फांसी पर सेंकी जाने लगी ‘राजनीतिक रोटियां’

punjabkesari.in Thursday, Jul 30, 2015 - 11:35 PM (IST)

(विजय विद्रोही): मुम्बई में हुए दंगों के आरोपी याकूब मेमन को आखिरकार फांसी हो ही गई। इसके साथ ही राजनीति भी तेज हो गई। इसके साथ ही एक बार फिर बहस गर्मा गई  है कि सभ्य समाज में क्या फांसी की सजा का प्रावधान होना चाहिए। एक तरफ  दिग्विजय सिंह धर्म और जाति से ऊपर उठकर फांसी देने की वकालत करके अपनी तरह की राजनीति कर रहे हैं, उधर फांसी के खिलाफ  राष्ट्रपति को खत लिखने वालों या सुप्रीम कोर्ट में जाने वाले मानवाधिकार संगठनों को सबक सिखाने की बात करने वाले शिव सेना जैसे दल अपनी अलग राजनीतिक रोटियां सेंकने में व्यस्त हैं।

याकूब मेमन की फांसी कोई पहली फांसी नहीं है जिस पर राजनीति हो रही हो। इससे पहले पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह हत्याकांड के दोषी बलवंत सिंह राजोआणा और एक अन्य आतंकवादी भुल्लर की फांसी पर जमकर राजनीति हो चुकी है। यहां तक कि अकाली दल-भाजपा गठबंधन वाली पंजाब सरकार ने बाकायदा विधानसभा में फांसी के खिलाफ प्रस्ताव पारित किया था। 
 
जस जेल के जेलर ने फांसी देने से ही इन्कार कर दिया था, उसके खिलाफ  अनुशासनहीनता का नोटिस तक जारी नहीं किया गया। इसी तरह राजीव गांधी के हत्यारों को फांसी से बचाने के लिए लिट्टे समर्थक दलों ने तमिलनाडु में जमकर राजनीति की थी।  वहां की विधानसभा में प्रस्ताव पारित हुआ था। संसद पर हमले के आरोपी अफजल गुरु को फांसी दिए जाने के बाद जम्मू-कश्मीर की नैशनल कांफ्रैंस-कांग्रेस सरकार के मुखिया उमर अब्दुल्ला ने तो खुलकर कहा था कि गलत फांसी दी गई है।
 
 इसे ही मुद्दा बना रहे हैं समाजवादी पार्टी के नेता अबु आजमी और एम.आई.एम. के ओवैसी। फांसी होने के बाद कहा जा रहा है कि अगर 15 दिन और अदालत दे देती तो क्या आसमान टूट जाता। सुप्रीम कोर्ट ने इतनी जल्दबाजी क्यों की, कुछ अन्य पहलू सुने जाने चाहिए थे। याकूब को एक समझौते के तहत भारत लाया गया था जिसे छुपाया गया, लिहाजा अदालत को उस पक्ष को देखते हुए गहराई से जांच करवानी चाहिए आदि-आदि लेकिन यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि पिछले साल दया याचिका रद्द होने के बाद याकूब के वकीलों ने वैसी जल्दबाजी क्यों नहीं दिखाई जैसी कि अब दिखाई गई। अगर समझौते की बात है तो अदालती कार्रवाई के समय इस पक्ष को याकूब के वकीलों की तरफ  से जोर-शोर से क्यों नहीं उठाया गया। अब यह बात तो उस समय के सरकारी अफसर ही जानते हैं कि वास्तव में सच्चाई क्या थी लेकिन एक बात तय है कि अगर कोई समझौता हुआ होता तो वह छुपता नहीं। 
 
यहां सुप्रीम कोर्ट की तारीफ  इस बात के लिए होनी चाहिए कि उसने याकूब को पूरा मौका दिया। यहांतक कि रात 10 बजे राष्ट्रपति की तरफ  से दया याचिकारद्द होने के बाद देर रात तक अदालत बैठी और डेढ़ घंटे तक सुनवाई की। क्यूरेटिव पटीशन को लेकर भी सुप्रीम कोर्ट ने स्थिति साफ  की। यह एक बहुत समझदारी भरा फैसला था। 
 
फांसी के मामले में हर तरह के कानूनी दाव-पेंच तो आजमाए जाएं लेकिन सिर्फ  फांसी को लटकाने के लिए अगर कोई इनका दुरुपयोग करता है तो अदालत उसे मानने के लिए बाध्य नहीं है। कोर्ट ने याकूब के मामले में इसे भी साफ  कर दिया। यह कुछ ऐसी नजीरें हैं जो आने वाले समय में फांसी दिए जाने पर होने वाली संभावित कानूनी लड़ाई में काम आएंगी।
 
यह बात सही है कि भारत में अब तक जितने लोगों को फांसी दी गई है उनमें से 90 फीसदी से ज्यादा दलित, गरीब और अल्पसंख्यक वर्ग से आते हैं। ऐसे लोग हैं जो सुप्रीम कोर्ट तो छोडि़ए, हाई कोर्ट तक भी नहीं पहुंच पाते। रसूखदार पैसों के दम पर, अपने कद या प्रभाव के दम पर ऐसी रियायतें हासिल कर लेते हैं जो गरीब आदमी की हदों में नहीं होतीं। दिग्विजय सिंह की चिंता यहां वाजिब लगती है कि धर्म और जाति से ऊपर उठकर फैसले होने चाहिएं लेकिन इसके बाद वह जब ऐसा होने में शक पैदा करते हैं तो फिर सवाल उठता है कि क्या वह इस पूरे मसले पर राजनीति कर रहे हैं। आखिर उनके और आजमी या ओवैसी के बयानों में फर्क क्या रह जाता है।
 
याकूब की फांसी को रोकने के लिए रिटायर जजों, फिल्म जगत, एन.जी.ओ. के प्रतिनिधियों ने राष्ट्रपति को खत लिखा। प्रशांत भूषण तो देर रात सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के घर तक पहुंच गए। इसकी आलोचना हो रही है और शिव सेना के संजय राउत जैसे नेता तो ऐसे लोगों को सबक सिखाने की बात कर रहे हैं। भाजपा के नेता भी संकेतों में इसी तरफ  इशारा कर रहे हैं। 
 
यहां तर्क दिया जा सकता है कि ऐसे सभी संगठन कानून के दायरे में ही रह कर अपने हक का इस्तेमाल कर रहे हैं। आखिर भुल्लर जैसे 12 अन्य फांसी की सजा पाए आरोपियों ने इसी तरह कानून का सहारा लेते हुए ही अपनी सजा को आजीवन कारावास में बदलवा लिया था। एक सच यह भी है कि हमारे यहां दंगा या बम धमाका होने के समय जांच का तरीका बहुत सारे सवाल छोड़ जाता है। 
 
यह हकीकत है कि पिछले दस सालों में देश के अलग-अलग भागों में हुए बम धमाकों में बहुत से निरपराध मुसलमानों को पकड़ा गया, सालों लोग जेल में रहे और अब सभी को छोड़ा गया है। ऐसे मामलों को मानवाधिकार संगठनों ने उठाया था और कानूनी लड़ाई लड़ी थी। लेकिन इस बात का ध्यान हमेशा मानवाधिकार संगठनों को रखना चाहिए कि अगर आरोपियों के मानवाधिकार होते हैं तो पीड़ितों के भी मानवाधिकार होते हैं।
 
रही बात फांसी की सजा होनी चाहिए या नहीं तो इस पर बहस हो सकती है। संसद में भी बहस हो सकती है। सरकार आम नागरिकों से भी उनकी राय मंगवा सकती है। शशि थरूर के बयान को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। मौत की सजा की खिलाफत करने वाले जो तर्क देते हैं वही तर्क शशि थरूर भी दे रहे हैं। तर्क यही दिया जाता है कि अगर कोई हत्या करता है तो उसकी हत्या करने का अधिकार सरकार के पास नहीं होना चाहिए क्योंकि यह बदला लेने जैसी बर्बरता है। दुनिया के 140 देशों की भी यही सोच है जहां मौत की सजा पर रोक है। तर्क यह भी दिया जाता है कि मौत की सजा कोई प्रतिरोधक नहीं है। अगर जांच तेज गति से हो, आरोपी को तभी सजा मिल जाए जब पीड़ितों के जख्म ताजे हों और उस घटना की समाज में चर्चा होनी बंद नहीं हुई हो तो ऐसे में अगर आरोपी को मौत की सजा दी जाती है तो वह प्रतिरोधक का काम कर भी सकती है।    

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