कट्टरवादी और आतंकी मानसिकता पैदा करने में मदरसों की भूमिका

Friday, Jan 19, 2018 - 04:24 AM (IST)

वैश्विक समुदाय आज जिस मजहबी कट्टरपंथ और आतंकवाद के दंश से ग्रस्त है- आखिर उसे अविरल प्रोत्साहित करने वाली मानसिकता कहां पैदा होती है और उसमें मदरसों की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण है? इस प्रश्न की नींव उन घटनाक्रमों से तैयार हुई है, जिनका खुलासा हाल ही में देश के 2 जिम्मेदार सूत्रों ने किया है। 

थलसेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत ने जम्मू-कश्मीर के सरकारी स्कूलों और मदरसों की शिक्षा प्रणाली पर गंभीर सवाल खड़े किए हैं। गत दिनों अपनी पै्रस वार्ता में जनरल रावत ने कहा, ‘जम्मू-कश्मीर के स्कूलों में भारत के साथ-साथ प्रदेश का मानचित्र अलग से पढ़ाया जा रहा है, जो छात्रों को कट्टरवाद और अलगाववाद की ओर प्रोत्साहित कर रहा है।’ जनरल रावत के अनुसार, ‘यहां की मस्जिदों और मदरसों पर भी कुछ सीमा तक अंकुश लगाने की आवश्यकता है ताकि प्रदेश में गलत सूचनाओं से पनप रहे असंतोष पर नियंत्रण रखा जा सके।’ उन्होंने इस स्थिति को कश्मीर समस्या की जड़ बताते हुए कहा है कि सेना पर पत्थरबाजी की घटना भी इसी विकृत शिक्षा प्रणाली के कारण सामने आती है। 

जनरल रावत ने उस सत्य को रेखांकित किया है, जो छद्म-सैकुलरवाद के कारण स्वतंत्र भारत में 70 वर्षों से शुतुरमुर्ग प्रवृति का शिकार हुआ है, जो अब भी जारी है। 8 जनवरी को उत्तर प्रदेश शिया सैंट्रल वक्फ  बोर्ड के अध्यक्ष वसीम रिजवी ने मदरसों को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को पत्र लिखा। उनके अनुसार, अधिकतर मदरसों में पढऩे वाले बच्चे आतंकवाद के रास्ते पर जा रहे हैं। वह कहते हैं, ‘मदरसों से पढ़कर कोई इंजीनियर, डॉक्टर और आई.ए.एस. नहीं बनता, बल्कि कुछ मदरसों से पढ़कर बच्चे आतंकवादी जरूर बने हैं और उन्हें बम बनाने की शिक्षा दी जा रही है।’ 

इसी घटनाक्रम की पृष्ठभूमि में एक अंग्रेजी न्यूज चैनल ने अपने स्टिंग ऑप्रेशन के माध्यम से न केवल मदरसों की वास्तविकता को समझने का अवसर दिया है, साथ ही ऐसे कई मदरसों को भी चिन्हित किया है, जो खाड़ी देशों के वित्त पोषण से मुस्लिम नौनिहालों को कट्टरवादी और अलगाववादी विचारधारा की ओर धकेल रहे हैं। रिपोर्ट के अनुसार, केरल के कई मदरसों में बच्चों को गुप्त तरीके से ‘वहाबीवाद’, ‘खलीफा’ और ‘खिलाफत’ के उस विकृत दर्शन का पाठ पढ़ाया जा रहा है, जो विश्व में हिंसक रूप से इस्लामी शासन को स्थापित करना-मजहबी दायित्व बताता है। इसी विषाक्त चिंतन ने आई.एस., हिज्बुल मुजाहिद्दीन, जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तोएबा जैसे खतरनाक आतंकी संगठनों को जन्म दिया है। 

सिं्टग ऑप्रेशन में केरल स्थित पुल्लोरम्माल में एक ट्रस्ट की ओर से चलाए जा रहे मदरसे के मौलवी कहते दिख रहे हैं, ‘खिलाफत’ ही आधार है और यह हमारे दिलों में है। यदि हम सार्वजनिक रूप से इसकी बात करेंगे तो समस्या होगी। आसपास रहने वाले कई हिंदू हमें आई.एस. के लोग कहना शुरू कर देंगे, इसलिए हम सीधे नहीं कहते। हम बच्चों के दिलों में इसे धीरे-धीरे बिठा रहे हैं। हमें कोई जल्दबाजी नहीं है, क्योंकि खिलाफत एक दिन में नहीं बनती।’ स्टिंग ऑप्रेशन में अन्य मदरसे का संचालक स्वीकार कर रहा है कि यहां आने वाले बच्चों को नियमित तौर पर जाकिर नाइक के भाषण वीडियो दिखाए जाते हैं, जो केवल इस्लाम को एकमात्र सच्चा बताने और गैर-मुस्लिमों के मतांतरण से संबंधित होते हैं। चैनल की रिपोर्ट में यह भी फिर से पुष्ट हुआ है कि देश के अधिकतर मदरसों को दुबई, सऊदी, ओमान, कतर आदि खाड़ी देशों से हवाला के माध्यम से धन प्राप्त होता है। 

वहाबी दर्शन मूलत:हिंसक जेहाद का प्रमुख प्रोत्साहक है, जिसका बीजारोपण 13वीं शताब्दी में इस्लामी चिंतक इब्न-तैमिया के जीवनकाल में हो गया था। मध्यकाल में तैमिया ने ही जेहादी अवधारणा को नया स्वरूप दिया, जिसमें मुस्लिमों (इस्लाम मतांतरित सहित) को भी निशाना बनाया जाने लगा। आज आई.एस. जैसे कुख्यात आतंकी संगठन उसी का अनुसरण कर रहे हैं। तैमिया के दर्शन को पहले व्यापक स्वीकृति नहीं मिली, किंतु 18वीं शताब्दी में मुहम्मद इब्न-अब्द-अल-वहाब ने उसके चिंतन को न केवल अंगीकार किया, बल्कि उसके प्रसार के लिए सन् 1744 में तत्कालीन सऊदी शासक मोहम्मद बिन सऊद से भी हाथ मिला लिया। उसी कालखंड से आज तक सऊदी अरब इसी कुत्सित व्यवस्था को अपना रहा है। यही कारण है कि मदरसों में इस विषाक्त और संकीर्ण दर्शन को प्राथमिकता देने के लिए खाड़ी देश पानी की तरह पैसा बहा रहे हैं। 

इस्लाम इब्राहिमी प्रेरित मजहब है। दोनों का विश्वास है कि उनकी मजहबी मान्यताओं के अनुसार स्वीकृत ईश्वर ही केवल एकमात्र सत्य है और बाकी सब पाखंड व ढोंग। मजहब के सच्चे अनुयायियों का कत्र्तव्य है कि वे अन्य सभी पूजा-पद्धति को नष्ट कर ‘विधर्मियों’ को तलवार, छल, फरेब और प्रलोभन के माध्यम से मतांतरण के लिए प्रेरित करें या फिर मौत के घाट उतार दें। इसी विषाक्त दर्शन का पाठ अधिकतर मदरसों में पढ़ाया जा रहा है, जो ‘लव-जेहाद’ के विस्तार में भी मुख्य भूमिका निभा रहा है। मदरसा शिक्षा प्रणाली का सबसे बड़ा एक दोष यह भी है कि यहां के छात्रों का सम्पर्क साधारणत: मुस्लिम बच्चों और अध्यापकों के साथ ही होता है। प्रारम्भिक परवरिश में ही बाहरी दुनिया से कटाव उन्हें अन्य समुदाय के आचार-विचार और जीवनदर्शन व शैली से अपरिचित रखता है। यदि मुस्लिम छात्र केवल अपने समुदाय के बच्चों और मौलवी के ही संपर्क में रहेंगे तो स्वाभाविक तौर पर उनका दृष्टिकोण, वेशभूषा, भाषा, इतिहास की समझ और सपने शेष समाज से भिन्न होंगे। 

मदरसों में विषवमन और आतंकवाद पर चर्चा करना-जहां एक-दूसरे के प्रतिपूरक हैं, वहीं मजहबी शिक्षा को सामान्य पाठशालाओं का विकल्प बनाने का विचार सीमित दृष्टिकोण को और अधिक बल देने जैसा है। भारत में कई समुदायों के लोग बसते हैं और यहां सभी नागरिकों की सबसे बड़ी पहचान भारतीयता है। जब मजहब के नाम पर इसी पहचान की उपेक्षा होगी तो कई विसंगतियों का पैदा होना स्वाभाविक है। आवश्यकता इस बात की होनी चाहिए कि सभी बच्चे सामान्य विद्यालयों से शिक्षा प्राप्त करें, जिससे उनकी राष्ट्रीयता समान हो सके। बच्चों को उसी स्कूल में आधुनिक विषयों के साथ-साथ सभी मजहबों की नैतिक शिक्षा हेतु अलग से व्यवस्था की जाए, ताकि वे अन्य मजहब और उसके मान-बिंदुओं का आदर व भावनाओं का सम्मान कर सकें। 

मुस्लिम कट्टरपंथियों द्वारा वसीम रिजवी का विरोध स्वाभाविक ही है, क्योंकि वे अपने समुदाय में किसी भी तरह के सुधार सहित कुरान, शरीयत और इनसे स्थापित मजहबी मान्यताओं में किसी भी तरह का प्रश्न या परिवर्तन या उसकी मांग को इस्लाम पर आक्रमण समझते हैं। ट्रिपल तलाक विरोधी विधेयक का विरोध भी इसका एक और उदाहरण है। आज जेहाद के नाम पर मानवता का गला घोंटने वाले अनपढ़ या मदरसे की मजहबी तालीम लेने तक सीमित नहीं हैं। मान्यता है कि कम्प्यूटर, गणित, विज्ञान, अंग्रेजी आदि आधुनिक विषयों की शिक्षा से मजहबी कट्टरता, आतंकवाद के दानव का खात्मा और बच्चों के भीतर समाज के प्रति संवेदनशील और निष्ठावान जैसे गुणों का विकास किया जा सकता है। 

यदि इस धारणा को आधार बनाएं तो वर्ष 2001 के 9/11 आतंकी हमले में आधुनिक विषयों में स्नातक या परास्नातक क्यों शामिल हुए? अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के पी.एच.डी. छात्र मनन बशीर वानी के भी कथित रूप से हिज्बुल मुजाहिद्दीन में शामिल होने की अटकलें हैं। मदरसों के पाठ्यक्रमों को आधुनिक बनाना प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से वहाबी विचारधारा को ही और अधिक पुष्ट करने जैसा है-जिसकी अवधारणा में ‘काफिर-कुफ्र’ मुक्त दुनिया की कल्पना निहित है।-बलबीर पुंज

Advertising