कम्युनिस्टों की ‘एकता’ सबसे महत्वपूर्ण जरूरत

Wednesday, Apr 25, 2018 - 02:25 AM (IST)

नेशनल डेस्कः माकपा यानी सी.पी.आई.(एम.) की हैदराबाद में हुई 22वीं कांग्रेस (राष्ट्रीय कांफ्रैंस) में कामरेड सीताराम येचुरी को दूसरी बार पार्टी महासचिव चुन लिया गया है। पार्टी कांग्रेस से पहले पोलित ब्यूरो तथा केन्द्रीय समिति में 2019 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी के साथ राजनीतिक गठजोड़ करके भाजपा को हराने की रणनीतिक रेखा समॢथत येचुरी धड़ा अल्पमत में था। मगर राजनीतिक पक्ष से इन्होंने अपनी राजनीतिक रेखा को मंजूर करवा लिया।

पहला राजनीतिक मसौदा, जो कांग्रेस पार्टी के साथ इस राजनीतिक गठजोड़ पर ‘आपसी समझदारी’ बनाने से रोकता था, अब पास हुए राजनीतिक प्रस्ताव के अनुसार चाहे कांग्रेस पार्टी के साथ किसी गठजोड़ से मनाही है, मगर भाजपा को पराजित करने के लिए ‘सांझा समझदारी’ बनाने की इजाजत है। येचुरी ने तो इस राजनीतिक रेखा को विभिन्न प्रांतों में स्थानीय स्थितियों के अनुसार सूबाई समितियों को निर्णय लेने के अधिकार देने की वकालत भी कर दी है।

कम्युनिस्ट शब्दावली में कई बार सुविधा अनुसार अपने आपको जन समूहों के भ्रम में रखने के लिए अक्सर कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा ‘राजनीतिक गठजोड़’, ‘सांझा मोर्चा’, ‘सांझा समझदारी’, ‘लेने-देने’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल एक-दूसरे के समानांतर अथवा विपरीत दोनों ही अर्थों के लिए किया जाता है मगर इसको राजनीतिक सांझेदारी ही कहा जाना चाहिए। यही अवस्था माकपा की मौजूदा राजनीतिक समझदारी बारे कही जा सकती है। दोनों धड़े (सीताराम येचुरी तथा प्रकाश कारत) अपनी-अपनी जीत के दावे कर सकते हैं। कम्युनिस्ट लहर का पिछला इतिहास भी दो विरोधी राजनीतिक रेखाओं के बीच ‘मौकापरस्त सहमति’ से भरा पड़ा है।

यह सरकार देश की बहुसंख्यक हिन्दू जनता के हितों के लिए है हानिकारक
बिना किसी रखरखाव के यह एक हकीकत है कि भाजपा सरकार का जारी रहना देश की लोकतांत्रिक कदरो-कीमतों तथा धर्मनिरपेक्ष सामाजिक ताने-बाने के लिए बड़ा खतरा है। देश की बहुलतावादी तथा सहनशीलता वाली सामाजिक तथा राजनीतिक बनावट को संघ विचारधारा तबाह कर देगी, जिस पर मोदी सरकार चल रही है। यह सरकार धार्मिक अल्पसंख्यकों, दलितों तथा अन्य पिछड़ी श्रेणियों, औरतों तथा विकासशील लोकतांत्रिक शक्तियों के लिए ही विनाशकारी नहीं है बल्कि देश की बहुसंख्यक हिन्दू जनता के हितों के लिए भी अत्यंत हानिकारक है, जिनकी आपसी मिलनसारिता तथा सद्भावना के साथ जीने की सदियों पुरानी परम्परा है।

2019 में होने वाले लोकसभा चुनावों में भाजपा को किसी भी कीमत पर मात दी जानी चाहिए। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए कम्युनिस्ट तथा अन्य वामपंथी तथा लोकतांत्रिक धड़ों को अग्रणी भूमिका निभानी पड़ेगी। यह कार्य कैसे किया जाना है, इसे लेकर मतभेद अवश्य हैं।

कांग्रेस पार्टी मोदी सरकार द्वारा लागू की जा रही नव-उदारवादी आॢथक नीतियों से जरा-सा भी अलग नहीं कर रही, सारा जोर इन्हीं नीतियों को शुरू करने की दावेदारी स्थापित करने में लगा हुआ है। कांग्रेस के शासनकाल वाले राज्यों में वही आॢथक नीतियां लागू की जा रही हैं, जो भाजपा वाले राज्यों में हैं। आने वाले लोकसभा चुनावों में भाजपा की संभावित पराजय के पश्चात अस्तित्व में आने के लिए गैर भाजपा सरकार आॢथक नीतियों के पक्ष से मौजूदा मोदी सरकार से अलग बिल्कुल नहीं हो सकती।

यदि भविष्य की इस संभावित सरकार से किसी लोक पक्षीय कदम की आशा की भी जाए तो ऐसा देश में वामपंथी लहर की मजबूती पर ही निर्भर होगा। बदकिस्मती की बात यह है कि कम्युनिस्ट एकता तथा संघर्ष की नई संभावनाएं खोजने की बजाय माकपा की 22वीं पार्टी कांग्रेस में सारा जोर कांग्रेस पार्टी के साथ ‘गठजोड़ करें कि न’ पर ही केन्द्रित किया दिखाई देता है।

कम्युनिस्ट लहर की मजबूती के बिना भाजपा की हार संभव भी नहीं है। यदि जवाब ‘हां’ में भी है (यानी संभव है) तो भी सामाजिक परिवर्तन तथा स्वच्छ राजनीति की झंडाबरदार कम्युनिस्ट लहर अगर जनाधार बढ़ाकर ताकतवर नहीं होती तो यह इतिहास की किताब का एक पन्ना मात्र बन जाएगी। दूसरे विश्वयुद्ध में हिटलरशाही  का खात्मा करने के पीछे भी मुख्य शक्ति समाजवादी सोवियत यूनियन की सैनिक ताकत तथा सोवियत जनसमूहों की स्व-न्यौछावर वाली भूमिका रही है।

हर लोकतांत्रिक सोच वाला व्यक्ति तथा राजनीतिक संगठन 2019 में होने वाले लोकसभा चुनावों में भाजपा तथा इसके सहयोगियों को करारी हार देने के लिए तत्पर है। क्या ऐसा संभव है, यह तब तक देश में होने वाली राजनीतिक सरगर्मियों तथा राजनीतिक शक्तियों के माध्यम से होने वाले परिवर्तन तय करेंगे। मगर यह निश्चित है कि कम्युनिस्ट लहर के एक मजबूत राजनीतिक धड़े के तौर पर उभरे बिना भाजपा की इस हार में विकासशील तथा सामाजिक परिवर्तन का रंग नहीं भरा जा सकेगा।

राजनीतिक तथा विचारात्मक संघर्ष शुरू करने की भी है बहुत जरूरत
यह उद्देश्य कम्युनिस्टों की आपसी एकता तथा संघर्ष से ही प्राप्त किया जा सकता है। यह उद्देश्य विभिन्न हिस्सों के वर्गों को एकजुट किए बिना प्राप्त नहीं होगा। आॢथक संघर्षों की ही तरह राजनीतिक तथा विचारात्मक संघर्ष शुरू करने की भी बहुत जरूरत है जो जनसमूहों में साम्प्रदायिक फासीवाद तथा साम्राज्य निर्देशित नव-उदारवादी आॢथक नीतियों के विरुद्ध चेतना का संचार करे। कम्युनिस्टों के लिए यह कार्य किए बिना और अपनी ताकत बढ़ाए बगैर भाजपा को हराने के लिए कांग्रेस पार्टी के साथ समझौता करने अथवा न करने की रट लगाना ‘घोड़े के आगे टांगा जोडऩे’ जैसी बात होगी, जबकि जरूरत ‘टांगे के आगे घोड़ा लगाने’ की है। - मंगत राम पासला

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