चुनावी माहौल में उलझते बुनियादी सवाल

Monday, Jun 11, 2018 - 10:55 AM (IST)

नेशनल डेस्कः 2019 के चुनावों की पेशबंदी शुरू हो गई है। जहां एक तरफ भाजपा भविष्य के खतरे को देखते हुए रूठे साथियों को मनाने में जुटी है, वहीं विपक्षी दल आपसी तालमेल बनाने का प्रयास कर रहे हैं। दोनों ही पक्षों की तरफ से सोशल मीडिया पर मनोवैज्ञानिक युद्ध जारी है। जहां भाजपा का सोशल मीडिया देशवासियों को मुसलमानों का डर दिखाने में जुटा है, वहीं विपक्षी मीडिया, जो अभी कम आक्रामक है, मोदी जी के 2014 के चुनावी वायदे पूरे न होने की याद दिला रहा है। इस युद्ध के माहौल में बुनियादी सवाल नदारद है। लोकतंत्र में मतदाताओं की संख्या का बड़ा महत्व होता है। उस दृष्टि से मुसलमानों की बढ़ती ताकत का डर आसानी से हिन्दुओं को दिखाकर उनके मत को एकमत किया जा सकता है, पर आम आदमी की जिन्दगी में धर्म से ज्यादा रोजी-रोटी, शिक्षा, मकान, स्वास्थ्य और सुरक्षा का महत्व होता है। धर्म की याद तो उसे भरे पेट पर आती है।

पिछले 4 वर्ष के एन.डी.ए. सरकार के दावों के विपरीत इन सभी क्षेत्रों में प्रधानमंत्री की योजनाओं का लाभ आम लोगों तक नहीं पहुंचा, इससे समाज में भारी हताशा है। ज्यादातर मध्य स्तरीय उद्योग-धंधे चौपट हैं। रीयल एस्टेट का धंधा चौपट है। बेरोजगारी चरम पर है। आम जनता में भारी निराशा है। मीडिया और सरकारी प्रचार तंत्र सरकार की उपलब्धियों के कितने ही दावे क्यों न करें, जमीन पर कुछ दिखाई नहीं दे रहा है। यह भाजपा के लिए शुभ संकेत नहीं है और अब इतनी देर हो चुकी है कि रातों-रात कुछ नया खड़ा नहीं किया जा सकता। यही वजह है कि भाजपा को घिसे-पिटे पुराने मुद्दे ही दोहराने पड़ रहे हैं। फिर वह चाहे अल्पसंख्यकों से खतरा बताकर हिन्दू वोटों को पकडऩे की कोशिश हो या राजनीतिक विपक्षियों पर सी.बी.आई. के शिकंजे कसकर उनकी संभावित एकता को रोकने का प्रयास हो या पाकिस्तान से कश्मीर के मुद्दे पर युद्ध की झलक दिखाकर देशभक्ति के नाम पर देश को एकजुट करने का प्रयास हो पर इन सभी चुनावी हथकंडों से आम मतदाता की समस्याओं का कोई संबंध नहीं है। ये सब लोगों को अब भटकाने वाले मुद्दे नजर आते हैं। उनके असली मुद्दों की कोई बात नहीं कर रहा। 2014 के आम चुनाव में मोदी जी ने हर वर्ग और आयु के मतदाता के मन में उम्मीद जगाई थी जो वे पूरी नहीं कर पाए इसलिए लगता है कि ये हथकंडे शायद इस चुनाव में काम न आएं।

दूसरी तरफ विभिन्न विचारधाराओं और भारत के विभिन्न प्रांतों के राजनेता हैं जो कर्नाटक की सफलता से बहुत उत्साहित हैं। जो केवल आपसी तालमेल की बात कर रहे हैं भाजपा के कार्यकर्ताओं की संगठित सेना से वैचारिक स्तर पर निपटने का अभी कोई साफ नक्शा दिखाई नहीं देता, जिससे इस बात की संभावना बनती है कि एकजुट होकर भी ये विभिन्न राजनीतिक दल जनता के दिल को छूने वाले मुद्दे नहीं उठा पाएंगे। ऐसे में यह स्पष्ट है कि आगामी चुनाव में लड़ाई बुनियादी मुद्दों को लेकर नहीं बल्कि सतही मुद्दों को लेकर होगी। जो भी जीतेगा वह फिर सरकार को वैसे ही चलाएगा, जैसे आज तक चलाता आ रहा है। इस तरह तो कुछ नहीं बदलेगा। देश की गाड़ी 1947 से जिस ढर्रे पर चल रही है, उसी ढर्रे पर आगे बढ़ेगी। आज विकास के नाम पर गलत योजनाओं की परिकल्पना, भ्रष्ट नौकरशाही के असीम अधिकार, निचले स्तर पर भारी भ्रष्टाचार ने विकास की कमर तोड़ दी है। अब चुनाव में चाहे कोई जीते कुछ बदलने वाला नहीं है। जब सांसदों की इतनी बड़ी संख्या लेकर दमदार नेता नरेन्द्र भाई मोदी चार साल में जनता को राहत नहीं दे पाए, तो आगे दे पाएंगे इसका क्या भरोसा? ऐसे में मतदाताओं के सामने प्रश्न खड़ा होता है कि वे किसे वोट दें और क्यों, और न भी दें तो क्या फर्क पड़ता है क्योंकि उनकी जिन्दगी बदलने वाली नहीं है... ‘कोउ नृप होय हमें का हानि, चेरि छोड़ न होबई रानी।’

जनता तो लुटने-पिटने और शोषित होने के लिए है, इसलिए उसकी चुनावों में रुचि समाप्त हो गई है। इस तरह तो हमारा लोकतंत्र कमजोर होता जाएगा। जरूरत इस बात की थी कि पिछले 71 सालों में विकास का जो ढर्रा चलता रहा, उसे पूरी तरह बदल दिया जाता। फिर स्वयंसिद्ध लोगों की राय से विकास की योजनाएं बनाई जातीं। ऐसा कुछ नहीं हो रहा, यह चिन्ता की बात है। दरअसल, हमारा तो मानना रहा है कि आप काज, महा काज। जनता को अपने और अपने आसपास के लोगों की भलाई और विकास की तरफ खुद ही कदम बढ़ाने होंगे और अनुभव यह दिखा देगा कि जो काम जनता ईमानदारी से चार आने में कर लेती है, वही काम सरकारी अमला 40 रुपए में भी नहीं कर पाता। आज के संचार के युग में सूचनाओं का प्रसार बहुत तीव्र गति से होता है। अगर ये सूचनाएं आम जनता तक पहुंचीं तो सभी राजनीतिक दल कटघरे में खड़े होंगे और ऐसे में एक दल की सरकार बनना असंभव होगा। वास्तव में क्या होता है यह तो आम चुनाव के परिणाम ही बताएंगे।- विनीत नारायण

 

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