ध्यान, ज्ञान अथवा भक्ति मार्ग पर चलने के लिए जरूरी है ब्रह्मचर्य व्रत का पालन

Wednesday, Oct 19, 2016 - 01:09 PM (IST)

जीवन का उद्देश्य 

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद अध्याय छह ध्यानयोग

समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिर:।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ।।13।। 

प्रशान्तात्मा विगतभीब्र्रह्मचारिव्रते स्थित:।
मन: संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत  मत्पर:।।14।।


शब्दार्थ : समम्—सीधा; काय—शरीर; शिर:—सिर; ग्रीवम्—तथा गर्दन को; धारयन्—रखते हुए; अचलम्—अचल; स्थिर:—शांत; सम्प्रेक्ष्य—देखकर; नासिका—नाक के; अग्रम्—अग्रभाग को; स्वम्—अपनी; दिश:—सभी दिशाओं में; च—भी; अनवलोकयन्—न देखते हुए; प्रशांत—अविचलित; आत्मा—मन; विगत-भी:—भय  से रहित; ब्रह्मचारी-व्रते—ब्रह्मचर्य व्रत में; स्थित:—स्थित; मन:—मन; संयम्य—पूर्णतया दमित करके; मत्—मुझ (कृष्ण) में; चित्त:—मन को केंद्रित करते हुए; युक्त: —वास्तविक योगी; आसीत—बैठे; मत—मुझमें; पर:—चरम लक्ष्य।


अनुवाद : योगाभ्यास करने वाले को चाहिए कि वह अपने शरीर, गर्दन तथा सिर को सीधा रखे और नाक के अगले सिरे पर दृष्टि लगाए। इस प्रकार वह अविचलित तथा दमित मन से, भयरहित, विषयी जीवन से पूर्णत: मुक्त होकर अपने हृदय में मेरा चिंतन करे और मुझे ही अपना चरम लक्ष्य बनाए।


तात्पर्य : जीवन का उद्देश्य कृष्ण को जानना है जो प्रत्येक जीव के हृदय में चतुर्भुज परमात्मा रूप में स्थित हैं। योगाभ्यास का प्रयोजन विष्णु के इसी अंतर्यामी रूप की खोज करने तथा देखने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। अंतर्यामी विष्णु मूर्त प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में निवास करने वाले कृष्ण का स्वांश रूप है। 


जो प्राणी इस विष्णुमूर्ति की अनुभूति करने के अतिरिक्त किसी अन्य कपटयोग में लगा रहता है वह नि:संदेह अपने समय का अपव्यय करता है। कृष्ण ही जीवन के परमलक्ष्य हैं और प्रत्येक हृदय में स्थित विष्णुमूर्ति ही योगाभ्यास का लक्ष्य है। हृदय के भीतर इस विष्णुमूर्त की अनुभूति प्राप्त करने के लिए ब्रह्मचर्यव्रत अनिवार्य है, अत: मनुष्य को चाहिए कि वह घर छोड़ दे और किसी एकांत स्थान में बताई गई विधि से आसीन होकर रहे। उसे मन को संयमित करने का अभ्यास करना होता है और सभी प्रकार की इंद्रिय तृप्ति से जिसमें मैथुन जीवन मुख्य है, बचना होता है। महान ऋषि याज्ञवल्वय ने ब्रह्मचर्य के नियमों में बताया है : 
कर्मणा मनसा वाचा सर्वावस्थासु सर्वदा।
सर्वत्र मैथुनत्यागो ब्रह्मचर्यं प्रचक्षते।।


सभी कालों में सभी अवस्थाओं में तथा सभी स्थानों में मनसा वाचा कर्मणा मैथुन भोग से पूर्णतया दूर रहने में सहायता करना ही ब्रह्मचर्यव्रत का लक्ष्य है।


मैथुन में प्रवृत्त रहकर योगाभ्यास नहीं किया जा सकता। इसीलिए बचपन से ब्रह्मचर्य की शिक्षा दी जाती है, जब मैथुन का कोई ज्ञान भी नहीं होता। पांच वर्ष की आयु में बच्चों को गुरुकुल भेजा जाता है, जहां गुरु उन्हें ब्रह्मचारी बनने के दृढ़ नियमों की शिक्षा देता है। ऐसे अभ्यास के बिना किसी भी योग में उन्नति नहीं की जा सकती चाहे वह ध्यान हो या ज्ञान या भक्ति। किन्तु जो व्यक्ति विवाहित जीवन के विधि-विधानों का पालन करता है और अपनी ही पत्नी से मैथुन संबंध रखता है वह भी ब्रह्मचारी कहलाता है। ऐसे संयमशील गृहस्थ ब्रह्मचारी को भक्ति सम्प्रदाय में स्वीकार किया जा सकता है किन्तु ज्ञान तथा ध्यान सम्प्रदाय वाले ऐसे गृहस्थ ब्रह्मचारी को भी प्रवेश नहीं देते। उनके लिए पूर्ण ब्रह्मचर्य अनिवार्य है। भक्ति सम्प्रदाय में गृहस्थ ब्रह्मचारी को संयमित मैथुन की अनुमति रहती है क्योंकि भक्ति सम्प्रदाय इतना शक्तिशाली है कि भगवान की सेवा में लगे रहने से वह स्वत: मैथुन का आकर्षण त्याग देता है। 


भगवद्गीता में (2.51) कहा गया है : 
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिन:।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्टवा निवर्तते।।


जहां अन्यों को विषयभोग से दूर रहने के लिए बाध्य किया जाता है वहीं भगवद् भक्त भगवद्सास्वादन के कारण इंद्रिय तृप्ति से स्वत: विरक्त हो जाता है। भक्त को छोड़कर अन्य किसी को इस अनुपम रस का ज्ञान नहीं है।


विगत भी : पूर्ण कृष्णभावनाभावित हुए बिना मनुष्य निर्भय नहीं हो सकता। बद्धजीव अपनी विकृत स्मृति अथवा श्री कृष्ण के साथ अपने शाश्वत संबंध की विस्मृति के कारण भयभीत रहता है। 


भागवत का (11.2.37) कथन है- भयं द्वितीयाभिनिवेशत: स्याद् ईशादपेतस्य विपर्ययोऽस्मृति:।


कृष्णभावनाभावित व्यक्ति ही योग का पूर्ण अभ्यास कर सकता है और चूंकि योगाभ्यास का चरम लक्ष्य अंत:करण में भगवान का दर्शन पाना है, अत: कृष्णभावनाभावित व्यक्ति पहले ही समस्त योगियों में श्रेष्ठ होता है। यहां वर्णित योगविधि के नियम लोकप्रिय तथाकथित योग समितियों से भिन्न हैं।     


(क्रमश:)

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