‘अंध-श्रद्धा’ की नई मिसाल राधे-मां

punjabkesari.in Monday, Aug 10, 2015 - 12:27 AM (IST)

(विनीत नारायण): मीडिया से घिरी और पुलिस वालों के फंदे में फंसी मुम्बई की 5 सितारा राधे मां की अब ‘राधे-राधे’ हो गई। कैसी विडम्बना है कि जिन भगवान श्रीकृष्ण की अंतरंग शक्ति कृपामयी, करुणामयी श्री राधारानी के दर्शन देवताओं को भी दुर्लभ हैं, जिनके चरणाश्रय के लिए सकल ब्रह्मांड के संत और भक्त सदियों साधना करते हैं, जिनके चरणों के नख की कांति कोटि चंद्रमाओं को भी लजा देती है जिनको आकर्षित करने के लिए हमारे प्यारे श्यामसुंदर ब्रज के वनों और कुंजों में फेरे लगाया करते हैं उन राधारानी का ढोंग धरने की हिमाकत अगर संसारी जीव करें तो उनकी यही दशा होगी जो आज तथाकथित राधे मां की हो रही है। आज से 2 वर्ष पूर्व जब आसाराम बापू गिरफ्तार हुए थे तो मैंने धर्म के धंधे पर एक लेख लिखा था। विडम्बना देखिए कि आत्मघोषित राधे मां के बेनकाब हो जाने के बाद वह लेख ज्यों का त्यों आज फिर प्रासंगिक हो गया है। उसके कुछ बिन्दु यहां दोहरा रहा हूं। 

 
दरअसल, धर्म का धंधा केवल भारत में चलता हो या केवल हिन्दू कथावाचक या महंत ही इसमें लिप्त हों यह सही नहीं है। 3 दिन तक मैं इटली के रोम नगर में ईसाइयों के सर्वोच्च आध्यात्मिक केन्द्र वेटिकन सिटी में पोप और आर्क बिशपों के आलीशान महल और वैभव के भंडार देखता रहा। एक क्षण को भी न तो आध्यात्मिक स्फूर्ति हुई और न ही कहीं भगवान के पुत्र माने जाने वाले यीशू मसीह के जीवन और आचरण से कोई संबंध दिखाई दिया। कहां तो विरक्ति का जीवन जीने वाले यीशू मसीह और कहां उनके नाम पर असीम ऐश्वर्य में जीने वाले ईसाई धर्मगुरु? 
 
पैगम्बर साहब हों या गुरु नानक देव, गौतम बुद्ध हों या महावीर स्वामी, गइयां चराने वाले ब्रज के गोपाल कृष्ण हों या वनवास झेलने वाले भगवान राम, कैलाश पर्वत पर समाधिस्थ भोले शंकर हों या कुशा के आसन पर भजन करने वाले हनुमान जी सबका जीवन अत्यन्त सादगी और वैराग्य पूर्ण रहा है। पर धर्म के नाम पर धंधा करने वालों ने उनके आदर्शों को ग्रंथों तक सीमित कर साम्राज्य खड़े कर लिए हैं। कोई धर्म इस रोग से अछूता नहीं है। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि हर धर्म क्रमश: भौतिकता की ओर पतनशील हो जाता है। 
 
संत वह है जिसके पास बैठने से हम जैसे गृहस्थ विषयी भोगियों की वासनाएं शांत हो जाएं, भौतिकता से विरक्ति होने लगे और प्रभु के श्री चरणों में अनुराग बढऩे लगे। पर आज स्वयं को ‘संत’ कहलाने वाले क्या इस मापदंड पर खरे उतरते हैं? जो वास्तव में संत हैं उन्हें अपने नाम के आगे विशेषण लगाने की जरूरत नहीं पड़ती। क्या मीराबाई, रैदास, तुलसीदास, नानक देव, कबीरदास जैसे नामों से ही उनके संतत्व का परिचय नहीं मिलता? इनमें से किसी ने भी अपने नाम के पहले जगतगुरु, महामंडलेश्वर, परमपूज्य, अवतारी पुरुष, श्री श्री 1008 जैसी उपाधियां नहीं लगाईं, पर इनका स्मरण करते ही स्वत: भक्ति जागृत होने लगती है। ऐसे संतों की हर धर्म में आज भी कमी नहीं है, पर वे टी.वी. पर अपनी महानता का विज्ञापन चलवाकर या लाखों रुपया देकर अपने प्रवचनों का प्रसारण नहीं करवाते क्योंकि वे तो वास्तव में प्रभु मिलन के प्रयास में जुटे हैं। 
 
हम सब जानते हैं कि घी का मतलब होता है गाय या किसी अन्य पशु के दूध से निकली चिकनाई। अब अगर किसी कम्पनी को सौ फीसदी शुद्ध घी कहकर अपना माल बेचना पड़े तो साफ जाहिर है कि उसका दावा सच्चाई से कोसों दूर है क्योंकि जो घी शुद्ध होगा उसकी सुगंध ही उसका परिचय दे देगी। सच्चे संत तो भौतिकता से दूर रहकर सच्चे जिज्ञासुओं को आध्यात्मिक प्रगति का मार्ग बताते हैं। उन्हें तो हम जानते तक नहीं क्योंकि वे चाहते ही नहीं कि कोई उन्हें जाने। पर जो रोजाना टी.वी., अखबारों और होॄडगों पर पैप्सी कोला की तरह विज्ञापन करके अपने को संत, महामंडलेश्वर, जगद्गुरु या राधे मां कहलवाते हैं उनकी सच्चाई उनके साथ रहने से एक दिन में सामने आ जाती है, बशर्ते देखने वाले के पास आंख हो। 
 
जैसे- जैसे आत्मघोषित धर्माचार्यों पर भौतिकता हावी होती जाती है वैसे-वैसे उन्हें स्वयं पर विश्वास नहीं रहता इसलिए वे भांति-भांति के प्रत्यय और उपसर्ग लगाकर अपने नाम का शृंगार करते हैं। नाम का ही नहीं तन का भी शृंगार करते हैं। पोप के जरीदार गाऊन हों या रत्न जटित तामझाम, भागवताचार्यों के राजसी वस्त्र और अलंकरण हों या उनके व्यास आसन की साज सज्जा, क्या इसका यीशू मसीह के सादा लिबास या शुकदेव जी के विरक्त स्वरूप से कोई संबंध है ? अगर नहीं तो ये लोग न तो अपने इष्ट के प्रति सच्चे हैं और न ही उस आध्यात्मिक ज्ञान के प्रति जिसे बांटने का ये दावा करते हैं। हमने सच्चे संतों के श्रीमुख से सुना है कि जितने लोग आज हर धर्म के नाम पर विश्वभर में अपना साम्राज्य चला रहे हैं अगर उनमें दस फीसदी भी ईमानदारी होती तो आज विश्व इतने संकट में न होता। 
 
राधे मां कोई अपवाद नहीं हैं। वे उसी भौतिक चमक-दमक के पीछे भागने वाली शब्दों की जादूगर हैं जो शरणागत की भावनाओं का दोहन कर दिन दोगुनी और रात चौगुनी सम्पत्ति बढ़ाने की दौड़ में लगी हैं। जिनके जिस्म पर लदे करोड़ों रुपए के आभूषण, फिल्मी हीरोइनों की तरह चेहरे का मेकअप, विदेशी इत्रों की खुशबू, भड़काऊ या पाश्चात्य वेशभूषा और शास्त्र विरुद्ध आचरण देखने के बाद भी उनके अनुयायी क्यों हकीकत नहीं जान पाते। जब-जब आध्यात्मिक मार्ग पर चलने वालों का संबंध ऐश्वर्य से जुड़ा है तब-तब उस धर्म का पतन हुआ है। इतिहास इसका साक्षी है। यह तो उस जनता को समझना है जो अपने जीवन के छोटे-छोटे कष्टों के निवारण की आशा में मृग- मरीचिका की तरह रेगिस्तान में दौड़ती है कि कहीं जल मिल जाए और प्यास बुझ जाए, पर उसे निराशा ही हाथ लगती है। पुरानी कहावत है ‘पानी पीजे छान के, गुरु कीजे जान के’।          
 

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