‘द सैडिस्ट’: दशमणि मीडिया की प्रस्तुति, सुधांशु कुमार के निर्माण में प्राइम टाइम पत्रकारिता की अंधेरी सैर
punjabkesari.in Tuesday, May 13, 2025 - 01:47 PM (IST)

मुंबई। कुंदन शशिराज की लघु फिल्म ‘द सैडिस्ट’, जिसे दशमणि मीडिया ने प्रस्तुत किया और सुधांशु कुमार ने निर्मित किया, एक ऐसी कहानी है जो न केवल मनोरंजन करती है, बल्कि समाज के उस कड़वे सच को उजागर करती है, जो प्राइम टाइम न्यूज़ चैनलों के चकाचौंध भरे स्टूडियो में छिपा है। यह फिल्म मीडिया की उस भूमिका पर सवाल उठाती है, जो मनोरंजन, सहमति और नफरत को निर्मित करने में महत्वपूर्ण हो गई है। विपिन शर्मा, दानिश हुसैन और विनीत कुमार जैसे शानदार अभिनेताओं से सजी यह फिल्म न केवल दर्शकों को झकझोरती है, बल्कि उन्हें सोचने पर मजबूर करती है कि क्या हमारा मीडिया वाकई समाज का आईना है या फिर वह खुद एक ऐसी तस्वीर बना रहा है, जो ध्रुवीकरण और हिंसा को बढ़ावा देती है।
फिल्म की शुरुआत एक साधारण दृश्य से होती है—एक व्यक्ति रात का खाना खा रहा है और टीवी पर प्राइम टाइम न्यूज़ चल रही है। न्यूज़ एंकर अमन देव सिन्हा (दानिश हुसैन) स्क्रीन पर किसी ‘ज्वलंत मुद्दे’ को लेकर गरमागरम बहस कर रहे हैं। दर्शक की आँखें स्क्रीन पर टिकी हैं, मानो वह उस बहस का हिस्सा हो। लेकिन जैसे ही कहानी आगे बढ़ती है, दर्शक को स्टूडियो के पीछे की सच्चाई दिखाई देती है। यह वह जगह है जहाँ खबरें बनती हैं, लेकिन नैतिकता और सच्चाई को अक्सर दरकिनार कर दिया जाता है। एक दृश्य में अमन को अपनी पत्नी की अचानक मृत्यु की खबर मिलती है, फिर भी वह सनसनीखेज खबरों को प्राथमिकता देता है। यह दृश्य पत्रकारिता के उस अमानवीय चेहरे को उजागर करता है, जहाँ व्यक्तिगत त्रासदी भी पेशेवर महत्वाकांक्षा के आगे हार जाती है।
‘द सैडिस्ट’ की खासियत यह है कि यह ‘सिस्टम’ को दोष देने के बजाय आत्ममंथन की ओर ले जाती है। फिल्म का मुख्य पात्र अमन एक ग्रे कैरेक्टर है—वह चीखता-चिल्लाता नहीं, बल्कि अपनी शांत और परिष्कृत भाषा से दर्शकों का विश्वास जीत लेता है। दानिश हुसैन कहते हैं, “अमन का किरदार इसलिए विश्वसनीय है क्योंकि वह अपनी बात को इतनी सफाई से रखता है कि दर्शक उस पर यकीन कर लेते हैं।” यह वह खतरनाक चेहरा है, जो सच को तोड़-मरोड़ कर पेश करता है, फिर भी उसे सही ठहराने में कामयाब रहता है।
कुंदन शशिराज ने इस फिल्म के जरिए यह दिखाने की कोशिश की है कि पिछले कुछ वर्षों में समाज में बढ़ता ध्रुवीकरण और नफरत कहीं न कहीं मीडिया की देन है। वह कहते हैं, “मैंने अपने आसपास के लोगों को बदलते देखा। ध्रुवीकरण और नफरत अब आम बात हो गई है। मैं यह समझना चाहता था कि यह सब कहाँ से आ रहा है।” उनकी यह कोशिश फिल्म में साफ झलकती है, जब वह न्यूज़रूम की उस भागदौड़ को दिखाते हैं, जहाँ पत्रकारों पर आकर्षक और सनसनीखेज खबरें पेश करने का दबाव होता है, भले ही इसके लिए नैतिकता को ताक पर रखना पड़े।
दशमणि मीडिया और निर्माता सुधांशु कुमार की इस फिल्म का एक और महत्वपूर्ण पहलू है इसका कम बजट में बनना। ‘द सैडिस्ट’ को केवल तीन दिनों में शूट किया गया और चार महीनों में पोस्ट-प्रोडक्शन पूरा हुआ। कलाकारों ने बिना किसी पारिश्रमिक के काम किया, यहाँ तक कि विनीत कुमार ने एक दृश्य के लिए अपना खाना भी खुद लाया। यह दर्शाता है कि यह फिल्म न केवल एक रचनात्मक प्रयास है, बल्कि एक जुनून भी है, जो समाज में बदलाव लाने की चाहत से प्रेरित है।
‘द सैडिस्ट’ की तुलना पीपली लाइव जैसी फिल्मों से की जा रही है, जो मीडिया की अतिशयोक्ति को व्यंग्यात्मक ढंग से दिखाती है। लेकिन जहाँ पीपली लाइव हास्य के जरिए सवाल उठाती है, वहीं ‘द सैडिस्ट’ एक गहरे और गंभीर दृष्टिकोण के साथ मीडिया की बदलती प्रवृत्ति को उजागर करती है। विपिन शर्मा का किरदार, जो मीडिया द्वारा प्रेरित हिंसा में आनंद लेता है, यह दर्शाता है कि दर्शकों की मांग ही कई बार खबरों की दिशा तय करती है।
जागरण फिल्म फेस्टिवल में चुनी गई यह फिल्म निश्चित रूप से आधुनिक मीडिया की जिम्मेदारियों और उसके सामाजिक प्रभाव पर बहस छेड़ेगी। यह हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या हमारा मीडिया समाज को जोड़ने का काम कर रहा है या फिर उसे और बाँट रहा है। दशमणि मीडिया और सुधांशु कुमार द्वारा प्रस्तुत ‘द सैडिस्ट’ एक ऐसी फिल्म है, जो न केवल देखने लायक है, बल्कि उस पर चर्चा करने की भी जरूरत है। यह एक चेतावनी है कि अगर हमने समय रहते अपने मीडिया की दिशा नहीं बदली, तो ध्रुवीकरण और नफरत का यह चक्र और गहरा होता जाएगा।