Exclusive Interview: हैं कहां अब स्वायत्त संस्थाएं!

Saturday, May 26, 2018 - 11:17 AM (IST)

नई दिल्ली: भाजपा से नाता तोड़ चुके पूर्व केंद्रीय वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा  कहते हैं कि जब तक उनका दिल धड़कता रहेगा, वह जनहित के मुद्दों को उठाते रहेंगे। उन्होंने दलगत राजनीति छोड़ी है, सक्रियता उनकी पहले जैसी ही बनी रहेगी।  नवोदय टाइम्स/ पंजाब केसरी से हुई विशेष बातचीत में उन्होंने अपनी राय बेबाकी के साथ रखी है। प्रस्तुत हैं प्रमुख अंश:

आखिर भाजपा से नाराजगी क्यों हुई?
भाजपा में पहले तो बात होती थी लेकिन, चार सालों के दौरान कुछ मुद्दों को मैंने पार्टी में उठाया। प्रधानमंत्री को पत्र भी लिखे। कोई ठोस प्रतिक्रिया नहीं हुई तो मीडिया में गया। आरोप लगा कि जिस पत्तल में खा रहे हैं, उसी में छेद कर रहे हैं। तब मैंने भाजपा छोड़ दी। मेरी बात को धार मिले, इसके लिए दलगत राजनीति छोड़ी। पद नहीं लेने की बात मैंने कही, ताकि किसी पार्टी में जाने या पद लेने की बात ही न उठे।

आप किन मुद्दों को लेकर चिंतित हैं?
संवैधानिक और स्वायत्त संस्थाएं किस हाल में हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। संसद में 180 दिन के सत्र होते थे, जो 80 दिन के हो गए हैं। गुजरात चुनाव के कारण शीतकालीन सत्र छोटा कर दिया गया। बजट सत्र सबसे छोटा (8 दिन) रखा गया। संसद में व्यवधान होने के बाद विपक्ष को बुलाकर पीएम या वरिष्ठ नेताओं ने बात नहीं की। यही नहीं संसद में कई अविश्वास प्रस्ताव लाए गए, लेकिन उन पर चर्चा तक नहीं की गई। सुप्रीम कोर्ट के जजों की बात ही लें, वह देश के सामने आए, भीतर चल रही गड़बड़ी को बताया। 

संसद, न्यायपालिका, निर्वाचन आयोग, वित्त आखिर गड़बड़ कहां है?
न्यायपालिका में बहुत गड़बड़ी है। यह आरोप खुद जजों ने लगाया है। मनमाफिक फैसला लेने के लिए बेंच तक फिक्स की जा रही हैं। जजों ने तो यह तक कह दिया कि प्रजातंत्र खतरे में है। चुनाव आयोग को देखिए, गुजरात व हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव की मतगणना एक साथ हुई जबकि मतदान में करीब एक महीने का अंतर रखा गया, सवाल तो उठेंगे। दिल्ली के 20 आप विधायकों को बिना सुनवाई अयोग्य ठहरा दिया। लगता है कि आयोग भी सरकार के प्रभाव में काम कर रहा है।

 प्रमुख संस्थाएं सरकार से प्रभावित हैं?
 सीबीआई, ईडी, आयकर विभाग का दुरुपयोग हो रहा है। नोटबंदी से आरबीआई की साख गिरी है। स्वायत्त संस्थाओं का बुरा हाल हो गया है। मीडिया पर भी आरोप लगते हैं।

क्या अब भी भ्रष्टाचार मुद्दा है?
ऐसा लगता है कि भ्रष्टाचार मुद्दा नहीं है। लेकिन, यह नहीं कहा जा सकता है क्योंकि वर्ष 2014 में यह मुद्दा था और ईमानदारी की बात कहकर भाजपा ने सरकार बनाई। 

क्या वह नारा काम नहीं कर रहा, जिसमें कहा गया था कि ‘न खाएंगे न खाने देंगे’?
जनता यह मानती है कि मनमोहन सिंह व्यक्तिगत रूप से ईमानदार हैं, क्या उन्होंने ईमानदार सरकार चलाई? राजनीतिक व्यवस्था ईमानदार थी। इसी तरह आज की तारीख में कोई कितना भी कह ले, मोदी ईमानदार हैं, लेकिन क्या वह ईमानदार सरकार चला रहे हैं। 

इसका मतलब भाजपा का अन्य दलों से अलग होने का दावा खारिज हो गया?
वह दावा तार-तार हो गया। जिस तरह से बीएस येदियुरप्पा ने सरकार बनाने का दावा पेश किया फिर शपथ लेकर इस्तीफा दे दिया। उससे स्थिति समझी जा सकती है। याद करने की जरूरत है कि एक समय हिमाचल विधानसभा चुनाव में भाजपा की कांग्रेस से कम सीटें आई थीं। पर छह निर्दलीय साथ आने से भाजपा सरकार बना रही थी, लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी ने विपक्ष में बैठने का फैसला किया था।

कर्नाटक  में विपक्ष के साथ आने की तस्वीर सामने आई, यह तस्वीर क्या कहती है?
जहां-जहां विरोधी राजनैतिक दलों को लगा कि भाजपा को वह अकेले नहीं हरा सकते, वहां-वहां वह साथ आ गए। सपा-बसपा साथ आ गए तो परिणाम सबके सामने है। यूपी के कैराना में भी विपक्षी एक हैं। आज क्षेत्रीय दल मजबूत हैं। उनको कांग्रेस से कम और भाजपा से ज्यादा खतरा है। राष्ट्रीय पार्टियां एक साथ आएंगी और उनका क्या स्वरूप होगा, अभी कुछ नहीं कहा जा सकता।

किसानों की स्थिति और बढ़ते एनपीए पर क्या कहेंगे?
भाजपा ने वादा किया था कि किसानों को फसल का अच्छा मूल्य दिया जाएगा। अब जाकर बजट में इसका प्रावधान किया गया। हजारों करोड़ रुपए किसानों का बकाया है सरकार पर, भुगतान लटका है। मुझे नहीं लगता सरकार आगे भी कार्य कर पाएगी। उधर सरकारी योजना बनाकर लोगों को कर्ज तो दिलवा दिया जा रहा है, लेकिन उनके प्रोजेक्ट को देखा नहीं जा रहा। ऐसे प्रोजेक्ट फेल हो रहे हैं, इसका नतीजा नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स (एनपीए) के रूप मे सामने आ रहा है। बैंकों को इससे खासी परेशानी हो रही है।  वित्तीय समस्याएं बनी हुई हैं, लेकिन अरुण जेतली इस पर ध्यान नहीं दे रहे।

विदेश नीति पर क्या कहेंगे?
विदेशी मामलों में बहुत ही शांत और गंभीर रहकर काम करना चाहिए। राष्ट्र प्रमुखों को गले लगाकर सफलता नहीं मिलती। राष्ट्रहित को सबसे ऊपर रखकर दुनिया में  उपस्थिति को दर्ज करानी चाहिए। केंद्र में भाजपा सरकार बनने के बाद ऐसा लग रहा था कि भारत सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बन जाएगा, लेकिन आज तक कुछ नहीं हुआ। 

भाजपा के विरोधी दलों के बीच से कोई मजबूत चेहरा सामने आएगा?
परिस्थितियां नेता पैदा करती हैं। 2012 में कोई बता सकता था कि नरेंद्र मोदी पीएम बनेंगे। अगर एक सीएम पीएम बन सकता है तो दूसरा मुख्यमंत्री भी पीएम बन सकता है।

मोदी सरकार की कोई उपलब्धि है?
चार साल से बिना किसी व्यवधान के स्थायी रूप से सरकार चलाना ही उपलब्धि है।

यदि कोई नया राजनीतिक समूह बनता है तो क्या आप उसका निर्देशन करेंगे?
बिलकुल, अपने अनुभव के आधार पर मैं गाइड करने से पीछे नहीं हटूंगा।

 अंंतिम टिप्पणी
मोदी मुद्दा नहीं, मुद्दे ही मुद्दा हैं।

गलत आंकड़े बताकर लूट रहे वाहवाही
कुछ वर्षों में सरकारें यह दिखाने के लिए गलतबयानी कर रही हंै कि सरकार बहुत अच्छा काम कर रही हैं। जीडीपी ग्रोथ रेट का फार्मूला ही बदल दिया गया। इससे दो प्रतिशत का उछाल आ गया। तुलना करने का वर्ष भी 2013-14 को ही रखा गया। आज जो ग्रोथ रेट 6.5 है वह मेरे हिसाब से 4.5 है। बड़ी बात यह है कि जीडीपी ग्रोथ रेट का प्रतिशत केवल कॉर्पोरेट सेक्टर का है। नोटबंदी का असर तो असंगठित वर्ग पर अधिक पड़ा है, वह तीन साल बाद सामने आएगा। सबसे ज्यादा बेरोजगारी वहीं हुई। इसी तरह से रोजगार उपलब्ध कराने को लेकर जो आंकड़े बताए जा रहे हैं, वह भी गलत हैं। सरकार कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (ईपीएफओ) के आंकड़े बताकर रोजगार बढऩे की बात कह रही है। दरअसल होता यह है कि 20 या उससे अधिक कर्मचारी होने पर फर्म को कर्मचारी भविष्य निधि संगठन में पंजीकरण कराना होता है।

अब यदि किसी फर्म में 19 कर्मचारी थे और एक कर्मी आने के बाद उसने ईपीएफओ में पंजीकरण कराया तो, सरकार उसे 20 नए रोजगार के रूप में देख रही है। जबकि यहां पर केवल एक रोजगार नया हुआ बाकी 19 पुराने कर्मी ही थे। उज्ज्वला योजना में भी इस तरह से काम हो रहा है। पहला सिलेंडर फ्री देकर कनेक्शन की संख्या बताई जा रही, लेकिन यह नहीं देखा जा रहा है कि उसका इस्तेमाल आगे भी हो रहा है या नहीं। शौचालय भी बनाए जा रहे हैं,  और उनकी संख्या गिनाई जा रही है। जबकि इस्तेमाल कितने शौचालयों का हो रहा है, यह नहीं बताया जा रहा है। 

Anil dev

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