भारतीय संस्कृति के पुजारी श्री मोरारजी देसाई, अपने भाग्य के स्वयं विधाता थे

Monday, Feb 27, 2017 - 10:46 AM (IST)

29 फरवरी 1896 को गुजरात के बुल्सर नामक स्थान के निकट भदेली में जन्मे श्री मोरार जी देसाई अपने भाग्य के विधाता स्वयं कहे जाते हैं। अपने जीवन का निर्माण उन्होंने स्वयं किया। भारतीय राजनीति में गांधी जी के आगमन के बाद वह उनके द्वारा चलाए जा रहे आंदोलनों से इतने प्रभावित हुए कि मोरार जी देसाई ने आवश्यकता होते हुए भी 1930 में सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और राजनीति के क्षेत्र में सक्रिय हो गए। स्वतंत्रता आंदोलन में इनकी शानदार भूमिका के कारण इनकी चर्चा हर ओर होने लगी। जब स्वतंत्र भारत में गुजरात में श्वेर-मंत्रिमंडल बना तो वह भी इसमें सम्मिलित हुए। इन्होंने भूमि सुधार कार्यों को महत्व दिया, न्यायपालिका व कार्यपालिका को अलग-अलग कराया। 1952 में श्वेर अवकाश प्राप्त कर गए तो मोरार जी ने बम्बई प्रदेश के मुख्यमंत्री का पद संभाला लेकिन 1955 में वह इस पद से त्यागपत्र देकर केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल हो गए।


उस समय भारत के प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू थे और उन्होंने इन्हें वाणिज्य एवं उद्योग का विभाग सौंप दिया। श्री टी.टी. कृष्णमचारी के त्यागपत्र देने के बाद वह वित्त मंत्री बना दिए गए। 27 मई 1964 को भारत के प्रथम प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू के निधन के बाद मोरार जी देसाई भी प्रधानमंत्री पद के दावेदार थे लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। जब श्री लाल बहादुर शास्त्री के बाद श्रीमती इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं तो उन्होंने मोरार जी देसाई को उपप्रधानमंत्री नियुक्त कर लिया। 1969 में कांग्रेस का विघटन होने पर इसके दो दल बन गए। श्री देसाई संगठन कांग्रेस में आकर कार्य करते रहे व 1975 में इन्होंने गुजरात विधानसभा भंग करने व निर्वाचन कराने के लिए अनशन कर दिया जिसमें वह सफल भी रहे।


जून 1975 में भारत के राष्ट्रपति द्वारा आपात स्थिति लागू करने की अवस्था में इन्हें जेल जाना पड़ा। आपातकालीन स्थिति की समाप्ति के बाद भारत में निर्वाचन हुए जिसके फलस्वरूप लोकनायक जयप्रकाश नारायण के आह्वान पर जनता दल का निर्माण हुआ और यह दल लोकसभा के चुनावों में जीत गया। इसके बाद श्री मोरारजी देसाई भारत के चौथे प्रधानमंत्री चुन लिए गए। उनका 1930 का यह संघर्ष 1977 में जाकर सफल हुआ। सादा जीवन व उच्च विचारों में विश्वास रखने वाले देसाई जी गांधी जी के पक्के अनुयायी थे। वह एक सिद्धांतवादी व्यक्ति थे व उनका जीवन हिमालय की उच्च चोटी की भांति था जिस पर बर्फ की शीतलता  है लेकिन भीतर ज्वालामुखी भी है। एक अनुशासन प्रिय सिपाही के रूप में : अंग्रेजी में कहते हैं कि :

There is not to reason why, But to do and die


वह अनुशासन प्रिय होने के साथ आज्ञाकारी भी थे चाहे उनका मतभेद भी क्यों न हो, अपने अधिकारी की कोई बात चाहे इन्हें अच्छी लगे या न लगे, वह उसे मानना अपना कर्तव्य समझते थे।


भारतीय संस्कृति के पुजारी श्री मोरार जी देसाई ने संविधान निर्मित होते ही हिंदी को  राष्ट्रभाषा बनाने का समर्थन किया। वह यह भी चाहते थे कि अन्य भाषाएं भी विकसित हों लेकिन राष्ट्रभाषा का गौरव हिन्दी को ही मिलना चाहिए व यही भाषा सम्पूर्ण राष्ट्र को एकता के सूत्र में बांधे रख सकती है। वह इस उक्ति में विश्वास करते थे।


निज भाषा की उन्नति है, सब उन्नति की मूल,
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय की सूल॥ 

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