आध्यात्मिक शक्तियों को जागृत कर दुर्गुणों को समाप्त करने का पर्व है विजय दशमी

Thursday, Oct 22, 2015 - 10:37 AM (IST)

आदिकाल से ही इस लोक में मनुष्य समुदाय दो प्रकार का है- एक दैवीय प्रकृति वाला और दूसरा आसुरी प्रवृत्ति वाला। आसुरी प्रवृत्ति वाले मनुष्यों में न तो बाहर भीतर की शुद्धि होती है, न श्रेष्ठ आचरण और न ही सत्य भाषण। किसी भी राष्ट्र की प्रतिष्ठा वहां के लोगों के आचरण से होती है। हमारे ग्रन्थों में श्रेष्ठ राष्ट्र की कल्पना आर्य विधान से की गई है। 

आर्य का अर्थ है- श्रेष्ठ पुरुषों का आचरण। समानता, सामाजिक न्याय, सद्भावना आदि लक्षणों से युक्त मानवीय समाज ही आर्य विधान की विशेषता है। भगवान श्रीराम ने लंका विजय के उपरान्त विभीषण को राज्य देकर, बाली वध के उपरान्त सुग्रीव को किष्किन्धा का राज्य देकर वहां आर्य विधान स्थापित किया। अर्जुन जब अधर्मियों के अन्याय, भ्रष्टाचार के समक्ष युद्ध से पूर्व झुक गए तो आनन्द कन्द भगवान श्री कृष्ण ने इसे अनार्य आचरण की संज्ञा दी।

आध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाए तो हमें अपने भीतर दुर्गुणों को समाप्त करने के लिए अपनी दस इंद्रियों पर विजय प्राप्त करना आवश्यक है। श्री गीता जी के अनुसार, ‘‘इन्द्रियाणी दशैकं च’’ 

इस प्रकार हम अपने भीतर तमोगुण को समाप्त कर सकते हैं। इस प्रकार विजय दशमी पर्व है अपनी आध्यात्मिक शक्तियों को जागृत करने का ताकि विकारों का क्षय हो सके। 

-रवि शंकर शर्मा, जालन्धर

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