यूं ही नहीं करीब आ रहे भारत और अमरीका

Wednesday, Jan 28, 2015 - 04:49 AM (IST)

नई दिल्ली (विशेष): पालम एयरपोर्ट पर अमरीकी राष्ट्रपति से गले मिलते पी.एम. नरेंद्र मोदी, फिर हैदराबाद हाऊस के लॉन में ओबामा को अपने हाथों से चाय का कप सर्व करते मोदी, इसके बाद करीब आधा घंटा वॉक के साथ बातचीत, हंसी-मजाक, एक दोस्त की तरह एक-दूसरे के कंधे पर हाथ रखना और अचानक विश्व के सबसे बड़े और सबसे पुराने देशों के बीच ऐतिहासिक परमाणु करार पर मुहर का लगना। किसी फिल्मी कहानी की तरह नजर आने वाले इस घटनाक्रम की रूपरेखा भी फिल्मों की ही तरह पर्दे के पीछे रची गई है। मोदी और ओबामा तो महज पर्दे पर नजर आने वाले किरदार हैं। भारत और अमरीका की बढ़ती नजदीकियों की असल वजह कुछ और है। अगर ओबामा आज मोदी के साथ दोस्त की तरह पेश आ रहे हैं तो इससे यह तात्पर्य कतई नहीं लगाना चाहिए कि वह मोदी के साथ संबंध बढ़ाना चाहते हैं बल्कि वह अपने देश के लिए नई दिल्ली के साथ संबंधों की नई इबारत लिखने को बेताब हैं।

2 देशों के बीच बेहतर संबंधों के पीछे कई कारण होते हैं। दोनों देशों के प्रमुखों के बीच कैसे संबंध हैं यह भी काफी मायने रखता है लेकिन जब तक दोनों के हित न टकराएं तभी तक यह रिश्ता बरकरार रह सकता है। वर्तमान में भी भारत और अमरीका के बीच नजदीकियां यूं ही नहीं बढ़ रही हैं। मीडिया में जिस ऐतिहासिक परमाणु करार को मोदी-ओबामा की दोस्ती और चाय की टेबल पर किया गया करार बताया गया है उसके पीछे दोनों देशों की कड़ी मेहनत है। पर्दे के पीछे नौकरशाहों की लंबी माथापच्ची और कूटनीतिक मोर्चे पर सहमति के बाद ही इसे अमल में लाया गया है। यहां उल्लेखनीय है कि परमाणु करार की उत्पत्ति पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश के समय हुई थी। न तो मनमोहन कोई करिश्माई व्यक्ति थे और न ही बुश।

एक लंबी जद्दोजहद के बाद दोनों देशों के राजनयिकों ने सारी आपत्तियों और शर्तों की बाधाओं का समाधान निकालने के बाद इसे हरी झंडी दी। फिर एक प्रैस वार्ता में मोदी और ओबामा ने इसके सफल होने की घोषणा की। दोनों ने बड़े ही बेहतर तरीके से एक-दूसरे के साथ निजी दोस्ती को जनता के समक्ष पेश किया। मोदी ने ‘बराक’ तो ओबामा ने ‘मोदी’ कहकर एक-दूसरे से नजदीकियों को दर्शाने की कोशिश की। यह सिर्फ अंदर चल रहे विमर्श युद्ध और ‘पर्सनल कैमिस्ट्री’ को दर्शाने का जरिया मात्र था। यह खुशी की बात है कि करार परवान चढ़ गया और इसका श्रेय दोनों की दोस्ती को दिया जा सका लेकिन यदि डील सिरे नहीं चढ़ती तो क्या होता?

हम शायद यह भूल रहे हैं कि अमरीका के डिप्लोमेट ही थे जिनकी वजह से कभी नरेंद्र मोदी को अमरीका ने वीजा तक देने से मना कर दिया था। उस वक्त उन्हें यह देश की नीति के विरुद्ध लगा था जिस कारण मोदी अमरीका जाने से वंचित रह गए थे। अमरीका की विदेश नीतियों में सबसे अहम भूमिका डिप्लोमेट्स की ही है इसलिए दोनों देशों के बीच समझौतों और बढ़ती नजदीकियों की असल वजह यह नहीं कि ओबामा मोदी के दोस्त बनना चाहते हैं बल्कि अमरीका नई दिल्ली का दोस्त बनना चाहता है। हां इन समझौतों ने मोदी की छवि को पॉलिश करने का काम अवश्य किया है। भारत की कूटनीति सिर्फ एक व्यक्ति के इर्द-गिर्द सिमट गई है लेकिन इसमें उन नौकरशाहों की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता जिन्होंने अपने ‘राजनीतिक आका’ की कुर्सी को मजबूत करने के लिए उसमें नट-बोल्ट लगाए हैं।

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