गुजरात में मोदी-शाह बिना गुजारा नहीं

Friday, Aug 18, 2017 - 09:22 AM (IST)

नर्इ दिल्लीः गुजरात में विधानसभा चुनाव को लेकर चुनाव आयोग पिछले हफ्ते से सक्रिय हो गया है। आयोग ने गुजरात सरकार को एक पत्र लिखकर पिछले 3 सालों से एक ही स्थान पर तैनात अफसरों का ब्यौरा मांगा है।

सितम्बर में हो सकती है चुनाव की तिथियां घोषित
दरअसल आयोग निष्पक्ष चुनाव के लिए चुनाव की घोषणा से पूर्व ऐसे अफसरों का तबादला करना चाहता है। 2012 में गुजरात में 17 दिसम्बर को चुनाव हुए थे और 20 दिसम्बर को इन चुनावों के नतीजे आए थे। इस लिहाज से आयोग अब सितम्बर में किसी भी वक्त गुजरात में चुनाव की तिथियों की घोषणा कर सकता है। 8 अगस्त को गुजरात में हुए राज्यसभा के चुनाव के दौरान अहमद पटेल के निर्वाचन को लेकर पैदा हुई स्थिति के बाद कांग्रेस को राज्य में मनोवैज्ञानिक बढ़त मिली है। लिहाजा आने वाले विधानसभा चुनाव अब और ज्यादा दिलचस्प हो गए हैं। आइए गुजरात के मौजूदा सियासी हालातों का विश्लेषण करके यह जानने की कोशिश करते हैं कि आगामी विधानसभा चुनाव के दौरान गुजरात में क्या सियासी परिदृश्य रह सकता है।


मोदी का विकल्प नहीं
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के गुजरात का सी.एम. रहते हुए गुजरात की जनता ने उन्हें लगातार 3 बार कुर्सी तक पहुंचाया लेकिन 2012 के चुनाव के बाद नरेन्द्र मोदी द्वारा मुख्यमंत्री की गद्दी छोडऩे के बाद गुजरात को मोदी का विकल्प नहीं मिल सका है। हालांकि प्रधानमंत्री ने आनंदी बेन पर भरोसा कर उन्हें राज्य की कमान सौंपी लेकिन आनंदी बेन प्रधानमंत्री द्वारा गुजरात में तैयार की गई सियासी जमीन को कायम रखने में नाकाम रहीं और प्रधानमंत्री को उन्हें गद्दी से हटाकर विजय रूपाणी को गद्दी सौंपनी पड़ी लेकिन मुख्यमंत्री के तौर पर रूपाणी भी ज्यादा सफल नहीं माने जा रहे। भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह की गुजरात के बूथ स्तर पर मजबूत पकड़ है लेकिन शाह के पास पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष पद होने के चलते उनका फोकस गुजरात में कम रहा है। लिहाजा हाल ही में हुए राज्यसभा चुनाव के अलावा इससे पहले पैदा हुई सियासी स्थितियों को भी भाजपा का स्थानीय नेतृत्व संभाल नहीं सका और राज्य में पटेल आंदोलन उग्र हुआ तथा हार्द्धिक पटेल जैसे चेहरे को उभरने का मौका मिला। हाल ही में जी.एस.टी. को लेकर सूरत के व्यापारियों का आंदोलन भी भाजपा के खिलाफ गुस्से का इजहार करने के लिए काफी है। 



बड़े शहरों में मजबूत हुई कांग्रेस
6 शहरों के नगर निगम चुनावों के दौरान पार्टी को सीटों के लिहाज से ज्यादा सफलता नहीं मिली लेकिन अहमदाबाद, सूरत, वड़ोदरा, जामनगर, राजकोट व भावनगर में 2014 के मुकाबले जबरदस्त प्रदर्शन किया और इन शहरों में पार्टी का वोट शेयर 26 प्रतिशत तक भी बढ़ा। लोकसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस इन 6 शहरों में बुरी तरह से पिट गई थी और कई जगह पर पार्टी 12 फीसदी वोट शेयर तक सिमट गई थी लेकिन 2015 के नगर निगम चुनाव आते-आते पार्टी ने इन शहरी इलाकों में भी जबरदस्त प्रदर्शन किया। 

गांवों में कांग्रेस मजबूत, कस्बों में भाजपा
2014 के लोकसभा चुनाव दौरान भारतीय जनता पार्टी को गुजरात में 60.11 प्रतिशत वोट मिले थे और भाजपा ने राज्य की सारी 26 लोकसभा सीटों पर कब्जा कर लिया था। कांग्रेस ने इस दौरान 33.45 प्रतिशत वोट हासिल किए लेकिन उसे एक भी सीट हासिल नहीं हो सकी। यह भाजपा का अब तक का गुजरात में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन रहा है। इससे पहले भाजपा ने कभी इस तरीके से गुजरात में भगवा परचम नहीं फहराया था लेकिन इस प्रदर्शन के एक साल के भीतर ही पार्टी स्थानीय निकाय चुनावों में 2014 के प्रदर्शन को दोहरा नहीं सकी और पार्टी का वोट शेयर कांग्रेस के मुकाबले 6 फीसदी तक गिर गया। पार्टी को 2015 में स्थानीय निकाय चुनावों में 46.60 प्रतिशत वोट मिले जोकि लोकसभा के मुकाबले करीब 14 प्रतिशत कम हैं जबकि कांग्रेस को इस दौरान 43.52 प्रतिशत वोट मिले और कांग्रेस को लोकसभा के मुकाबले करीब 10 फीसदी वोटों का फायदा हुआ। कांग्रेस ने इस दौरान नगरपालिकाओं में 39.59, तालुका पंचायतों में 46.01, जिला पंचायतों में 47.86 व नगर निगमों में 41.12 फीसदी वोट हासिल किए। कांग्रेस इस दौरान तालुका पंचायतों व जिला पंचायतों में भाजपा के मुकाबले आगे रही। यानी गुजरात के ग्रामीण वोटरों पर कांग्रेस की पकड़ बनी हुई है।  

भाजपा-कांग्रेस में सीधा मुकाबला
2012 के विधानसभा चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को पार्टी के भीतर से ही केशु भाई पटेल के रूप में चुनौती मिली थी और उन्होंने अपनी गुजरात परिवर्तन पार्टी बना ली थी, हालांकि यह पार्टी सिर्फ 2 सीटों पर ही चुनाव जीत सकी थी। लेकिन 2018 के विधानसभा चुनाव में सीधा मुकाबला कांग्रेस के साथ होने की संभावना है क्योंकि आम आदमी पार्टी अब राज्य की तरफ मुंह नहीं कर रही और गुजरात में भाजपा को कुछ स्थानों पर टक्कर देने वाला जनता दल (यू) एन.डी.ए. में शामिल हो गया है जबकि बसपा पूरे देश में अस्तित्व के संकट से जूझ रही है। माना जा रहा है कि अगर भारतीय जनता पार्टी का विरोधी वोट शेयर गुजरात में एकजुट हुआ तो पार्टी को अपने ही गढ़ में जमीन बचाने के लिए पसीना बहाना पड़ सकता है। 


 

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