100 स्वर्ण की मुद्राएं पाने के लिए बहुरूपिए ने ठुकराए राजा के बहुमूल्य उपहार

Monday, Jan 22, 2018 - 11:12 AM (IST)

एक बहुरूपिया राज-दरबार में राजा को नित नए वेश बदलकर दिखाता, उनका मनोरंजन करता और उनसे इनाम पाता। एक दिन राजा ने उससे कहा, ‘‘तुम्हारे करतब मैं देख चुका हूं। अब कुछ ऐसा स्वांग दिखाओ, जिससे तुम्हें कोई पहचान न सके। यदि तुम ऐसा करने में कामयाब रहे तो मैं तुम्हें 100 स्वर्ण मुद्राएं ईनाम में दूंगा।’’ बहुरूपिया चला गया।


उसने नगर के बाहर एक पेड़ के नीचे आसन जमाया, अपने वस्त्रों को त्यागकर शरीर पर भस्म रमाई, मौन धारण किया और धूनी तापते हुए ध्यान लगाकर बैठ गया। नगर के लोगों को जब किसी तपस्वी महात्मा के आने की खबर लगी तो वे सैकड़ों की संख्या में उसके दर्शनों को पहुंचने लगे। कोई उसके आगे भेंट या चढ़ावा वगैरह रखता तो वह तुरंत उसे दूसरों में बांट देता। इससे उसकी ख्याति और भी बढ़ गई।


कुछ दिन बाद राजा खुद उसके दर्शनों के लिए आए और बहुमूल्य उपहार भी साथ लाए। तपस्वी ने उन उपहारों को भी राजा के सामने ही लोगों में बांट दिया। राजा की श्रद्धा बढ़ी और उन्होंने उस साधु को अपना गुरु मान लिया। अगले दिन बहुरूपिया राज-दरबार में पहुंचा और ईनाम की 100 स्वर्ण मुद्राएं मांगी। राजा द्वारा कारण पूछने पर बहुरूपिए ने कहा, ‘‘आपने कल जिसे अपना गुरु बनाया, वह मैं ही था।’’ यह सुनकर राजा चकित रह गए। उन्होंने बहुरूपिए से कहा, ‘‘तुमने मेरे दिए इतने बहुमूल्य उपहार जनता में बांट दिए, जबकि यहां मात्र 100 स्वर्ण मुद्राओं का ईनाम लेने आए हो। तुम चाहते तो आसानी से उन उपहारों को रख सकते थे।’’  

 

बहुरूपिया बोला, ‘‘हुजूर, आपका कहना सही है। पर मैं साधु के वेश को कैसे कलंकित होने देता। यदि मैं लेने में जुट जाता तो साधु की गरिमा गिरती और उस पर से लोक-श्रद्धा उठ जाती। ऐसे में लोग सच्चे साधुओं को भी संदेह की दृष्टि से देखने लगते। साधु का स्वांग रचने पर भी उस वेश की गरिमा अक्षुण्ण रखना मैंने अपना कर्तव्य माना, जिस कारण मेरी पूजा हुई और आपको भेंट सहित मेरे पास पहुंचना पड़ा।’’ यह सुनकर राजा ने खुश होते हुए कहा, ‘‘तुम वाकई उच्च कोटि के कलाकार हो और अपनी कला का मान रखना जानते हो।’’ इसके बाद राजा ने उसे मुंहमांगा ईनाम देते हुए सम्मान वहां से विदा किया।

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