मनुष्य अपने लिए नियत कर्म करे
punjabkesari.in Tuesday, Jan 27, 2015 - 09:35 AM (IST)

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप
व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद
अध्याय 3 (कर्मयोग)
श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात्। स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:।। 34।।
शब्दार्थ : श्रेयान्—अधिक श्रेयस्कर; स्व-धर्म—अपने नियतकर्म; विगुण:—दोषयुक्त भी; पर-धर्मात्—अन्यों के लिए उल्लिखित कार्यों की अपेक्षा; सु-अनुष्ठितात्—भलीभांति सम्पन्न; स्व-धर्म—अपने नियतकर्मों में; निधनम्—विनाश, मृत्यु; श्रेय—श्रेष्ठतर; पर-धर्म:—अन्यों के नियतकर्म; भय-आवह—खतरनाक, डरावना।
अनुवाद : अपने नित्यकर्मों को दोषपूर्ण ढंग से संपन्न करना भी अन्य के कर्मों को भली भांति करने से श्रेयस्कर है। स्वीय कर्मों को करते हुए मरना पराए कर्मों में प्रवृत्त होने की अपेक्षा श्रेष्ठतर है, क्योंकि अन्य किसी के मार्ग का अनुसरण भयावह होता है।
तात्पर्य : अत: मनुष्य को चाहिए कि वह अन्यों के लिए नियतकर्मों की अपेक्षा अपने नियतकर्मों को कृष्णभावनामृत में करे। भौतिक दृष्टि से नियतकर्म मनुष्य की मनोवैज्ञानिक दशा के अनुसार भौतिक प्रकृति के गुणों के अधीन आदिष्ट कर्म हैं। आध्यात्मिक कर्म, कृष्ण की दिव्यसेवा के लिए गुरु द्वारा आदेशित होते हैं। किंतु चाहे भौतिक कर्म हों या आध्यात्मिक कर्म, मनुष्य को मृत्युपर्यन्त अपने नियतकर्मों में दृढ़ रहना चाहिए।
अन्य के निर्धारित कर्मों का अनुकरण नहीं करना चाहिए। आध्यात्मिक तथा भौतिक स्तरों पर ये कर्म भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, किन्तु कर्ता के लिए किसी प्रामाणिक निर्देशन के पालन का सिद्धांत उत्तम होगा। जब मनुष्य प्रकृति के गुणों के वशीभूत हो तो उसे उस विशेष अवस्था के लिए नियमों का पालन करना चाहिए, उसे अन्यों का अनुकरण नहीं करना चाहिए। (क्रमश:)