श्रीमद्भगवद्गीता: परमात्मा साकार है या निराकार

punjabkesari.in Saturday, May 28, 2016 - 11:48 AM (IST)

परमात्मा साकार है या निराकार, इस पर सामान्य विवाद चलता है। जहां तक श्रीमद् भगवद् गीता का प्रश्न है, परम सत्य तो श्रीभगवान श्रीकृष्ण हैं और इसकी पुष्टि पद-पद पर होती है। 
 
 
मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जया
मयी सर्वमिदं प्रोत सूत्रे मणिगणा इव॥ (श्रीगीता - 7/7)
 
 
इस श्लोक में विशेष रूप से बल है कि परम सत्य पुरुष रूप है। इस बात की कि भगवान ही परमसत्य हैं, ब्रह्मसंहिता में भी पुष्टि हुई है-
 ईश्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानन्द विग्रह: - परमसत्य श्रीभगवान कृष्ण ही हैं, जो आदि भगवान हैं। 
 
 
 
समस्त आनंद के आगार श्री गोविंद हैं और सच्चिदानंद स्वरूप हैं। ये सब प्रमाण निर्विवाद रूप से प्रमाणित करते हैं कि परम सत्य परमपुरुष हैं जो समस्त कारणों के कारण हैं। फिर भी निरीश्वरवादी श्वेताश्वतर उपनिषद् में (3/10) उपलब्ध वैदिक मंत्र के आधार पर तर्क करते हैं-
 
ततो यदुत्तरतरं तदरूपमनामयं।
य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्त्यथेतरे दुःखमेवापियन्ति॥
 
 
अर्थात् भौतिक जगत् में ब्रह्माण्ड के आदि जीव ब्रह्मा को देवताओं, मनुष्यों तथा निम्न प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। किंतु ब्रह्मा के परे एक इन्द्रियातीत ब्रह्म है जिसका कोई भौतिक स्वरूप नहीं होता और जो समस्त भौतिक कल्मष से रहित होता है। जो व्यक्ति उसे जान लेता है वह भी दिव्य बन जाता है, किंतु जो उसे नहीं जान पाते, वे सांसारिक दुःखों को भोगते रहते हैं।
 
 
 
निर्विशेषवादी अरूपम् शब्द पर विशेष बल देते हैं। किंतु यह अरूपम् शब्द निराकार नहीं है। यह दिव्य सच्चिदानंद स्वरूप का सूचक है, जैसा कि ब्रह्म संहिता में वर्णित है और ऊपर उद्धृत है। श्वेताश्वतर उपनिषद् के अन्य श्लोक (3/8-9) भी इसकी पुष्टि करते हैं-
 
 
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्।
तमेव विद्वानति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय आआ
यस्मात्परं नापरमस्ति किञ्चिद् यस्मान्नणीयो नो ज्यायोऽस्ति किञ्चित्।
वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येकस्तेनेदं पूर्णं पुरुषेण सर्वम्॥
 
 
''मैं उन भगवान् को जानता हूं जो अंधकार की समस्त भौतिक अनुभूतियों से परे हैं। उनको जानने वाला ही जन्म तथा मृत्यु के बंधन का उल्लंघन कर सकता है। उस परमपुरुष के इस ज्ञान के अतिरिक्त मोक्ष का कोई अन्य साधन नहीं है। ''
 
 
 
''उन परमपुरुष से बढ़कर कोई सत्य नहीं क्योंकि वे श्रेष्ठतम हैं। वे सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर हैं और महान् से भी महान्तर हैं। वे मूक वृक्ष के समान स्थित हैं और दिव्य आकाश को प्रकाशित करते हैं। जिस प्रकार वृक्ष अपनी जड़ें फैलाता है, वे भी अपनी विस्तृत शक्तियों का प्रसार करते हैंं।''
 
 
इन श्लोकों से निष्कर्ष निकलता है कि परमसत्य ही श्रीभगवान हैं, जो अपनी विविध परा-अपरा शक्तियों के द्वारा सर्वव्यापी हैं। 
 
 
ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च॥ (श्रीगीता 14/27)


अर्थात्, भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- ''मैं ही उस निराकार ब्रह्म का आश्रय हूं, जो अमर्त्य, अविनाशी तथा शाश्वत हैं, और चरम सुख का स्वाभाविक पद हैं।''
 
 
 
परमात्मा साकार है या निराकार, इस पर सामान्य विवाद चलता है। जहां तक श्रीमद् भगवद् गीता का प्रश्न है, परम सत्य तो श्रीभगवान श्रीकृष्ण हैं और इसकी पुष्टि पद-पद पर होती है। 
 

मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जया
मयी सर्वमिदं प्रोत सूत्रे मणिगणा इव॥ (श्रीगीता - 7/7)
 
 
इस श्लोक में विशेष रूप से बल है कि परम सत्य पुरुष रूप है। इस बात की कि भगवान ही परमसत्य हैं, ब्रह्मसंहिता में भी पुष्टि हुई है-
 ईश्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानन्द विग्रह: - परमसत्य श्रीभगवान कृष्ण ही हैं, जो आदि भगवान हैं। 
 
 
 
समस्त आनंद के आगार श्री गोविंद हैं और सच्चिदानंद स्वरूप हैं। ये सब प्रमाण निर्विवाद रूप से प्रमाणित करते हैं कि परम सत्य परमपुरुष हैं जो समस्त कारणों के कारण हैं। फिर भी निरीश्वरवादी श्वेताश्वतर उपनिषद् में (3/10) उपलब्ध वैदिक मंत्र के आधार पर तर्क करते हैं-
 
ततो यदुत्तरतरं तदरूपमनामयं।
 य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्त्यथेतरे दुःखमेवापियन्ति॥
 
 
अर्थात् भौतिक जगत् में ब्रह्माण्ड के आदि जीव ब्रह्मा को देवताओं, मनुष्यों तथा निम्न प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। किंतु ब्रह्मा के परे एक इन्द्रियातीत ब्रह्म है जिसका कोई भौतिक स्वरूप नहीं होता और जो समस्त भौतिक कल्मष से रहित होता है। जो व्यक्ति उसे जान लेता है वह भी दिव्य बन जाता है, किंतु जो उसे नहीं जान पाते, वे सांसारिक दुःखों को भोगते रहते हैं।
 
 
 
निर्विशेषवादी अरूपम् शब्द पर विशेष बल देते हैं। किंतु यह अरूपम् शब्द निराकार नहीं है। यह दिव्य सच्चिदानंद स्वरूप का सूचक है, जैसा कि ब्रह्म संहिता में वर्णित है और ऊपर उद्धृत है। श्वेताश्वतर उपनिषद् के अन्य श्लोक (3/8-9) भी इसकी पुष्टि करते हैं-
 
 
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्।
तमेव विद्वानति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय आआ
यस्मात्परं नापरमस्ति किञ्चिद् यस्मान्नणीयो नो ज्यायोऽस्ति किञ्चित्।
वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येकस्तेनेदं पूर्णं पुरुषेण सर्वम्॥
 
 
''मैं उन भगवान् को जानता हूं जो अंधकार की समस्त भौतिक अनुभूतियों से परे हैं। उनको जानने वाला ही जन्म तथा मृत्यु के बंधन का उल्लंघन कर सकता है। उस परमपुरुष के इस ज्ञान के अतिरिक्त मोक्ष का कोई अन्य साधन नहीं है। ''
 
 
 
''उन परमपुरुष से बढ़कर कोई सत्य नहीं क्योंकि वे श्रेष्ठतम हैं। वे सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर हैं और महान् से भी महान्तर हैं। वे मूक वृक्ष के समान स्थित हैं और दिव्य आकाश को प्रकाशित करते हैं। जिस प्रकार वृक्ष अपनी जड़ें फैलाता है, वे भी अपनी विस्तृत शक्तियों का प्रसार करते हैंं।''
 
 
इन श्लोकों से निष्कर्ष निकलता है कि परमसत्य ही श्रीभगवान हैं, जो अपनी विविध परा-अपरा शक्तियों के द्वारा सर्वव्यापी हैं। 
 
 
ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च॥ (श्रीगीता 14/27)
 
 
अर्थात्, भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- ''मैं ही उस निराकार ब्रह्म का आश्रय हूं, जो अमर्त्य, अविनाशी तथा शाश्वत हैं, और चरम सुख का स्वाभाविक पद हैं।''
 

(इस्कान के संस्थापक आचार्य, श्रील भक्ति वेदान्त स्वामी महाराज जी के लेखों से)

प्रस्तुति
श्री चैतन्य गौड़िया मठ की ओर से
श्री भक्ति विचार विष्णु जी महाराज
bhakti.vichar.vishnu@gmail.com

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