छोटे से प्रभावशाली मंत्र से पाएं बड़े-बड़े लाभ

Tuesday, Aug 04, 2015 - 11:27 AM (IST)

‘‘गायत्री मंत्र की महिमा’’ चारों वेदों में, स्मृति ग्रंथों में उपनिषदों में, महाभारत में, ऋषियों, मुनियों, विद्वान,  आचार्यों ने मुक्त कंठ से गाई है। गायत्री दुखहरणी, पापनाशनी, सुखदायनी, बुद्धि प्रदायनी अनुपम गरिमाशालिनी मंत्र है। जो निम्र प्रकार है-

ओम् भू भुर्व: स्व:। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयात्।।
 
ऋग्वेद मंडल 3, सूक्त 62, मंत्र 10 यजुर्वेद अध्याय 36 मंत्र 3/30 अ. 2/ अध्याय 3-35 सामवेद उत्तरार्थिक 13-3-मंत्र 3
 
यह सुप्रसिद्ध गायत्री मंत्र है। इसकी रचना गायत्री नामक छंद में हुई है। 24 अक्षरों वाला प्रसिद्ध गायत्री मंत्र वैैदिक मंत्रों में उच्चतम स्थान रखता है। वेद में गायत्री छंद के मंत्र और भी अनेक हैं परन्तु ऋषियों ने इस मंत्र की विशेषता के कारण दैनिक उपासना के लिए गायत्री मंत्र का विशेष रूप से विधान किया है। इस मंत्र का देवता ‘ सविता’ से संबंध होने के कारण इसका नाम ‘‘सावित्री-मंत्र’’ भी है। इसका महात्म्य, प्रभाव, बड़प्पन, ऊंचा होने के कारण इसको ‘गुरुमंत्र’,  ‘महामंत्र’ नाम से भी जाना जाता है। मंत्र में यद्यपि 23 अक्षर हैं परन्तु सर्वप्रथम ‘ओम्’ रहता है इसलिए 24 अक्षर हो जाते हैं। कुछ आचार्य ‘ओम्’ के बिना मंत्र का महत्व नहीं मानते। इसलिए गायत्री मंत्र का आरंभ ‘ओम्’ के उच्चारण के साथ ही करते हैं।
 
गायत्री मंत्र में तीन व्याहृति-गायत्री मंत्र के आरंभ में ‘भू: भुव: स्व:’ ये तीन पद व्याहृति, ईश्वर के अनेक विशेष गुणों, भावों के प्रत्येक पद कहे जाते हैं। वह ओम् परमात्मा ‘भू:’ स्वयं भू सत्ता वाला है। प्राणों का रक्षक है। उसे किसी ने नहीं बनाया है। उसका कोई कारण नहीं है। परमात्मा ‘भुव:’ है। दुख विनाशक है। सृष्टि को बनाने वाला है। चेतन स्वरूप है। परमात्मा ‘स्व:’ सुखस्वरूप है। आनंद का भंडार है। उसकी सत्ता में दुख का लेशमात्र भी स्थान नहीं है।
 
गायत्री का प्रथम पद ओम्-गायत्री मंत्र का सबसे प्रथम पद ‘ओम्’ है। वह परमात्मा का निज नाम है जो सबसे उत्तम नाम है। ओम् स्वरूप ईश्वर एक ही है। सृष्टिकर्ता है। सबका परम रक्षक है। उस ईश्वर के नाम अनेक हैं। जिस समय संसार में सर्वत्र विपत्ति और संकट के बादल मंडराते  हैं, ऐसे निराशा भरे वातावरण में वह ओम् स्वरूप, परम रक्षक परमेश्वर ही हमारी रक्षा करते हैं।
 
एतदालम्बनं श्रेष्ठमेतदालम्बनं परम।
एतदालम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्म लोके महीयते।।
 
इस ओम् नाम का सहारा सर्वोत्तम है। इस सहारे को जान लेने से मनुष्य ब्रह्मलोक को प्राप्त कर लेता है।
 
‘तत्सवितुर्वरेण्यम्’- गायत्री मंत्र में भगवान को ‘सविता’ के रूप में वरण करने की, अपनाने की प्रार्थना की गई है जो ‘सविता’ बनकर हमें प्रेरणा देता है। ज्ञान का प्रकाश करता है। समस्त जगत् को उत्पन्न करता है और सबका स्वामी है। समग्र ऐश्वर्य युक्त है। सब दुखों का नाशक है। ऐसे उस सविता देव को हम अपनाएं।
 
‘भर्गो देवस्य धीमहि’- जो परमेश्वर भर्ग: स्वरूप है। जो सर्वश्रेष्ठ, सबसे पवित्र, सबसे अच्छा और तेज स्वरूप है। भगवान के उस उत्तम तेज का, प्रकाश का हम श्रद्धा, भक्ति और एकाग्र भाव से ध्यान करें जो दिव्य गुणों से युक्त, आनंद एक रस तथा सुखों को प्रदान करने वाला परम देवादि महादेव है उसका ही सदा ध्यान करें।
 
‘धियो यो न प्रचोदयात्’- गायत्री मंत्र में भगवान सविता से जो उत्तम बुद्धि का दाता है। परम शुद्ध तेजोमय और पाप को भून डालने वाला है, वरण करने के योग्य है, वह परमेश्वर हमारी बुद्धि को उत्तम मार्ग की ओर प्रेरित करें। हमारी बुद्धि सत्संग, स्वाध्याय, यज्ञ, ईश्वर-चिंतन, परोपकार, सेवा, दान आदि श्रेष्ठ कर्मों में लगे इसलिए कहा गया है-
 
‘विनाशकाले विपरीत बुद्धि’- विपरीत बुद्धि, कु बुद्धि विनाशकारी होती है। तुलसीदास जी ने ठीक कहा है-
 
जहां सुमति तहां सम्पत्ति नाना।
जहां कुमति तहां विपत्ति निधाना।।
 
संसार में यह देखने में आता है कि जहां सुबुद्धि होती है वहां सब कार्य सफल होते हैं। सम्पत्ति बढ़ती है और जहां दुष्ट बुद्धि होती है वहां अशांति कार्यों में विघ्न, असफलता, अवनति, निराशा बनी रहती है। इसलिए मंत्र में उत्तम ‘धी’ बुद्धि के लिए प्रार्थना की गई है इसलिए गायत्री मंत्र बुद्धि-प्रदाता मंत्र भी कहा जाता है।
 
—आचार्य भगवानदेव वेदालंकार ‘वैदिक प्रवक्ता’—
Advertising