जीवन यात्रा इनके साथ करें तय, अन्यथा निरंतर मौत रूपी मंजिल की ओर बढ़ेंगे

Wednesday, May 18, 2016 - 03:10 PM (IST)

जीवन में किसी आत्मज्ञानी संत का मिलना और उसके सान्निध्य में सत्य ज्ञान का हम पर अवतरित होना ऊंची से भी और ऊंची अनमोल घटना है क्योंकि हम भी एक बीज हैं। गुरु के बिना यात्रा निरंतर मौत रूपी मंजिल की ओर बढ़ती जाती है जबकि गुरु संग साधक होकर सिद्धि प्राप्त करने के मार्ग खुलने लगते हैं। इसलिए कहा गया है कि :

 

‘‘उसने जड़ी सुनाम दे, हरे जन्म के रोग।

 संशय भ्रान्ति दूर कर, हरे मरण के सोग।।’’

 

सत्गुरु नाम की दीक्षा देने से पहले हमें तैयार करता है, वह हमारे भय भ्रमों को दूर कर ईश्वर का परम विश्वासी बनाता है। वह मांगों-शिकायतों से मुक्त कर हम में ईश्वर के प्रति श्रद्धा पैदा करता है। वह विचार शून्य कर हमें संसार के बंधनों से मुक्त करता है। वह हमें इतना खाली करता है कि मन  हृदय में बदल जाए, बुद्धि विवेक में बदल जाए और अहंकार परमात्मा के एहसास और चिंतन से भर जाए। वह हमें इतना तैयार कर देता है कि जन-जन में हमें परमात्मा की ही जोत दिखाई देने लगे, हमारे सभी भेद, भ्रांतियां गिर जाएं, हमारी सारी बाहरी भक्ति की क्रियाओं को विश्राम मिल जाए और आध्यात्मिक यात्रा अंतर्मुख होने लगे।

 

इस तरह निर्मल, पवित्र, कोरे हो चुके हमारे मन में ईश्वर का मधुर नाम भर कर सत्गुरु हमें जीवन के बंधनों, दुखों, रोगों, उलझनों से मुक्त होने का मार्ग प्रशस्त कर देता है और ईश्वर का परम विश्वासी बना कर, सभी तृष्णाओं से मुक्त करके वह आवागमन से मुक्त होने में भी समर्थवान बनाने में हमारी मदद करता है। वह परमात्मा में परम विश्राम दिलाने में हमारा पथ प्रदर्शक, परम सहायक हो जाता है।

अत: आज ईश्वर से यही प्रार्थना करनी है कि : 

 

‘‘उसके दर्श स्पर्श से, कर संगति  संलाप।

तन मन निर्मल मैं करूं, मंगल मान मिलाप।।’’

 

सत्गुरु अपनी दृष्टि, वाणी  और स्पर्श से जो ज्ञान का सागर बहाता है, मैं उसमें गोते लगाता हुआ स्नान करूं, मैं उसमें अपने तन और मन को निर्मल करूं, मैं सत्गुरु की निरंतर बरसती कृपा से अपनी श्रद्धा की रगड़ लगाऊं ताकि मुझमें भक्ति रूपी दीपक जल सके और मैं कल्याण के रास्ते पर आगे बढ़ सकूं।

 

जैसे मिट्टी का दीया तो धरती का है, मृणमय है, एक दिन मिट्टी में ही समाएगा लेकिन उसमें ज्योति परमात्मा ही है, चिन्मय है, निरंतर ऊपर आकाश की ओर ही उठती है ऐसे ही यह शरीर तो एक दिन मिट्टी में मिलेगा ही परंतु इस शरीर के भीतर जो आत्मारूपी ज्योति है उसे हम मन के बंधनों से मुक्त करके परम ज्योति में विलीन होने का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं और इस तरह आवागमन से मुक्त होकर सदा-सदा के लिए जन्म-मरण के अपार दुखों-रोगों से बच सकते हैं। ऐसा समर्थवान सत्गुरु हमें मिल सके, इसके लिए ईश्वर से प्रार्थना करते रहना होगा कि : 

 

‘‘अपने जन का मेल दे, राम नाम का मेल।

पावन कार्य मेल दे, अपनी लीला खेल।।’’

 

हे ईश्वर! अपने भेजे हुए दूत ऐसे संत से मिलाप कराओ जो तेरे प्रेम, श्रद्धा, करुणा दया के रंग में रंगा हुआ हो, जो तेरे बगीचे की सुगंध से महक रहा हो, जिस में से तू झांकता हुआ दिख रहा हो और जिसकी श्वास-श्वास, धड़कन-धड़कन तुमसे उसी प्रकार जुड़ी हुई हो जैसे सूर्य की किरणें सूर्य से जुड़ी रहती हैं।

 

हे ईश्वर! ऐसे संत के संग में नाम का स्मरण करता हुआ मैं तुम नामी को पाऊं, तेरी तरह स्वार्थ से रहित पवित्र निष्काम कार्य करूं और इस तरह तेरी लीला के खेल में सहायक बनूं।

 

—जतिंद्र कोहली

 
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