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punjabkesari.in Friday, Jan 10, 2025 - 12:36 PM (IST)

नेशनल डेस्क: प्रयागराज में महाकुंभ 2025 की तैयारियां पूरी तरह से जोरों पर हैं। उत्तर प्रदेश का पवित्र नगर प्रयागराज एक बार फिर से महाकुंभ के आयोजन के लिए तैयार हो रहा है। इस बार अनुमान है कि महाकुंभ में 40 करोड़ से अधिक श्रद्धालु स्नान करने के लिए पहुंचेंगे। पौष पूर्णिमा से इस महाकुंभ का उद्घाटन होगा, और श्रद्धालु इस अवसर पर संगम में डुबकी लगाएंगे। यह परंपरा और आयोजन हिन्दू धर्म के सबसे पवित्र अवसरों में से एक माना जाता है, लेकिन इसके पीछे छिपी एक दिलचस्प और रहस्यमयी कहानी है, जो कम ही लोग जानते हैं।

अमृत की खोज का परिणाम
महाकुंभ का आयोजन अमृत प्राप्ति के प्रयास के रूप में जाना जाता है, लेकिन इसके पीछे की पूरी कथा बहुत ही दिलचस्प और अद्भुत है। यह आयोजन एक श्राप के कारण हुआ था, जो देवताओं पर पड़ा था। आज हम जो महाकुंभ के पवित्र स्नान में भाग लेते हैं, वह दरअसल एक प्राचीन श्राप का परिणाम है। श्राप जो देवताओं को मिला था, जिसने पूरी मानवता को संकट में डाल दिया था। लेकिन समय के साथ वही श्राप मानवता के लिए वरदान बन गया। यह कथा स्कंदपुराण में विस्तार से वर्णित है।

स्वर्ग में सुख और शांति का आलम
स्कंदपुराण में वर्णित है कि स्वर्ग की राजधानी अमरावती पूरी तरह से सुखमय थी। देवताओं ने कई वर्षों तक दैत्यों से युद्ध किया था और अब उनके पास किसी भी प्रकार का शत्रु नहीं था। वे शांति और सुख में डूबे हुए थे। स्वर्ग में हर ओर खुशियाँ ही खुशियाँ थीं। देवताओं के जीवन में हर दिशा में आनंद का वातावरण था। गंधर्व अपनी तानों के गीत सुनने के बजाय स्वर्ग के संगीत में खो जाते थे। यह सब देख देवता अपनी जिम्मेदारियों से दूर हो गए थे और सिर्फ आनंद व प्रमोद में डूबे रहते थे। खासकर इंद्रदेव, जो स्वर्ग के अधिपति थे, अपने ऐश्वर्य में खो गए थे। 

देवराज इंद्र का अभिमान और ऋषि दुर्वासा का आगमन
इंद्रदेव को अपनी विजय और ऐश्वर्य का इतना अभिमान हो गया था कि वे अपनी जिम्मेदारियों को भूल गए थे। देवगुरु बृहस्पति को इस स्थिति की चिंता थी, लेकिन उन्होंने इंद्रदेव को यह सलाह नहीं दी। तभी ऋषि दुर्वासा ने देवताओं के सामने इंद्र को चेतावनी देने का निश्चय किया। ऋषि दुर्वासा, जो अपनी क्रोधी स्वभाव के लिए प्रसिद्ध थे, देवों को समझाने के लिए देवलोक की ओर बढ़े। मार्ग में उनकी मुलाकात देवर्षि नारद से हुई। नारद मुनि के पास एक अद्भुत बैजयंती माला थी, जिसकी खुशबू तीनों लोकों में फैल जाती थी और जो पहनने वाले को सम्मोहित कर देती थी। नारद ने वह माला ऋषि दुर्वासा को भेंट की। 

ऋषि दुर्वासा का अपमान
ऋषि दुर्वासा ने सोचा कि अगर इंद्रदेव उनकी बात नहीं मानते तो इस दिव्य माला को भेंट देकर उन्हें अपनी बात सुनने के लिए मजबूर कर सकते हैं। ऋषि दुर्वासा स्वर्ग पहुंचे, लेकिन उन्हें इंद्रदेव का अभिमान और अहंकार स्पष्ट रूप से महसूस हुआ। जब वह सभा में पहुंचे तो इंद्रदेव ने औपचारिकता के तौर पर उन्हें प्रणाम किया, लेकिन माला का स्वागत नहीं किया। फिर, इंद्रदेव ने उस माला को अपमानित करते हुए ऐरावत हाथी के गले में डाल दी, और ऐरावत ने उसे अपने पैरों तले रौंद डाला। यह देखकर ऋषि दुर्वासा को बहुत गुस्सा आया और उन्होंने देवताओं को श्राप दिया। 

श्राप का प्रभाव और देवताओं का पतन
ऋषि दुर्वासा ने गुस्से में आकर कहा, "तुमने जिस विजय और ऐश्वर्य का अहंकार किया है, वह सब तुमसे छिन जाएगा। तुम्हारी यह लक्ष्मी भी तुमसे चली जाएगी।" महर्षि दुर्वासा के श्राप से इंद्रदेव का सारा ऐश्वर्य खत्म हो गया और देवी लक्ष्मी संसार से गायब हो गईं। उनके बिना, स्वर्ग में दरिद्रता छा गई और तीनों लोकों में अराजकता और गरीबी फैल गई। इससे असुरों को देवताओं पर आक्रमण करने का मौका मिला और वे युद्ध में पराजित हो गए। 

समुद्र मंथन: अमृत की प्राप्ति
अब देवता निराश हो गए थे और वे भगवान विष्णु के पास पहुंचे। भगवान विष्णु ने उन्हें समुद्र मंथन करने का उपाय बताया, जिससे अमृत प्राप्त हो सकता था। देवताओं ने समुद्र मंथन शुरू किया और इस मंथन से अमृत प्राप्त हुआ। इस अमृत की छीनाझपटी के दौरान वह चार स्थानों पर गिरा – प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन, और नासिक। इन स्थानों पर अमृत के गिरने के कारण वहां कुंभ मेले का आयोजन किया जाता है, और यही कारण है कि प्रयागराज में महाकुंभ का आयोजन होता है। 

क्या है महाकुंभ का महत्व और संदेश
महाकुंभ के आयोजन का प्रमुख उद्देश्य मानवता को पुण्य की प्राप्ति कराना और धार्मिक, नैतिक शिक्षा देना है। यह आयोजन हमें यह सिखाता है कि अपने कर्तव्यों को न भूलें और कभी भी अभिमान में न आएं, क्योंकि समय बदलने में देर नहीं लगती। महाकुंभ का आयोजन महज एक धार्मिक कृत्य नहीं, बल्कि यह एक सांस्कृतिक और ऐतिहासिक धरोहर है, जो भारतीय संस्कृति और सभ्यता की गहरी समझ प्रदान करता है। महाकुंभ का आयोजन एक श्राप के कारण हुआ था, लेकिन यह श्राप अंततः मानवता के लिए एक वरदान बन गया। महाकुंभ में स्नान करने से न केवल पुण्य की प्राप्ति होती है, बल्कि यह हमें धर्म, नीति, और नैतिकता का महत्व भी सिखाता है। 


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Content Editor

Mahima

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