पाकिस्तान को मिला लालच का फल

Friday, May 13, 2016 - 02:59 PM (IST)

लालच करने का फल आखिर पाकिस्तान को मिल ही गया। वह अमरीका और चीन से सहायता लेकर अपने दोनों हाथों में लड्डू की कहावत को चरितार्थ करना चाहता था। उसकी यह चाल ज्यादा दिन नहीं चली। अमरीका उसकी नीयत को भांप गया और एफ-16 विमानों को देने से पहले उसने एक शर्त रख दी। इससे तिलमिलाकर पाकिस्तान आतंकी संगठनों पर कार्रवाई के लिए सबूत होने से इंकार करने लगा है। उसकी नजदीकी चीन के प्रति बढ़ती जा रही है, जिस पर अमरीका की पूरी नजर है।

पाकिस्तान के विदेशी मामलों के सलाहकार सरताज अजीज मानते हैं कि अब अमरीका और पाकिस्तान के मैत्री संंबंध पहले जैसे नहीं रहे हैं। एफ-16 विमानों के सौदे में अमरीका ने ऐसी शर्त रख दी जिससे दोनों देशों मे तनाव उत्पन्न हो गया। वर्ष 2011 में विकीलीक्स,एबटाबाद में ओसामा बिन लादेन को मार गिराने जैसी कुछ घटनाओं के   बाद दोनों देशों में कुछ खटास देखी जाने लगी। अब अमरीका ने एफ-16 विमानों पर पाकिस्तान को जो सब्सिडी मिलती थी उसे रोक दिया। अजीज संबंधों के बिगड़ने के लिए अमरीका को ही दोषी ठहराते हैं। उनका मानना है कि पाकिस्तान अमरीका के परमाणु स्टैंड को नहीं स्वीकार करता है। डा.शकील अफरीदी को रिहा करने की मांग को भी अमरीका ने मानने से इंकार कर दिया है। उसे एतराज है कि आतंकी संगठन हक्कनी नेटवर्क के खिलाफ पाकिस्तान कार्रवाई नहीं कर रहा है। अजीज के मुताबिक पठानकोट हमले से भी उनके संबंधों पर असर पड़ा है।

यह सौदा खटाई में क्यों पड़ा ? अमरीका के कुछ सांसदों ने इस दावे खारिज कर दिया कि पाकिस्तान एफ-16 विमानों का इस्तेमाल आतंकवादियों के खिलाफ करेगा। उन्होंने आशंका जताई कि वह इनका भारत के खिलाफ इस्तेमाल कर सकता है। वरिष्ठ अमरीकी सांसदों ने पाकिस्तान को आठ एफ-16 विमानों के सौदे में यह कह कर अमरीकी कोष से सहायता राशि देने से इंकार कर दिया, जब तक कि वह कुछ ''विशेष कार्रवाई'' नहीं करता। यह अस्पष्ट रहा कि ''विशेष कार्रवाई'' क्या है ? लेकिन इशारा हक्कानी नेटवर्क के खिलाफ कार्रवाई की ओर ही था। अमरीका की सहायता के बिना पाकिस्तान को इन विमानों की खरीद के लिए 70 करोड़ डॉलर देने पड़ते। इससे पहले वह 27 करोड़ डॉलर खर्च करता। ऐसे में उसकी खीज को समझा जा सकता है।

जब से आतंकवाद-विरोध युद्ध आरंभ हुआ है, पाकिस्तान को अमरीका ने 1820 अरब रुपए की मदद दी है। पाकिस्तान पर आरोप लगता रहा है कि उस ने ज्यादातर मदद का इस्तेमाल भारत के खिलाफ अपनी ताकत बढ़ाने में और सरकारी खर्चे निकालने में किया। उदाहरण के लिए, वर्ष 2014 में अमेरिका से मिले पचास करोड़ रुपए पाक सरकार ने बिलों का भुगतान करने और विदेशी मेहमानों को तोहफे देने में खर्च कर दिए। जाहिर है कि अमरीका की नाराजगी बढ़नी ही थी। 

भारत-अमरीका में नजदीकी बढ़ने से पाकिस्तान की मजबूरी का फायदा उठाते हुए चीन ने उस पर आर्थिक और सैन्य मदद की बौछार की है। आर्थिक संकट से जूझ रहा चीन अमरीका को पछाड़ कर दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनना चाहता है। इसके लिए उसे ऊर्जा और तेल के भंडार की जरूरत है। दुनिया का सबसे बड़ा तेल भंडार मध्य एशिया के अरब देशों के पास है। वहां पहुंचने के लिए चीन को हिंद महासागर से पहुंचना पड़ता था, जहां भारतीय नौसेना का दबदबा है। ग्वादर बंदरगाह के समझौते ने भारतीय नौसेना के खतरे को दूर कर दिया। इस बंदरगाह के रास्ते से बनने वाले आर्थिक कॉरीडोर ने चीन के लिए ऊर्जा प्राप्त करने का छोटा रास्ता भी खोल गया।

अपने फायदे के लिए चीन पाकिस्तान को करीब 50 अरब डॉलर की मदद दे रहा है। इस कॉरिडोर से तेल-और जरूरी चीजों की सप्लाई चीन के ताशकुरगन हवाई अड्डे के जरिए पहुंचेगी, यूरोप को चीन का निर्यात भी तेज होगा। ग्वादर से पीओके होते हुए चीन तक पहुंचने वाले इकॉनॉमिक कॉरिडोर का सबसे बड़ा खतरा यह है कि इसके जरिए चीन को भारत के खिलाफ अरब महासागर में पैर जमाने का मौका मिल जाएगा। अब वह पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में दिल खोलकर खर्च कर रहा है। आतंक पर पाकिस्तान के रवैये को पूरी दुनिया जानती है। भारत ने उसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर घेरने में कोई कमी नहीं छोड़ी है। अमरीका भी उस पर दबाव बना रहा है। ऐसे में अपनी जान बचाने के लिए पाकिस्तान ने खुद को चीन के हवाले कर दिया। भारत से मुकाबला करने के लिए चीन भी उसका फायदा उठाएगा। मध्य एशिया में चीन को रोकने के लिए भारत और अमरीका आपसी सैन्य सहयोग के लिए तैयार हो गए हैं।

 
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