महाभियोग मामला : हर किसी को गलत या ठीक करार देना ही होगा
punjabkesari.in Sunday, Apr 29, 2018 - 02:06 AM (IST)
नेशनल डेस्कः महाभियोग विवाद के पचड़े में उलझने का इरादा नहीं रखता हूं इसलिए मैं उस मुद्दे पर फोकस करूंगा जो सुप्रीम कोर्ट के 4 वरिष्ठतम जजों द्वारा उठाया गया सम्भवत: सबसे दमदार तार्किक मुद्दा है। यह मुद्दा जनवरी में सार्वजनिक किए गए उनके पत्र के इस वाक्य में समाहित है: ‘‘ऐसे उदाहरण मौजूद हैं जहां पूरे देश और सुप्रीम कोर्ट जैसे संस्थान के लिए बहुत दूरगामी परिणाम रखने वाले मामले मुख्य न्यायाधीशों द्वारा अपनी पसंद से चुनी हुई पीठों को आबंटित किए जाते रहे हैं जबकि ऐसे आबंटन का कोई तार्किक आधार नहीं था।’’
जस्टिस चेलमेश्वर ने जयललिता मामले का दिया हवाला
सर्वप्रथम यह संज्ञान लेना बहुत महत्वपूर्ण है कि ये चारों जज साहिबान केवल वर्तमान मुख्य न्यायाधीश की ही नहीं बल्कि व्यापक रूप में कई न्यायाधीशों के बारे में बात कर रहे हैं। इसका तात्पर्य यह है कि यह समस्या नई नहीं है। बेशक जनवरी में जस्टिस कुरियन ने लोया मामले का उल्लेख किया था और जस्टिस चेलामेश्वर ने भी इस माह के प्रारम्भ में एक साक्षात्कार में जयललिता मामले का हवाला दिया था। इस पीठ का गठन पूर्व मुख्य न्यायाधीश केहर द्वारा किया गया था। इसलिए आरोप की उंगली केवल दीपक मिश्रा पर ही नहीं बल्कि कई न्यायाधीशों की ओर इशारा करती है।
अब देखना यह है कि इस आरोप के क्या अर्थ हो सकते हैं? जब मुख्य न्यायाधीश अपनी पसंद की पीठों को बिना किसी तार्किक आधार के इस प्रकार के मामले चुङ्क्षनदा आधार पर सौंपते हैं तो क्या इसका यह अर्थ नहीं निकलता कि वे मामलों का आबंटन इस तरीके से कर रहे हैं कि उनके मनपसंद फैसले सुनिश्चित हो सकें। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि वे ऐसे मामले उन पीठों को सौंपते हैं जिनके बारे में उनका यह मानना है कि वे उनकी पसंद का फैसला सुनाएंगी। यह मुद्दा काफी हद तक स्पष्ट है।
सवाल यह पैदा होता है कि ऐसा किसको लाभान्वित करने के लिए किया जा रहा है? यही माना जा सकता है कि ऐसा कार्यकारिणी यानी कि सरकार के लिए किया जा रहा है। तो क्या यह माना जाए कि इन मुख्य न्यायाधीशों का अपने समय की कार्यकारिणी सत्ता के साथ रिश्ता अनुचित अथवा अशोभनीय था? क्या वे सम्भवत: इसके चहेते थे? हम इस बारे में निश्चय से कुछ नहीं जानते लेकिन ऐसा निष्कर्ष अटल रूप में टाला नहीं जा सकता और न ही इससे उठने वाले सवाल टाले जा सकते हैं।
कई जजों की ईमानदारी पर भी हो सकती है आशंकाएं
तार्किक रूप में इसमें से यह परिणाम निकलता है कि इनमें से प्रत्येक मामले में न्याय के तकाजों को आहत किया गया है। या तो सीधे-सीधे न्याय से इंकार किया गया है कि इसे विद्रूपित किया गया है। यानी कि वास्तविक न्याय देने की बजाय इसे बहुत लम्बे- चौड़े शब्दजाल में उलझा दिया गया है। इस बात को झुठलाया नहीं जा सकता। लेकिन उपरोक्त वाक्य से निकलने वाले अर्थ बहुत दूर तक जाते हैं क्योंकि सवाल केवल कई सारे मुख्य न्यायाधीशों की ईमानदारी का ही नहीं बल्कि अन्य जजों की ईमानदारी पर भी आंशकाएं पैदा होने का है जिन जजों को इन पसंदीदा पीठों के लिए चुना गया था। जब चार वरिष्ठतम जजों द्वारा एक गम्भीर आरोप लगाया जाता है तो इसे अधर में लटकता हुआ नहीं छोड़ा जा सकता। इसे तार्किक नतीजे तक पहुंचाना ही होगा। हर किसी को गलत या ठीक सिद्ध करने की जरूरत है।
मुझे तो यह डर है कि महाभियोग विवाद ने इन मुद्दों से ध्यान भटका दिया है कि इस अहम पड़ाव पर हर गम्भीर आरोप को सत्यापित करने या इसे रद्द करने की बहुत कड़ी जरूरत है। हर किसी को गलत या ठीक करार देना ही होगा। यदि अब इसको विस्मृत कर दिया जाता है तो या फिर इतिहास के अंधेरों में धकेल दिया जाता है तो इससे सुप्रीम कोर्ट तथा भारतीय न्याय प्रणाली की गरिमा बहुत बुरी तरह आहत होगी। इस आरोप के बाद या तो बहुत मेहनत से उन्हें गलत सिद्ध करना होगा या फिर उन गड़बडिय़ों को सुधारना होगा जो इन्हें इंगित करती हैं। ये दाग केवल या तो पूरी राजनीति को साफ करके धोए जा सकते हैं या फिर उन गड़बडिय़ों को सुधारना होगा जिनकी ओर ये संकेत करती हैं। यदि दोनों में से कोई कदम नहीं उठाया जाता तो सुप्रीम कोर्ट स्वयं शंकाओं में घिर जाएगी। - करण थापर