‘काम’ की शरण स्थली''

Monday, Mar 02, 2015 - 03:07 PM (IST)

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्।। 40।।


इन्द्रियाणि—इन्द्रियां; मन:—मन; बुद्धि:—बुद्धि; अस्य—इस काम का; अधिष्ठानम्—निवासस्थान; उच्यते—कहा जाता है; एतै:—इन सबों से; विमोहयति—मोहग्रस्त करता है; एष:—यह काम; ज्ञानम्—ज्ञान को; आवृत्य—ढंक कर; देहिनम्—शरीरधारियों का ।

अनुवाद : इन्द्रियां, मन तथा बुद्धि इस काम के निवास स्थान हैं । इनके द्वारा यह काम जीवात्मा के वास्तविक ज्ञान को ढक कर उसे मोहित कर लेता है ।
तात्पर्य : चूंकि शत्रु ने बद्धजीव के शरीर के विभिन्न सामरिक स्थानों पर अपना अधिकार कर लिया है, अत: भगवान कृष्ण उन स्थानों का संकेत कर रहे हैं जिससे शत्रु को जीतने वाला यह जान ले कि शत्रु कहां पर है । मन समस्त इन्द्रियों के कार्यकलापों का केंद्र बिन्दु है, अत: जब हम इन्द्रिय-विषयों के संबंध में सुनते हैं तो मन इन्द्रियतृप्ति के समस्त भावों का आगार बन जाता है । इस तरह मन तथा इन्द्रियां काम की शरणस्थली बन जाती हैं । इसके बाद बुद्धि ऐसी कामपूर्ण रुचियों की राजधानी बन जाती है। बुद्धि आत्मा की निकट पड़ोसन है। काममय बुद्धि से आत्मा प्रभावित होती है जिससे उसमें अहंकार उत्पन्न होता है और वह पदार्थ से तथा इस प्रकार मन तथा इन्द्रियों से अपना तादात्म्य कर लेता है। आत्मा को भौतिक इन्द्रियों का भोग करने की लत पड़ जाती है जिसे वह वास्तविक सुख मान बैठता है।                    
 

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