पं. मदन मोहन मालवीय जन्म दिवस आज: महात्मा गांधी भी थे इनके पुजारी

punjabkesari.in Monday, Dec 25, 2017 - 09:43 AM (IST)

महामना पं. मदन मोहन मालवीय की हिंदू धर्म के सिद्धांतों में अगाध श्रद्धा थी। राष्ट्रवाद उनमें कूट-कूट कर भरा था, जो हिंदू धर्म की ही देन था। हिंदू धर्म के सहिष्णुता के गुण के कारण वह अन्य धर्मों का भी समुचित आदर करते थे। प्राणियों के प्रति दया, परोपकार, सदाचार भगवद्भक्ति, स्त्रियों का सम्मान, अनुशासन, समाज सेवा आदि गुण हिंदू धर्म के कारण ही उनके जीवन का अंग बन गए थे। उनके ऊपर ये पंक्तियां पूरी तरह चरितार्थ होती हैं-स्वयं पर गर्व है मुझको कि हिंदू धर्म पाया है, स्वयं ही भाग्य में मेरे सदा सत्कर्म आया है।


मालवीय जी में बाल्यकाल से ही प्राणियों के प्रति दया का भाव दृष्टिगोचर होता था जब उनकी आयु दस-बारह वर्ष की रही होगी, उन्होंने एक घायल कुत्ते को सड़क पर कराहते हुए देखा। कितने ही लोग उसको एक नजर देखते और संवेदना प्रकट करके चले जाते किंतु बालक मदन मोहन से नहीं रहा गया। वह भागकर डाक्टर के पास गया और दवा ले आया। उसने कुत्ते के गुर्राने के बाद भी बिना भय के घाव पर दवा लगा दी। लोग मना भी करते रहे। किंतु घुट्टी में मिले विचारों व संस्कारों ने उन्हें प्राणीमात्र की दया से विरत नहीं होने दिया।


यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता। इस कहावत के संदर्भ में और घर-परिवार-समाज में नारी के सम्मान के लिए मालवीय जी सदैव संघर्षरत रहते थे। उन्होंने स्त्री-शिक्षा पर बल दिया, जबकि उस काल के अन्य पुरातनवादी लोग स्त्री-शिक्षा का यह कह कर घोर विरोध करते थे कि यदि स्त्रियों को पुरुषों के समान शिक्षा मिलेगी तो समाज में घोर विप्लव आ जाएगा।


मालवीय जी का सम्पूर्ण जीवन शिक्षा के लिए समर्पित था। उन्होंने अपने अथक प्रयासों से हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना कर शिक्षा का प्रकाश फैला दिया। मालवीय जी की इस नि:स्वार्थ समाज सेवा के लिए ही ‘लीडर’ समाचार पत्र के तत्कालीन  सम्पादक श्री सी.वाई. चिंतामणि ने मालवीय जी को ‘धर्मात्मा पं. मदन मोहन मालवीय’ कहा। मालवीय जी धर्म के वास्तविक मर्म को समझते थे। धर्म का लक्षण बताते हुए वह कहते थे-यश्रु आर्या:क्रियमाणं प्रशंसंति से धर्म:। अर्थात जिसे आर्यजन कहें कि अमुक कार्य करना प्रशंसनीय है, वही धर्म है। 


मालवीय जी का मन करुणा, दया, संवेदना से परिपूर्ण रहता था इसीलिए वह महामना के रूप में प्रतिष्ठित हुए।


धर्मात्मा मालवीय जी हिंदू विश्वविद्यालय के प्रांगण में भगवान विश्वनाथ का विशाल मंदिर बनाना चाहते थे किंतु साधनों की कमी के कारण यह दर्शनीय मंदिर बहुत समय तक नहीं बन सका। इसके लिए उन्होंने स्वयं को दोष देते हुए 75वीं वर्षगांठ के अवसर पर कहा कि कुकुरमुत्ता तो यूं ही उग आता है, पर बड़े वृक्ष को बढऩे में समय लगता है। मैंने मंदिर के लिए काफी समय नहीं दिया, इसकी मुझे बड़ी शर्म है, पर अभी मेरा दस वर्ष का कार्यकाल शेष है, आप विश्वास रखें मैं अभी मरने वाला नहीं हूं। शरीर छूटने पर भी मैं नहीं मरूंगा। बल्कि हिंदू विश्वविद्यालय में या यहीं कहीं जन्म लेकर हिंदू जाति और देश की सेवा करूंगा। 


इस मंदिर को मालवीय जी 85 वर्ष की आयु तक बहुत कुछ पूरा कर गए और मरते समय सेठ जुगल किशोर बिड़ला से प्रतिज्ञा करवा गए कि वे इसे पूर्ण करा देंगे। बाद में यह भव्य मंदिर पूर्ण हुआ।


मालवीय जी का हिंदू धर्म के पुनर्जन्म के सिद्धांत में अटल विश्वास था और वह भविष्यदृष्टा भी थे। वह गीता में बताए हुए कर्म के सिद्धांतों को पूरी तरह से मानते थे। वह कहते थे कि धर्म और सत्य की पाप और अधर्म पर सदा विजय होती है। वह गीता के इन सिद्धांतों में विश्वास रखते थे कि धर्म की रक्षा के लिए परमेश्वर या कोई महान पुण्यात्मा इस संसार में जन्म लेती है।


मालवीय जी लोकमान्य तिलक, विवेकानंद तथा अरविंद घोष की तरह हिंदू धर्म की श्रेष्ठता को स्वीकार करते थे। वह प्रख्यात सनातन धर्मी थे। उनके आचार-विचार सनातन धर्म के नियमों में आबद्ध थे। वे विदेशयात्रा के समय गंगा जल और गंगा की रेत अपने साथ ले गए और विदेश में निरंतर उन्हीं का उपयोग किया।


मालवीय जी के जीवन में राष्ट्रवाद और हिंदूत्व का सुंदर समन्वय था। उनके जीवन की दो प्रमुख धाराएं थीं एक भारतीय सनातन धर्म परंपरा में उनका गहन विश्वास और दूसरी उनकी उत्कृष्ट राष्ट्रभक्ति। वास्तव में धर्म ही उनका देश था और देश ही उनका धर्म था। वह दो बार कांग्रेस के तथा तीन बार हिंदू महासभा के प्रधान चुने गए। जब केंद्रीय विधानसभा में उन्होंने स्वराज्य दल को मुसलमानों के सामने हिंदू हितों को न्यौछावर करते देखा, तो उन्होंने लाला लाजपतराय से मिलकर हिंदू हितों की रक्षा के लिए राष्ट्रवादी दल को संगठित किया। साम्प्रदायिक निर्णय (कम्युनल अवार्ड) के संदर्भ में कांग्रेस के रवैये से भी वह बहुत आहत थे।


उन्होंने भारत को राष्ट्रवाद का सिद्धांत दिया। जिसका आधार सांस्कृतिक था। मालवीय जी की राष्ट्रभक्ति दिखावटी नहीं थी। देशभक्ति उनकी रग-रग में प्रवाहित थी। वह राष्ट्रीयता और देशभक्ति के मूल तत्व को जानते थे। वह स्वार्थ प्रेरित देशभक्ति के प्रबल विरोधी थे। वे देशभक्ति को साधारण कर्तव्य ही नहीं वरन्-परम धर्म मानते थे।
एक बार महात्मा गांधी जी ने उनकी देशभक्ति से प्रभावित होकर कहा था-मैं तो मालवीय जी महाराज का पुजारी हूं। देशभक्ति में उनका मुकाबला कौन कर सकता है। यौवन काल से लेकर वृद्धावस्था तक उनकी देशभक्ति का प्रवाह अविछिन्न रहा है। मालवीय जी धर्म-भक्त, देश-भक्त और समाज भक्त होने के साथ महान सुधारक भी थे। उनके बहुआयामी प्रभावशील व्यक्तित्व और देश-समाज को समर्पित उनके कृतित्व ने उनको अमर कर दिया। राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त ने उनके लिए कहा है-भारत को अभिमान तुम्हारा, तुम भारत के अभिमानी। पूज्य पुरोहित थे हम सबके, रहे सदैव समाधानी।


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