एल्गार परिषद मामला : उच्च न्यायालय ने भारद्वाज को जमानत दी, आठ अन्य की अर्जी खारिज की

punjabkesari.in Wednesday, Dec 01, 2021 - 05:59 PM (IST)

मुंबई, एक दिसंबर (भाषा) बंबई उच्च न्यायालय ने एल्गार परिषद माओवादी संबंध मामले में गैर कानूनी गतिविधि रोकथाम कानून (यूएपीए) के प्रावधानों के तहत अगस्त 2018 में गिरफ्तार वकील-कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज को बुधवार को तकनीकी खामी के आधार पर जमानत दे दी। हालांकि, अदालत ने वरवर राव, सुधीर धावले और वर्नोन गोंजाल्विस सहित आठ अन्य आरोपियों की इसी आधार पर जमानत की अर्जी खारिज कर दी।

न्यायमूर्ति एस.एस. शिंदे और न्यायमूर्ति एन.जे. जामदार की पीठ ने अपने आदेश में कहा है कि भारद्वाज इस तरह की जमानत की हकदार हैं और इससे इनकार करना संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्रदत्त जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन होगा। भारद्वाज पर केंद्र सरकार को उखाड़ फेंकने की साजिश का हिस्सा होने का आरोप है।

इसके साथ ही पीठ ने निर्देश दिया कि भायकला महिला कारावास में इस समय कैद भारद्वाज को राष्ट्रीय अन्वेषण अभिकरण (एनआईए) की विशेष अदालत में आठ दिसंबर को पेश किया जाए, जो उनकी जमानत की शर्तें तय करेगी और कारागार से रिहाई को अंतिम रूप देगी।

भारद्वाज इस मामले में गिरफ्तार 16 कार्यकर्ताओं और शिक्षाविदों में पहली आरोपी हैं जिन्हें तकनीकी खामी की वजह से जमानत दी गई है। कवि और कार्यकर्ता वरवर राव इस समय चिकित्सा के आधार पर जमानत पर हैं। पादरी स्टेन स्वामी की इस साल पांच जुलाई को अस्पताल में उस समय मौत हो गई थी, जब वह चिकित्सा के आधार पर जमानत का इंतजार कर रहे थे। अन्य आरोपी विचाराधीन कैदी के तौर पर जेल में बंद हैं।

उच्च न्यायालय ने बुधवार को अन्य आठ आरोपियों- सुधीर धावले, वरवर राव, रोना विल्सन, सुरेंद्र गाडलिंग, शोमा सेन, महेश राउत, वर्नोन गोंजाल्विस और अरुण फरेरा की तकनीकी खामी के आधार पर जमानत देने की जमानत याचिकाएं खारिज कर दी।

भारद्वाज , धावले और अन्य की जमानत याचिकाओं में एक समान दलील दी गई थीं कि जिन न्यायाधीशों ने 2018 में पुणे में उनके खिलाफ दायर पुलिस के मामले का संज्ञान लिया था, उनके पास ऐसा करने का कानूनी अधिकार क्षेत्र नहीं था।

याचिकाओं के अनुसार, पुणे सत्र न्यायालय के दो अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, के डी वदने, जिन्होंने भारद्वाज को हिरासत में भेज दिया, और आरएम पांडे, जिन्होंने 2018 में धावले और सात अन्य याचिकाकर्ताओं को हिरासत में भेज दिया, उन्हें विशेष न्यायाधीश के रूप में नामित नहीं किया गया था और इसलिए वे यूएपीए के तहत अपराधों के लिए दर्ज उनके मामले का संज्ञान नहीं ले सकते थे।

उच्च न्यायालय की पीठ ने एनआईए की ओर से पेश अतिरिक्त सॉलिसीटर जनरल अनिल सिंह का जमानत के आदेश पर रोक लगाने का अनुरोध अस्वीकार कर दिया।

भारद्वाज ने अपने वकील युग चौधरी के माध्यम से एक और दलील दी कि न्यायाधीश के डी वदने ने मामले में पुणे पुलिस को आरोपपत्र दाखिल करने के लिए अतिरिक्त समय देने का आदेश भी पारित किया था। आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) के अनुसार, अपराध दर्ज होने के 90 दिनों के भीतर आरोप पत्र दायर किया जाना चाहिए। हालांकि, 90-दिन की अवधि को अदालत बढ़ा सकती है, अगर उसे लगता है कि अभियोजन पक्ष मामले की जांच के लिए अधिक समय का हकदार है।

भारद्वाज को अगस्त 2018 में गिरफ्तार किया गया था और उन्हें नजरबंद कर दिया गया था। उन्हें 27 अक्टूबर 2018 को हिरासत में ले लिया गया। इसके बाद न्यायाधीश वदने ने भारद्वाज को 10 दिन की पुलिस हिरासत में भेज दिया था। पुणे पुलिस ने 22 नवंबर 2018 को आरोप पत्र दाखिल करने के लिए समय बढ़ाने का अनुरोध किया दूसरी ओर, भारद्वाज ने इसी आधार पर स्वत: जमानत दिए जाने का अनुरोध करते हुए याचिका दायर की कि उनकी हिरासत की 90 दिन की अवधि समाप्त हो गई है।
न्यायाधीश वदने ने 26 नवंबर को पुणे पुलिस को आरोपपत्र दाखिल करने के लिए अतिरिक्त 90 दिनों का समय दिया।

भारद्वाज के वकील और वरिष्ठ अधिवक्ता युग चौधरी ने बहस के दौरान उच्च न्यायालय के समक्ष तर्क रखा कि जिस न्यायाधीश ने सितंबर 2018 में गिरफ्तारी के बाद भारद्वाज और अन्य सह आरोपियों को न्यायिक हिरासत में भेजा, ‘‘वह ऐसा दिखा रहे थे’’ कि उन्हें विशेष न्यायाधीश नियुक्त किया गया था।

चौधरी ने तर्क दिया कि पुणे की अदालत ने आदेश पारित कर 90 दिन की भारद्वाज की हिरासत अवधि पूरी होने के बाद आरोप पत्र दाखिल करने की अनुपति दी, इसे वैध और कानूनी नहीं माना जा सकता है और इसलिए भारद्वाज जमानत की अधिकारी हैं।

एनआईए के वकील, अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल सिंह ने दोनों याचिकाओं का विरोध किया और दलील दी कि पुणे सत्र अदालत ने मामले का संज्ञान लेते हुए आरोपी व्यक्तियों के लिए कोई पूर्वाग्रह नहीं दिखाया।

उच्च न्यायालय ने हालांकि, माना कि सत्र न्यायाधीशों ने मामले का संज्ञान लेकर आरोपी के मौलिक अधिकारों के लिए कोई पूर्वाग्रह पैदा नहीं किया, लेकिन पुणे पुलिस के अनुरोध पर उन्हें आरोपपत्र दाखिल करने के लिए समय बढ़ाने के लिए अनुमति दी और इस तरह भारद्वाज की हिरासत बढ़ाकर न्यायाधीश ने गलती की। उच्च न्यायालय ने माना कि पुणे के न्यायाधीश के पास उक्त मामले का संज्ञान लेने और आरोप पत्र दाखिल करने के लिए समय बढ़ाने की अनुमति देने का अधिकार नहीं था।

उच्च न्यायालय ने भारद्वाज को जमानत देने के अपने आदेश पर रोक लगाने के एनआईए के अनुरोध को स्वीकार करने से इनकार कर दिया।

पीठ दोनों याचिकाओं पर जैसे ही फैसला सुनाने वाली थी अतिरिक्त सॉलिसीटर जनरल सिंह ने हस्तक्षेप किया और कहा कि वह हाल में उच्चतम न्यायालय के एक हालिया फैसले को इस अदालत के संज्ञान में लाना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि शीर्ष अदालत ने आदेश में कहा है कि मामले का संज्ञान में लेने में हुई तकनीकी खामी स्वत: आरोपी को जमानत की अधिकारी नहीं बनाती।

इस पर, पीठ ने कहा कि एक बार मामले पर फैसला सुरक्षित कर लेने के बाद पक्षकार द्वारा नए फैसले का हवाला देने का सवाल ही नहीं है। अदालत ने कहा, ‘‘हम उच्चतम न्यायालय के उस फैसले से अवगत हैं जिसके बारे में आप (एनआईए) बात कर रहे हैं। इसलिए हमने दूसरे याचिकाकर्ता (धावले और अन्य) की याचिका खारिज की हैं।’’
पीठ ने कहा, ‘‘तकनीकी खामी के आधार पर जमानत दिये जाने के आदेश पर रोक नहीं लगाई जा सकती है। विशेष अदालत को उनकी (भारद्वाज) जमानत की शर्तो पर फैसला लेने दीजिए।’’
यह मामला 31 दिसंबर 2017 को पुणे के शनिवारवाड़ा में एल्गार परिषद के कार्यक्रम में कथित तौर पर भड़काऊ भाषण देने से जुडा है। पुलिस का दावा है कि भड़काऊ बयानों के कारण इसके अगले दिन पुणे के बाहरी इलाके कोरेगांव-भीमा में हिंसा भड़की। पुलिस का यह भी दावा है कि इस कार्यक्रम को माओवादियों का समर्थन हासिल था। बाद में इस मामले की जांच एनआईए को सौंप दी गई थी।



यह आर्टिकल पंजाब केसरी टीम द्वारा संपादित नहीं है, इसे एजेंसी फीड से ऑटो-अपलोड किया गया है।

सबसे ज्यादा पढ़े गए

PTI News Agency

Recommended News