बाहर गया ‘पंजाबी’ वापस पंजाब नहीं आना चाहता

Monday, Aug 03, 2015 - 01:06 AM (IST)

(बचन सिंह सरल): पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के अनुसार एन.आर.आई. अब पंजाब में न तो जमीन खरीद रहे हैं तथा न ही मकान बना रहे हैं। मुख्यमंत्री के अनुसार इसका कारण यह है कि विदेश में बैठे पंजाबियों की नई पीढ़ी को अब पंजाब में कोई दिलचस्पी नहीं रही इसलिए वह पंजाब वापस नहीं आना चाहते हैं। 

मुख्यमंत्री को इस बात का पता होना चाहिए कि यदि एन.आर.आई. अब पंजाब में दिलचस्पी नहीं रखते तो भारत के विभिन्न प्रांतों में बस रहे पंजाबी भी इसी राह पर चल रहे हैं। जहां कोई रह रहा है वह वहीं का नागरिक हो गया है। पुश्तैनी गांव वाला मकान बेशक खंडहर बन गया हो, उसने कभी आकर उसकी सुध नहीं ली। जहां वह रह रहा है, पक्का मकान भी उसने वहीं बना लिया है। स्थानीय रिश्ते ढूंढ कर बच्चों की शादियां भी वहीं कर दी हैं।
 
इधर पंजाब के नौजवान विदेशों की ओर भागे जा रहे हैं। वे बाप-दादा की जमीनों को बेच रहे हैं। जो विदेश चला जाता है दोबारा इधर का रुख नहीं करता। आतंकवाद के दौर में बहुत से लोग विदेश चले गए थे और वहां जाकर राजनीतिक शरणार्थी बन गए। इधर सरकार ने उनके नाम काली सूचियों में दर्ज कर दिए जो अभी तक यथावत हैं, फलस्वरूप विदेश में जाकर शरणार्थी बने लोग वापस पंजाब में नहीं आ सकते। इन काली सूचियों को समाप्त करने के लिए सरकार द्वारा कोई गम्भीर प्रयास नहीं किए गए। ऐसे में विदेश जा बसे लोगों के पंजाब लौटने की संभावना बहुत कम है। आखिर इस स्थिति के लिए जिम्मेदार कौन है? इस विषय में कभी किसी ने नहीं सोचा।
 
पांचवीं बार अकाली-भाजपा गठबंधन का नेतृत्व करते हुए मुख्यमंत्री बने प्रकाश सिंह बादल का कहना है कि अकाली-भाजपा गठबंधन अटूट है। यानी कि आने वाले समय में भी  वह गठबंधन सरकार बनने की उम्मीद लगाए बैठे हैं। एक जमाना था जब ये दोनों पाॢटयां एक-दूसरे की दुश्मन थीं। 50 के दशक में जब अकाली दल ने भाषा के आधार पर प्रदेश के गठन की मांग की तो वर्तमान भाजपा की पूर्ववर्ती ‘जनसंघ’ ने इसका विरोध किया था। 
 
अकाली दल ने मोर्चा लगाकर जितनी गिरफ्तारियां दी थीं उतनी तो स्वतंत्रता संग्राम दौरान भी नहीं हुई थीं। आखिर पंजाब के तीन टुकड़े हो गए लेकिन पंजाबी भाषा पटरानी नहीं बन पाई, आज भी दासी ही है।
 
अकाली समय-समय पर ‘पंथ’ के नाम पर नारे लगाते रहते हैं। कभी आनंदपुर साहिब प्रस्ताव पारित कर लिया तो कभी अमृतसर का घोषणा पत्र जारी कर दिया। कभी दिल्ली जाकर संविधान की धारा 25 को जलाया तो कभी कहा कि सिख एक अलग कौम है। इस प्रकार अकाली नारेबाजी तो करते रहे लेकिन अपने फैसलों और घोषणा पत्रों की व्याख्या करके लोगों को विश्वास में न ले सके।
 
जब चंडीगढ़ के मुद्दे को लेकर जत्थेदार दर्शन सिंह फेरूमान ने आमरण अनशन शुरू कर दिया तो उसी दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की कलकत्ता यात्रा के दौरान मैंने इस संबंध में  उनसे सवाल पूछा था, जिसके उत्तर में श्रीमती गांधी ने कहा कि इस मुद्दे को आपसी बातचीत से सुलझाया जा सकता था लेकिन अकाली नेतृत्व वार्ता के लिए तैयार नहीं। अकालियों ने जत्थेदार फेरूमान को फंसा दिया है और फेरूमान ऐसे व्यक्ति हैं जो अपनी बात से पीछे हटने वाले नहीं, परिणाम यह होगा कि अकाली जत्थेदारों के फंदे में फंस कर वह शहीद हो जाएंगे। इंदिरा गांधी का यह कथन शत-प्रतिशत सत्य सिद्ध हुआ। लेकिन चंडीगढ़ का विवाद आज तक 
हल नहीं हो सका।
 
संत हरचंद सिंह लौंगोवाल और राजीव गांधी के बीच हुए समझौते का हश्र तो इससे भी बुरा हुआ। जब यह समझौता हुआ तो लोगों ने इसका स्वागत किया था और इसे पंजाब में शांति और विकास की नई किरण के रूप में देखा गया था लेकिन अकालियों की आपसी गुटबाजी ने इसे नकारा कर दिया। इस समझौते में भी चंडीगढ़ पंजाब को देने का फैसला किया गया था। जब यह समझौता हुआ तो सुरजीत सिंह बरनाला पंजाब के मुख्यमंत्री थे। क्या वह इस रहस्य पर से पर्दा उठाने का प्रयास करेंगे कि यह समझौता लागू न होने के लिए कौन दोषी है?
 
अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि ‘पंथक हितों’ के नाम पर अकाली नेतृत्व ने सिख पंथ की भावनाओं को भड़काया अवश्य है लेकिन मांगें मनवाने या समस्याएं हल करवाने के मामले में कभी गम्भीरता से कोई कार्रवाई नहीं की। इस संबंध में सांसद बनने के बाद कृपाण का मुद्दा उठाकर नौटंकी करने का सिमरनजीत सिंह मान का उदाहरण हमारे सामने है।  
 
इतना ही नहीं, 1984 में पंजाब से बाहर रहने वाले सिखों पर भीषण अत्याचार हुए लेकिन उनका दर्द बांटने के लिए एक बार भी कोई अकाली नेता नहीं पहुंचा। इससे पूर्व पंजाब से बाहर रहने वाले सिख सदा अकाली दल का साथ देते रहे थे। यहां तक कि पंजाब में लगने वाले मोर्चों में भी गिरफ्तारियां देने आते थे।
 
प्रकाश सिंह बादल स्वयं बताएं कि गत वर्षों दौरान उन्होंने कितनी बार पश्चिम बंगाल या देश के किसी अन्य प्रांत में जाकर सिखों का दुख-दर्द बंटाया है। सिमरनजीत सिंह मान जब भागलपुर जेल में बंद थे तो उनका पूरा मुकद्दमा कोलकाता के सिखों ने लड़ा था लेकिन मान ने धन्यवाद करना तो दूर, एक बार भी इन सिखों की सार नहीं ली। 
 
ऐसी परिस्थितियों में सिख पंजाब की ओर मुंह उठाकर देखें भी क्यों? जहां वे रहते हैं उसी धरती से नाता जोड़ कर क्यों न रखें? पंजाब में खालिस्तान के नारे लगाकर और श्री दरबार साहिब अमृतसर में नंगी तलवारों से प्रदर्शन करके ये लोग क्या चाहते हैं? क्या वह पंजाब से बाहर बैठे सिखों के लिए फिर से 80 दशक वाले हालात बनाना चाहते हैं?
 
प्रकाश सिंह बादल और उनकी सरकार पर इस संबंध में भारी-भरकम जिम्मेदारी है कि पंजाब के हालात शांतमय बने रहें और पंजाब से बाहर बैठे पंजाबी अपनी जड़ों से न टूटें। गुरदासपुर जिले के दीनानगर में हुआ आतंकी हमला ङ्क्षचताजनक है। केवल पंजाबी ही नहीं बल्कि प्रत्येक देशवासी यह सोचने पर मजबूर है कि आखिर इस हमले के पीछे कौन-सी साजिश काम कर रही है? यदि पंजाब और केन्द्र की सरकार ने इस ओर ध्यान न दिया तो भविष्य में इसके गम्भीर परिणाम हो सकते हैं।
 
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