श्री गीता जयंती: भगवान का सर्वाधिक प्रिय दिन

Monday, Dec 21, 2015 - 10:17 AM (IST)

मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष मोक्षदा एकादशी पर विशेष 

प्रात: काल की बेला है, धर्म क्षेत्र कुरुक्षेत्र में कौरवों एवं पांडवों की सेनाएं अपने-अपने योद्धाओं सहित एक-दूसरे के समक्ष खड़ी हैं। अर्जुन अपने गांडीव सहित रथ पर सवार हैं तथा उनके सारथी बने हैं। जगत पिता, परात्पर ब्रह्म एवं सर्वलोकाध्यक्ष आनंदकंद भगवान श्री कृष्ण। अर्जुन ने जब अपने समक्ष अपने ही सगे संबंधियों को युद्ध के लिए तत्पर देखा तो उनके मन में यह विचार आया कि अपने इन सगे संबंधियों को मार कर जो उन्हें पाप लगेगा, यह सबसे बड़ा अधर्म होगा। वह बोले कि इस रणभूमि में वह किस प्रकार बाणों से भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के विरुद्ध लड़ेेंगे क्योंकि वे दोनों ही पूजनीय हैं।
 
तब श्री भगवान बोले कि, ‘‘हे अर्जुन! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु प्राप्त हुआ है न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है और न ही र्कीत प्रदान करने वाला है। इसलिए तुम हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्याग  कर युद्ध के लिए खड़े हो जाओ।
भगवान ने यहां अर्जुन को यह भाव स्पष्ट किया कि पाप और अधर्म तो तब होगा यदि तुम अपने कर्तव्य कर्म का परित्याग कर दोगे, क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है। 
 
तब भगवान श्री कृष्ण से अर्जुन  कर्तव्य रूपी धर्म के विषय में जो श्रेष्ठ व निश्चित साधन हो, के संबंध में पूछते हैं और कहते हैं, ‘‘हे केशव, मैं आपका शिष्य हूं, आपकी शरण में आया हूं। आप मुझे  ज्ञान दीजिए।’’
 
तब समस्त जगत के परम आश्रय श्री हरि गोबिंद भगवान ने निष्काम कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञान योग, वैराग्य इत्यादि तत्वों का विवेचन करते हुए समस्त वेदों तथा उपनिषदों के सारगर्भित ज्ञान से अर्जुन को अवगत कराया। वह ज्ञान श्रीमद् भगवद गीता के नाम से जगत प्रसिद्ध हुआ और जिस दिन श्री भगवान ने अर्जुन को उपदेश दिया, वह दिन मार्गशीर्ष मास की शुक्ल पक्ष की मोक्षदा एकादशी का था। भगवान द्वारा प्रदत्त यह ज्ञान सम्पूर्ण मानव जाति के कल्याण के लिए है। जिन वेद तथा उपनिषदों के तात्पर्य को समझ पाना अत्यंत दुष्कर माना जाता था, उसे गोविंद भगवान ने सहज ही समझा दिया।
 
श्रीमद् भगवद गीता में भगवान श्री कृष्ण जी ने मानवीय कर्तव्यों को धर्म के रूप में परिभाषित किया है। वेदों के तात्पर्य को महामुनि वेदव्यास जी ने सरल भाषा में ‘महाभारत’ में बताया जिसे पंचम वेद भी कहा जाता है, महाभारत से जो अमृत निकला, वह श्रीमद् भागवद् गीता है जिसका प्राकट्य स्वयं भगवान विष्णु जी के मुखारविंद से हुआ है। आज सभी वेद, पुराण, उपनिषदादि ग्रंथ तथा समस्त तीर्थ भगवद्गीता जी में निवास करते हैं। भगवद् गीता जी में अठारह योग हैं। इसके संबंध में भगवान कहते हैं : 

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वपनावबोधस्य योगो भवति दु:खहा।।
 
दुखों का नाश करने वाला यह योग तो यथा योग्य आहार-विहार करने वाले का, कर्मों में यथा योग्य चेष्टा करने वाले का और यथायोग्य सोने तथा जागने वाले का ही सिद्ध होता है। 
 
भगवान कर्मयोग के विषय में कहते हैं :
‘‘योगस्थ:कुरु कर्माणि संग त्यक्तवा धनंजय। सिद्धसिद्धयो:समो भूत्त्वा समत्वं योग उच्यते।’’
 
हे धनंजय! तू आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान भाव वाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्य कर्मों को कर। यही समत्व योग कहलाता है। ज्ञान योग का आश्रय लेकर कर्तव्य कर्मों को करना ही बुद्धियोग है। इसलिए हे अर्जुन, ‘‘बुद्धौ  श रणमन्विच्छ कृपणा: फलहेतव:।’’  
 
फल के हेतु बनने वाले अर्थात सकाम कर्म करने वाले अत्यंत दीन होते हैं इसलिए तुम बुद्धियोग अर्थात निष्काम कर्मयोग का आश्रय ग्रहण करो।
 
अर्जुन ने भगवान से पूछा कि, प्रभु ज्ञान योग और निष्काम कर्मयोग, दोनों में श्रेष्ठ क्या है?’’ 
 
भगवान इसके प्रत्युत्तर में कहते हैं कि ये दोनों अलग-अलग नहीं हैं। ‘‘ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङग त्यक्तवा करोति य:। लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा।’’
 
जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके और आसक्ति को त्याग कर कर्म करता है, वह पुरुष जल से कमल के पत्ते की भांति पाप से लिप्त नहीं होता। वास्तव में धर्म पर चलने वाला धर्मात्मा पुरुष पाप एवं अधर्म के कार्य करने से डरता है। अर्जुन के मन में यही द्वंद्व चल रहा था कि उसे युद्ध करना चाहिए अथवा नहीं। अर्जुन को निर्णय-अनिर्णय की स्थिति से निकाल कर भगवान ने उसे निश्चयात्मक बुद्धि प्रदान की।
 
भगवान श्री कृष्ण ने श्री गीता जी में अपनी शरण को ही सब ग्रंथों का सार बताया। 
‘‘जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये। ते ब्रह्म तद्विदु: कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चारिवलम्।।’’
 
जो मेरी शरण होकर जरा और मरण से छूटने के लिए यत्न करते हैं वे पुरुष उस ब्रह्म को, सम्पूर्ण अध्यात्म को तथा सम्पूर्ण कर्म को जानते हैं। भगवान कहते हैं कि मेरे इस श्री गीता ज्ञान को मुझमें परम प्रेम करके जो मेरे भक्तों में कहेगा, उससे बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई नहीं और भविष्य में होगा भी नहीं। इसलिए श्री गीता जयंती पर्व भगवान को सर्वाधिक प्रिय है इस दिन भक्तजन श्री गीता जी का पूजन करते हैं और श्री गीता जी को पालकी में सजा कर पवित्र शोभा यात्रा का आयोजन करते हैं।
 
इस प्रकार भगवद् आज्ञा के अनुसार भगवान श्री कृष्ण श्री गीता ज्ञान से पूजित होते हैं। भगवान स्वयं कहते हैं कि जो मनुष्य श्रद्धायुक्त और दोषदृष्टि से रहित होकर श्री गीता शास्त्र का श्रवण भी करेगा, वह भी पापों से मुक्त होकर उत्तम कर्म करने वालों के श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त होगा।  भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को अपने विश्वरूप के दर्शन कराए और कहा कि समस्त ब्रह्मांड तथा सृष्टियां मुझमें ही स्थित हैं। मैं वासुदेव ही सबकी उत्पत्ति का कारण हूं। मैं तो केवल भक्तों के प्रेमवश धर्म की स्थापना, साधु पुरुषों के उद्धार तथा दुष्कर्म करने वालों के विनाश के लिए युग-युग में प्रकट होता हूं। भगवान अपनी योग माया के एक अंश मात्र से सम्पूर्ण ब्रह्मांड को धारण करते हैं।
 
यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर:। तत्र श्रीर्वजयो भूति र्धुवा नीतिर्मतिर्मम।। 
 
जहां योगेश्वर भगवान श्री कृष्ण हैं और जहां गांडीव धनुषधारी अर्जुन हैं वहीं पर श्री अर्थात ऐश्वर्य, विजय, विभूति और अचल नीति है ऐसा मेरा मत है। 
 
—रवि शंकर शर्मा (जालंधर)

 

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