपना रास्ता चुनूंगी।’ लेकिन बाध्यता कहती है, ‘तुम्हें वही करना होगा जो मां ने किया।’ जब हम इन दोनों को मिलाते हैं, तो ऐसा जीवन जीते हैं जो हमारा नहीं होता प्यार के कारण, हां लेकिन डर के कारण भी।”
एक पीढ़ी से दूसरी तक परिवर्तन
कोलकाता की शिक्षिका अनुस्री सेन, जो 60 वर्ष की हैं, बताती हैं कि कैसे उनकी मां पढ़ी-लिखी और प्रगतिशील होने के बावजूद उन्हें अपने सपनों को पूरा करने की पूरी छूट नहीं दे सकीं।
“1990 में मुझे दिल्ली में एक बड़ी नौकरी मिली थी, लेकिन मेरी शादी करवा दी गई। बाद में जब कॉर्पोरेट नौकरी का अवसर आया जिसमें रात की शिफ्ट थी, तो घर के लिए उसे छोड़ना पड़ा।” लेकिन आज वो इस बात से खुश हैं कि उनकी बेटी पीएचडी कर रही है और उन्होंने खुद उस पुरानी सोच को बदला।
नई परिभाषा: संपूर्णता, न कि सम्पूर्णता
अब्सी कहती हैं, “मेरी मां ने मुझे सहमति, संवाद, और सहानुभूति सिखाई — ये अमूल्य हैं। लेकिन अब मैं ना कहना, आराम करना, और सबको खुश न करने की कला सीख रही हूं। मैं चाहती हूं कि मेरी बेटी जाने कि ताकत चुप्पी में नहीं, सीमाओं में है।”
और बेटे?
हम जब महिलाओं की विरासत की बात करते हैं तो पुरुषों को भी शामिल करना जरूरी है। बेटों ने भी अपनी मां को सब कुछ सहते हुए देखा और मान लिया कि यही नॉर्मल है।
फिल्म आकाश वाणी का एक सीन इस सच्चाई को बहुत अच्छे से दिखाता है — जब पति यह कहता है कि "हमने कभी अपनी मां को नहीं कहते सुना कि वो 'डाउन' हैं, इसलिए हमें खुद खाना लेना पड़े।” यही सोच बदलने की जरूरत है।
एक नई उम्मीद
शायद एक दिन हमारे बच्चे कहें —
“मैं अपनी मां पर गया हूं और मुझे इस पर गर्व है। इसलिए नहीं कि उन्होंने सब कुछ कर दिखाया, बल्कि इसलिए कि उन्होंने वो चुना जो सच में ज़रूरी था और खुद को भी चुना।”