खस्ताहाल कैसे हो गए चीन और रूस

Saturday, Jul 09, 2016 - 08:03 AM (IST)

अंतर्राष्ट्रीय बाजार की स्थिति का आंकलन किया जाए तो चीन और रूस की आर्थिक स्थिति की हालत काफी दयनीय है। ये अमरीका को चुनौती देते रहें, लेकिन इनकी अपनी कमर टूटने के कागार पर है। अमरीका के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए हालांकि दोनों ने हाथ तो मिलाए हैं, इनमें व्यावसायिक समझौते भी हुए हैं, लेकिन आने वाला समय ही बता सकता है कि ये कितनी तेजी से उबर पाते हैं। अमरीका कह चुका हे कि रूस अब महाशक्ति नहीं रहा है। मास्को की स्थिति अब पहले वाली नहीं है। उसका प्रभाव सोवियत यूनियन की तुलना में काफी कम हो गया है। रूस दुनिया की 15वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था मानी जाती है, लेकिन हालत यह हो गई है कि इसे स्पेन से पीछे भी माना जा रहा है। अब रूस को यह आभास होने लगा है कि वह चीन से भी जूनियर है।

उसे इसका अहसास तब हुआ जब पिछले महीने राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन चीन के दौरे पर गए थे। उन्हें लगा कि चीन उनसे आगे निकल गया है। रूस में तेल की कीमतों में भारी गिरावट आ गई है। पश्चिमी देशों की पाबंदी के कारण वहां की अर्थव्यव्स्था को गहरी चोट पहुंची है। दो सालों में उसकी मुद्रा रूबल में भी भारी गिरावट दर्ज की गई है। पिछले साल रूस की जीडीपी में 3.4 प्रतिशत कमी पाई गई। इस बार इसमें सुधार होने की उम्मीद नहीं है। रूस को लगता है कि उसे चीनी निवेश की सख्त जरुरत है। इसलिए पुतिन और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने करीब 30 व्यावसायिक समझौतों पर हस्ताक्षर किए गए।

आज पूरी दुनिया चीन पर नजरें जमाए हुए है। वहां की अर्थव्यवस्था की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है। उसमें भारी उथल पुथल के संकेत दिखाई देने लगे हैं। विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश चीन की विकास दर पिछले 3 दशक में दो अंकों से नीचे नहीं गयी थी, लेकिन पिछले 5 साल में उन दो अंको में न्यूनतम वृद्धि हुई है। यह पूरे विश्व के लिए चिंता का विषय है। 

विश्व की अर्थव्यवस्था में चीन की 15 प्रतिशत की भागीदारी है। नेशनल ब्यूरो ऑफ स्टैटिस्टिक्स के अनुसार लगातार पुराने आंकड़ों को देख कर इसका अनुमान लगाया जा सकता है कि आगे क्या होने वाला है! पिछले सितंबर में उत्पादन दर 51.1 दर्ज की गई थी। वहीं 23 अक्टूबर को ब्रिटेन के बैंक एचएसबीसी की रिपोर्ट के अनुसार यह 50.4 था। 

वर्ष 2008-09 के वैश्विक वित्तीय संकट के बाद ऐसा पहली बार हुआ है जिसमें चीन ने सबसे धीमी वृद्धि दर्ज की है! एक समय था जब वह पूरी तरह से निर्यात पर आधारित हुआ करता था, लेकिन धीरे-धीरे उसकी फैक्टरियां घरेलू बाजार के लिए माल मुहैया कराने पर ध्यान केंद्रित करने लगीं। वहां के कारखाने अब उतने पैमाने पर उत्पादन करने में कामयाब नहीं हो पा रहे। तांबा, इस्पात, लौह अयस्क, कच्चे तेल जैसी वस्तुओं के चीनी आयात में भारी गिरावट दर्ज की जाने लगी है।

आईएमएफ का वार्षिक बैठक में चीन की घटती अर्थव्यवस्था को लेकर विश्व के केंद्रीय बैंकों के गवर्नर से लेकर वित्त मंत्रियों तक सभी इसे गंभीर समस्या मान चुके हैं। इसमें वैश्विक अर्थव्यवस्था की वृद्धि को भी झटका लग सकता है। इस चरमराई अर्थव्यवस्था की वजह से चीन ने अपने वर्षों से चले आ रहे आर्थिक ढांचे को भी बदल दिया, पर हालात में कुछ ख़ास परिवर्तन नहीं आ सका। इस आर्थिक मॉडल से पहले विनिर्माण, निवेश और निर्यात ही चीन का बिज़नेस मॉडल था, लेकिन अब घरेलू खपत, सेवा और इनोवेशन के तौर पर यह व्यवस्था कहीं ज्यादा आधारित है।

चीन की अर्थव्यवस्था में आया वर्तमान संकट अन्य देशों के लिए एक सबक है। घटिया सामानों का उत्पादन और उसके आधार पर बाजार में अपनी साख का निर्माण लम्बे समय तक नहीं किया जा सकता है। इससे निवेश आकर्षित कर सकते हैं, पर वह भी लंबे समय तक नहीं चलता। जब थोड़ा झटका भी लग जाए तो अर्थव्यवस्था डावांडोल हो जाती है। 

माना जा रहा था कि चीन की अर्थव्यवस्था फिर से वापसी करेगी, लेकिन वर्ष 2015 के मध्य में जिस तरह से शंघाई स्टॉक मार्केट क्रैश हुआ, उसने पूरी दुनिया में हलचलें पैदा कर दीं। अधिकांश निवेशक एकल व्यक्ति उद्योग की तरह हैं। उन्होंने भारी कर्जा लिया हुआ है। नतीजा यह रहा कि जैसे ही बाजार में जरा भी गिरावट आई, रिटेल निवेशक अपने स्टॉक को रोककर नहीं रख पाए और उनमें उन्हें बेचने की होड़ लग गई। इससे वहां स्टॉक मार्किट लगातार गिरती गई। सरकार ने इसे रोकने के लिए तेजी से स्टॉक बेचने को दंडनीय घोषित कर दिया। बाजार में आ रही गिरावट को तो नियंत्रित कर लिया गया, लेकिन नए साल की शुरुआत में चीनी इक्विटी में आए एक और क्रैश के बाद दुनियाभर के बाजार परेशान हो गए। 

अब आते हैं रूस पर। कभी विश्व की महाशक्ति माना जाने वाले रूस की अर्थव्यवस्था में वर्ष 2014 से ही मंदी छाई है। इसका मुख्य कारण कच्चे तेल की कीमतों में वैश्विक गिरावट के साथ ही उस पर पश्चिमी देशों द्वारा लगाए गए प्रतिबंध हैं, जो यूक्रेन संकट में मॉस्को के कथित दखल के बाद लगाए गए हैं। देखा गया है कि रूस 2006-2007 से लेकर अब तक अपने बाजार को बचाने के लिए खास कदम उठा रहा है। यूरोपीय संघ के साथ अपने संबंधों को बचाने के प्रयास शुरू कर दिए हैं। लकड़ी निर्यात के कर बढ़ाए गए गए। वर्ष 2009 में फिर संकट से निबटने के लिए बहुत ज्यादा कस्टम ड्यूटी लगा दी गई, जो आज तक लागू हैं।

आलोचकों का कहना है कि रूस ने अपनी अर्थव्यवस्था की पूरी क्षमता का इस्तेमाल नहीं किया है। यूरोपीय संघ के देशों का निवेश रूस में व्यापार पर पाबंदियों, भ्रष्टाचार और बड़ी नौकरशाही के चलते पिछले सालों में घटा उठाना पड़ रहा है। यही वजह है कि रूस में अर्थव्यवस्था रुक गई है। कारण, उत्पादन की तकनीक पुरानी हो चुकी है। मूलभूत संरचना की हालत बहुत खराब है। अर्थ विशेषज्ञों के मुताबिक जब तक रूस में विदेशी व्यापार साझेदारों और कानून की सुरक्षा नहीं होगी तब तक वह दिलचस्प व्यापारिक साझेदार और निवेश के लिए आकर्षक देश नहीं बन पाएगा। 

डब्ल्यूटीओ का सदस्य बनने के बाद रूस ने वादा किया है कि वह उसके नियमों का पालन करेगा। रूस में व्यापार समुदाय उदारीकरण के खिलाफ है। देशी कंपनियां विदेशी प्रतिस्पर्धा से घबराती है। सरकार को उम्मीद है कि डब्ल्यूटीओ सदस्यता से उपभोक्ताओं को सस्ते दामों का फायदा मिलेगा और जनता में असंतोष कम होगा। ताजा आंकड़े कम चिंताजनक नहीं हें, रूस का वित्तीय घाटा वर्ष 2016 की पहली तिमाही में बढ़कर 712.9 अरब रूबल (10.8 अरब डॉलर) हो गया है, जो उसके सकल घरेलू उत्पाद का 3.7 फीसदी है। पहले तीन महीनों में संघीय सरकार का राजस्व बढ़कर 2,908 अरब रूबल रहा, जबकि व्यय 3.62 अरब रूबल रहा।

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