ऋग्वेद के जीवन उपयोगी कुछ महत्वपूर्ण संदेश, चमका सकते हैं किस्मत

punjabkesari.in Saturday, Oct 22, 2016 - 01:40 PM (IST)

ॐ वाड: मे मनसि प्रतिष्ठिता मनो मे वाचि प्रतिष्ठतमाविरावीर्प एधि वेदस्य म आणीस्थ: श्रतुं मे मा प्रहासी:। अनेनाधीतेनाहोरात्रान्संद धाम्पृतं वदिष्यामि। सत्यं वदिष्यामि तन्मामवतु! तद वक्तारमवतु अवतु मामवतु वक्तारमवतु वक्तारम्। ॐ  शान्ति: शान्ति: शान्ति:।।    —शांतिपाठ


हे परमेश्वर! मेरी वाणी मन में और मन वाणी में स्थित हो। आप मेरे समक्ष प्रकट हों। हे प्रभो, मुझे ज्ञान दें। मेरा ज्ञान कभी भी क्षीण न हो, मैं अनवरत अध्ययन में संलग्र रहूं। मैं सदा सत्य और श्रेष्ठ शब्दों का ही उच्चारण करूं। परमात्मा मेरी रक्षा करें। मेरे आध्यात्मिक, भौतिक और दैविक ताप शांत हों।
जातो जायते सुदिनत्वे अन्हां समर्य आ विदथे वर्धमान:।
पुनन्ति धीरा अपसो मनीषा देवपा विप्र उदर्यित वाचम्।। —3/8/5


जिस व्यक्ति ने इस भूमि पर जीवन धारण किया है वह जीवन को सुंदर बनाने के लिए ही उत्पन्न हुआ है। वह जीवन संग्राम में लक्ष्य-साधन के लिए अध्यवसाय करता है। धीर व्यक्ति अपनी मनन शक्ति के द्वारा अपने कर्मों को पवित्र करते हैं और विप्रजन दिव्य भावना से वाणी का उच्चारण करते हैं।
स हि सत्यो यं पूर्वे चिद् देवारुचिद्यमीधिरे।
होतारं मंद्रजिह्वमित् सुदीतिर्भिवभावसुम्।। —5/25/2/


जो उज्ज्वल है, वाणी को प्रसन्न करने वाला है और पूर्व काल में हुए विद्वत्गण जिसे उज्ज्वल प्रकाश से प्रकाशित करते हैं वही सत्य है।
जानन्ति वृष्णो अरुषव्य सेवमुत ब्रधनस्य शासने रणन्ति।
दिवोसचि: सुसचो रोचमाना इला येषां गण्या माहिना गी:।।    —3/7/5


जिनकी वाणी महिमा के कारण सम्माननीय और प्रशंसनीय है वे ही सुख की वर्षा करने वाले अहिंसारूपी धन का ज्ञान रखते हैं। ऐसे महापुरुष ही महत् के शासन में आनंद प्राप्त करते हैं और सदैव दिव्य कांति से दैदीप्यमान होते हैं।
सुविज्ञानं चिकितुषे जनाय सच्चासच्च वचसी यस्पृधाते।
तयोर्यत् सत्यं चतरहजीयस्तदित् सोमोऽवति हंत्यासत्।।    —7/104/12


जो लोग श्रेष्ठतम ज्ञान की खोज करने वाले हैं उनके सामने सत्य और असत्य दोनों प्रकार के वचन परस्पर स्पर्धा करते हुए उपस्थित होते हैं। इन दोनों में जो सत्य है वह अधिक सरस है। जो शांति की कामना करता है वह व्यक्ति सत्य को चुन लेता है और असत्य का परित्याग कर देता है।
सा मा सत्योक्ति: परपिातु विश्वतो द्यावा च यत्र ततनन्नहानि च।
विश्वमन्यात्रि विशते यदेजति विश्वदापो विश्वाहोदेति सूर्य:।। —10/37/2


जिस सत्य के द्वारा दिन और रात्रि का सभी दिशाओं में विस्तार होता है जिसके कारण यह समस्त विश्व अन्य में  समाहित होता है जिसकी प्रेरणा से सूर्य उदित होता है एवं निरंतर जल बहता रहता है वह सत्य कथन सभी ओर से मेरी रक्षा करे।
यस्तित्याज सचिविदं सखायं न तस्य वाच्यापि भागो अस्ति।
यदी शृणोत्यलकं शृणोति नहि प्रवेद सुकृतस्य पंथाम्।। —10/117/3


जो मनुष्य सत्य-ज्ञान का उपदेश देने वाले मित्र का परित्याग कर देता है। उसके परम हितकारी वचनों को नहीं सुनता वह जो कुछ भी सुनता है वह सदैव मिथ्या ही सुनता है। वह सदैव सत्य कार्य के मार्ग से अनभिज्ञ ही रहता है।
स इद्भोजो यो गृहवे ददात्यञ्नकामाय चरते कुशाय।
अरमस्मै भवति यापहूता उतारपरीषु कृणुते सखायाम्। —10/117/3


अन्न की कामना करने वाले निर्धन याचक को जो अन्न देता है वही सार्थक रूप से भोजन करता है। ऐसे व्यक्ति के पास सदैव पर्याप्त अन्न रहता है और समय पडऩे पर बुलाने से अनेक मित्र उसकी सहायता के लिए तत्पर रहते हैं।
पृणीयादिन्नाधामायाय तव्यान् द्राघीयांसमनु पश्येत पंथानम्।    —10/117/5


मनुष्यों को चाहिए कि वे अपने सामने जीवन के दीर्घ पथ को देखें और याचना करने वालों को दान देकर उन्हें सुख प्रदान करें।
ये अग्ने नेरयंति ते वृद्धा उग्रस्य शवस:।
अय द्वेषो अप ह्वरो ऽन्यव्रतस्य सश्चि रे।।    —5/20/2


जो किसी भी अवस्था में विचलित नहीं होते और अति प्रबल नास्तिकता की द्वेष भावना एवं उसकी कुटिलता को दूर करते हैं वस्तुत: वही ‘वृद्ध’ हैं।
श्रद्धयाग्नि: समिघ्यते श्रद्धया दूयते हवि:।
श्रद्धां भगस्य मूर्धनिवसया वेदयामसि।।    —10/151/1


श्रद्धा से ही अग्नि को प्रज्वलित किया जाता है। श्रद्धा से ही हवन में आहूति दी जाती है। हम सभी प्रशंसापूर्ण वचनों से श्रद्धा को श्रेष्ठ ऐश्वर्य मानते हैं।
सुसेत्रिया सुगातुया वसूया च यजामहे।
अप: न शोशुचदद्यम्।।    —1/97/2


 हे सुशोभने! क्षेत्र के लिए, संन्मार्ग के लिए एवं ऐश्वर्य को प्राप्त करने के लिए हम आपका चयन करते हैं। आपकी कृपा से हमारा पाप विनष्ट हो।
स न: सिंघुमिव नावयाति पर्षा स्वस्तये।
अप: न: शोशुचदघम्।।


जिस प्रकार सागर को नौका द्वारा पार किया जाता है; वैसे ही परमात्मा हमारा कल्याण करने के लिए हमें संसार सागर से पार ले जाए। हमारा पाप विनष्ट हो।
अपि पंथामगन्महि स्वस्तिगामनेहसम्।
येन विश्वा: परि द्विषो वृणक्ति विन्दते वसु।।—6/51/16


 हम उस कल्याणकारी और निष्पाप मार्ग का अनुसरण करें जिससे मनुष्य समस्त द्वेष भावनाओं का परित्याग कर देता है और दिव्य सम्पत्ति को प्राप्त करता है।
शं नो देवा विश्वेदेवा भवतुं शं सरस्वती सह धीभिरस्तु।     —7/35/19


 समस्त देवगण हमारा कल्याण करने वाले हों। बुद्धि प्रदान करने वाली देवी सरस्वती भी हमारा कल्याण करें।
त्वम् हि न: पिता वसो त्वम् माता शतक्रतो बभूविश।।
अधा ते सुम्रमीमहे।।    —8/98/11


 हे आश्रयदाता! तुम ही हमारे पिता हो। हे शतक्रतु तुम हमारी माता हो। हे प्रभु! हम तुमसे कल्याण की कामना करते हैं।
भद्रम् नो अपि वातय मनो दक्षमतु क्रतुम्।    —10/25/1


 हे परमेश्वर! आप हमें कल्याणकारक मन, कल्याण करने की शक्ति और कल्याणकारक कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करें।


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