भगवान के धाम की प्राप्ति का मार्ग

Thursday, Jul 23, 2015 - 03:52 PM (IST)

सत्य का स्वरूप समझाना कठिन

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद अध्याय 3 (कर्मयोग)

वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिता:।

बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागता:॥ 10॥

वीत—मुक्त; राग—आसक्ति; भय—भय; क्रोधा:—तथा क्रोध से; मत-मया—पूर्णतया मुझ में; माम्—मेरे;उपाश्रिता:—पूर्णतया स्थित; बहव:—अनेक; ज्ञान—ज्ञान की; तपसा—तपस्या से; पूता:—पवित्र हुआ; मत्-भावम्—मेरे प्रति दिव्य प्रेम को; आगता:—प्राप्त।

अनुवाद : आसक्ति, भय तथा क्रोध से मुक्त होकर मुझमें पूर्णतया लीन होकर, और मेरी शरण में आकर, बहुत से व्यक्ति भूत काल में मेरे ज्ञान से पवित्र हो चुके हैं। इस प्रकार से उन सबों ने मेरे प्रति दिव्य प्रेम को प्राप्त किया है।

तात्पर्य : जैसा कि पहले कहा जा चुका है विषयों में आसक्त व्यक्ति के लिए परमसत्य के स्वरूप को समझ पाना अत्यंत कठिन है। सामान्यत: जो लोग देहात्मबुद्धि में आसक्त होते हैं, वे भौतिकवाद में इतने लीन रहते हैं कि उनके लिए यह समझ पाना असंभव-सा है कि परमात्मा व्यक्ति भी हो सकता है। ऐसे भौतिकवादी व्यक्ति इसकी कल्पना तक नहीं कर पाते कि ऐसा दिव्य शरीर भी है जो नित्य तथा सच्चिदानंदमय है। 

भौतिकतावादी कल्पना के अनुसार शरीर नाशवान, अज्ञानमय तथा अत्यंत दुखमय होता है। अत: जब लोगों को भगवान के साकार रूप के विषय में बताया जाता है तो उनके मन में शरीर की यही कल्पना बनी रहती है। ऐसे भौतिकवादी पुरुषों के लिए विराट भौतिक-जगत का स्वरूप ही परमतत्व है। फलस्वरूप वे परमेश्वर को निराकार मानते हैं और वे भौतिकता में इतने तल्लीन रहते हैं कि भौतिक पदार्थ से मुक्ति के बाद व्यक्तित्व (स्वरूप) बनाए रखने के विचार से ही वे डरते हैं।

 जब उन्हें यह बताया जाता है कि आध्यात्मिक जीवन भी व्यक्तिगत तथा साकार होता है तो वे पुन: व्यक्ति बनने से भयभीत हो उठते हैं, फलत: वे निराकार शून्य में तदाकार होना पसंद करते हैं। सामान्यत: वे जीवों की तुलना समुद्र के बुलबुलों से करते हैं, जो टूटने पर समुद्र में ही लीन हो जाते हैं। 

पृथक व्यक्तित्व से रहित आध्यात्मिक जीवन की यह चरम सिद्धि है। यह जीवन की भयावह अवस्था है, जो आध्यात्मिक जीवन के पूर्णज्ञान से रहित है। इसके अतिरिक्त ऐसे बहुत से मनुष्य हैं जो आध्यात्मिक जीवन को तनिक भी नहीं समझ पाते। अनेक वादों तथा दार्शनिक चिंतन की विविध विसंगतियों से परेशान होकर वे ऊब उठते हैं या क्रुद्ध हो जाते हैं और मूर्खतावश यह निष्कर्ष निकालते हैं कि परम कारण जैसा कुछ नहीं है, अत: प्रत्येक वस्तु अंत: शून्य है।

ऐसे लोग जीवन की रुग्णावस्था में होते हैं। कुछ लोग भौतिकता में इतने आसक्त रहते हैं कि वे आध्यात्मिक जीवन की ओर कोई ध्यान नहीं देते और कुछ लोग तो निराशावश सभी प्रकार के आध्यात्मिक चिंतनों से क्रुद्ध होकर प्रत्येक वस्तु पर अविश्वास करने लगते हैं। इस अंतिम कोटि के लोग किसी न किसी मादक वस्तु का सहारा लेते हैं और उनके मतिविभ्रम को कभी-कभी आध्यात्मिक दृष्टि मान लिया जाता है।

मनुष्य को भौतिक-जगत् के प्रति आसक्ति की तीनों अवस्थाओं से छुटकारा पाना होता है- ये हैं आध्यात्मिक जीवन की उपेक्षा, आध्यात्मिक साकार रूप का भय तथा जीवन की हताशा से उत्पन्न शून्यवाद की कल्पना। जीवन की इन तीनों अवस्थाओं से छुटकारा पाने के लिए प्रामाणिक गुरु के निर्देशन में भगवान की शरण ग्रहण करना और भक्तिमय जीवन के नियम तथा विधि- विधानों का पालन करना आवश्यक है। जीवन की अंतिम अवस्था भाव या दिव्य ईश्वरीय प्रेम कहलाती है।

भक्तिरसामृतसिन्धु के अनुसार (1.4.15-16) भक्ति का विज्ञान इस प्रकार है :

आदौ श्रद्धा तत: साधुसंगोऽथ भजनक्रिया

ततोऽनर्थनिवृति: स्यात्ततो निष्ठा रुचिस्तत:।

अथासक्तिस्ततो भावस्तत: प्रेमाभ्युदञ्चति

साधकानामयं प्रेम्ण: प्रादुर्भावे भवेत्क्रम:॥

‘‘प्रारम्भ में आत्म-साक्षात्कार की सामान्य इच्छा होनी चाहिए। इससे मनुष्य ऐसे व्यक्तियों की संगति करने का प्रयास करता है, जो आध्यात्मिक दृष्टि से उठे हुए हैं। अगली अवस्था में गुरु से दीक्षित होकर नवदीक्षित भक्त उसके आदेशानुसार भक्तियोग प्रारम्भ करता है। इस प्रकार सद्गुरु के निर्देश में भक्ति करते हुए वह समस्त भौतिक आसक्ति से मुक्त हो जाता है। उसके आत्म-साक्षात्कार में स्थिरता आती है और वह श्रीभगवान कृष्ण के विषय में श्रवण करने के लिए रुचि विकसित करता है। इस रुचि से आगे चलकर कृष्णभावनामृत में आसक्ति उत्पन्न होती है जो भाव में अथवा भगवत्प्रेम के प्रथम सोपान में परिपक्व होती है। ईश्वर के प्रति प्रेम ही जीवन की सार्थकता है।’’

प्रेम-अवस्था में भक्त भगवान की दिव्य प्रेमाभक्ति में निरंतर लीन रहता है। अत: भक्ति की मंद विधि से प्रामाणिक गुरु के निर्देश में सर्वोच्च अवस्था प्राप्त की जा सकती है और समस्त भौतिक आसक्ति व्यक्तिगत आध्यात्मिक स्वरूप के भय तथा शून्यवाद से उत्पन्न हताशा से मुक्त हुआ जा सकता है तभी मनुष्य को अंत में भगवान के धाम की प्राप्ति हो सकती है।     

  (क्रमश:)  

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