वैसे तो तैयारी हर किरदार के लिए होती है लेकिन ज़्यादा चैलेंजिंग और मज़ेदार ऐसे किरदारों के लिए हो जाता है जिनका जीवन एक बहुत बड़ा इतिहास रच चुका है - प्रतीक गांधी

punjabkesari.in Wednesday, Apr 16, 2025 - 09:10 AM (IST)

मुंबई। एक्टर प्रतीक गांधी और पत्रलेखा की फिल्म 'फुले' समाज सुधारक ज्योतिराव फुले और सावित्रीबाई फुले के जीवन पर आधारित है जो 25 अप्रैल को सिनेमा घरों में रिलीज़ होने जा रही है।  फिल्म में प्रतीक गांधी ज्योतिराव फुले और पत्रलेखा उनकी पत्नी  सावित्रीबाई फुले के किरदार में हैं और फिल्म को डायरेक्ट किया है अनंत महादेवन ने। ये फिल्म न सिर्फ ज्योतिराव फुले और उनकी पत्नी के संघर्षों को दिखाती है, बल्कि उस सोच को भी जगाती है, जो आज भी समाज में बदलाव की जरूरत को रेखांकित करती है। 

इसी के चलते फिल्म के लीड एक्टर्स प्रतीक गांधी , पत्रलेखा और डायरेक्टर अनंत महादेवन ने पंजाब केसरी, नवोदय टाइम्स, जगबाणी, और हिंद समाचार से खास बातचीत की। पेश हैं मुख्य अंश:

प्रतीक गांधी 

PunjabKesari

1 -  फुले जैसी ऐतिहासिक फिल्म का हिस्सा बनना आपके लिए कितना ख़ास रहा ?

बहुत ज़्यादा खास रहा मेरे लिए।  इसके बहुत सारे कारण भी हैं। सबसे पहली बात तो ये है कि मुझे मेरे जीवन में एक कलाकार के तौर पर किसी महात्मा का चरित्र करने को मिले ये भी बहुत बड़ी बात है और उन्होंने जो किया है वो हमने सिर्फ पढ़ा है और हम जब परफॉर्म करते हैं, उस चीज़ को वापिस कैमरे के सामने जीवित करते हैं तो वो सारे इमोशंस क्या रहे होंगे उसे हमे एक झिझक तो मिलती ही है। जो आपको अंदर से चेंज करती है आपके सोच विचार करने का तरीका तक चेंज करती है , बहुत कुछ बदलता है।  मैं अपने आप को भाग्यशाली मानता हूँ कि मुझे ऐसा करने का मौका मिला।  स्क्रिप्ट बहुत अच्छे से लिखी गई है। अनंत महादेवन का डायरेक्शन हम सब ने कहीं ना कहीं तो देखा ही है, जिस प्रकार की कहानियों को वो कहना चाहते हैं और उनका एक अलग तरीका भी है फिल्म बनाने का , तो सारे लिहाज़ से ये बहुत ही मज़ेदार जर्नी रही है।  

2 - इसके लिए आपने खुद को तैयार कैसे किया ?

पहले तो जो उनके बारे में स्क्रिप्ट में लिखा गया है वो अपने आप में ही बहुत है क्यूंकि बहुत सारी किताबों पर रिसर्च करने के बाद , क्रॉस चेक करने के बाद , ऐसे ऐतिहासिक घटनाओं को स्क्रिप्ट के पन्नों पर उतारा गया। तो वो पढ़ना , उसे समझना और उसे अपने अंदर उतारना , तो वो बहुत ही ज्ञानवर्दक जर्नी रही।  दूसरा ये कि इनका कोई ऐसा वीडियो , ऑडियो या फोटोग्राफ ऐसा है नहीं।  उनकी कुछ पेंटिंग से हमारे पास एक रेफेरेंस था कि वो कैसे दिखते थे।  हमारे लिए ये था कि जो चीज़ स्क्रिप्ट में नहीं लिखी गई है , जो इस फिल्म का हिस्सा भी नहीं है उस चीज़ को भी हम जाने।  ताकि उनके व्यक्तित्व को बनाने में हमें और थोड़ी समझ मिले।  इतना पता था कि उनकी फिसिकल अपीयरेंस बहुत स्ट्रांग थी। वो कसरत करते थे , अखाड़े में जाते थे और  8-10 लोगों के साथ अकेले भिड़ भी जाते थे।  तो ये जानना जरूरी था कि कोई ऐसा व्यक्तित्व जब किसी चीज़ को ठान लेता था तो कैसे रियेक्ट करता था।  एक बात जो मेरे लिए और अलग थी वो थी मराठी भाषा बोलते थे।  मराठी मेरी पहली भाषा नहीं है तो मैं मराठी में सोचता नहीं हूँ।  तो हमें ध्यान रखना था कि जब हम मराठी बोले तो पता लगना चाहिए कि  हम मराठी है और 1850 में जिस हिसाब से मराठी बोली जाती थी हम वैसे ही मराठी बोले। तो यही सारी चीज़ें थी जिनकी तैयारी करनी थी। 

3 - एक ऐसा किरदार जिसको कभी तस्वीर में भी ना देखा हो सिर्फ सुना हो तो ऐसा किरदार करना कितना चुनौतीपूर्ण रहा ? 

बहुत चुनौतीपूर्ण था और साथ ही काफी मज़ेदार भी था।  ऐसे किरदारों को जब हम स्क्रीन पर उतारते हैं तो इतिहास की कुछ चीज़ें होती हैं हमारे पास।  बाकी हम उस किरदार को अपने दिमाग में बनाते हैं और उसे सोच विचार को अपनाते हैं कि हम जब भी कुछ बोले , या कुछ करें या बिना बोले या करे सिर्फ चल ही रहे हैं तो आपको ऐसा लगना चाहिए कि आप फुले को , उनके जीवन को और उस समय को देख रहे हैं।  बतौर एक्टर तो वैसे ये बहुत ही बेसिक तैयारी है जो हर एक्टर किसी भी किरदार के लिए करता है पर ज़्यादा चैलेंजिंग और मज़ेदार ऐसे किरदारों के लिए हो जाता है जिनका जीवन एक बहुत बड़ा इतिहास रच चुका है।  

4 - काफी इमोशनल मूवी है तो कोई ऐसा सीन है जो करना आपके लिए इमोशनली बहुत मुश्किल रहा हो ?

बहुत सारे ऐसे सीन है जो करते वक्त मुझे ऐसा लग रहा था कि जिन्होंने ये चीज़ जी है जिन्होंने ये महसूस किया होगा उस वक्त उनपर क्या बीती होगी।  इतना सोचकर ही ओवर वेल्मिंग हो जाते थे, कई बार गूसबम आते थे और कई बार आंखे भर जाती थी और पता भी नहीं चलता कि ये क्या हो रहा है मेरे साथ।  बहुत सारे ऐसे सीन थे।  उनके अंतिम समय वाले टाइम जब उन्हें पैरालिसिस हो गया था और फिर भी जिस हिसाब से अपने सारे लोगों को एक संदेश दे रहे हैं या एक बात बता रहे है मैं तो वो सिर्फ परफॉर्म कर रहा था लेकिन वो करते वक्त भी कुछ फील हो रहा था मुझे।  वैसे भी बहुत बार ऐसा होता है कि जो किरदार हम निभा रहे होते हैं उसकी एनर्जी हम बहुत करीब से महसूस करते हैं।  

5 - फुले जी की ज़िंदगी की कोई ऐसी चीज़ जो आपको लगी हो कि ये मैंने रख लेनी है सारी ज़िंदगी के लिए ?

ऐसी बहुत सारी चीज़ें है , उनके बहुत सारे ऐसे कोट्स भी हैं।  जैसे उनका एक कोट है कि 'अच्छे विचार तो रोज़ आते हैं पर जब तक उनपर अमल ना किया जाए उनकी कोई वैल्यू नहीं और उनपर अमल वही कर सकता है जो बहुत हिम्मत रखता हो' , ये बात सुनने में बहुत कॉमन लगती है लेकिन जिस समय उन्होंने ये बात कही और उससे भी जरूरी जिस कॉन्टेक्स्ट में ये बात कही वो बहुत मुश्किल था।  तब तो सवाल पूछना भी उतना ही मुश्किल था।  तो ऐसी कुछ चीज़ें है जो मुझे लगता है कि हमेशा मेरे साथ रह जाएंगी।  

6 - पिछली बाकी सारी फिल्मों के मुकाबले फुले कैसे अलग साबित हुई है ?

हम अपने आसपास जितनी चीज़ें सुनते थे सिर्फ फिर चाहे वो जेंडर इक्वलिटी की बात है , कास्ट डिस्क्रिमिनेशन की बात है , धर्म के नाम पर जो कुछ होता है , ये सारी बातें ना हमने फिल्मों में , किताबों में , कहानियों में , स्कूल में , सब जगह थोड़ी थोड़ी पढ़ी है लेकिन ये पहली बार हुआ है कि मैंने इसी इतनी करीब से जाना और परफॉर्म किया है।  तो उस हिसाब से ये किरदार , ये कहानी , ये फिल्म सब कुछ बहुत - बहुत अलग है मेरे लिए।  

7 - आप ऐतिहासिक या बायोपिक फिल्मों में और कौन-कौन से किरदार निभाने की ख्वाहिश रखते हैं?

ऐसे तो बहुत सारे है लेकिन मैं सरदार बलव भाई पटेल और चाणक्य का किरदार निभाना चाहता हूँ।  बलव भाई पटेल का सोचने और निर्णय लेने का तरीका मुझे बहुत अच्छा लगता था और चाणक्य की जो सोच उनकी जो कूटनीति वाली बातें थी , जिसके बारे में हमने सीरियल और किताबों में पढ़ा सुना या देखा है।  मैं जितना उनके बारे में सोचता हूँ तो मुझे ये लगता है कि राजनीति है जो उसे वो बहुत ही अलग नज़रिये से देखते होंगे शायद।  वो बहुत कुछ मैनेज करना सिखाते हैं।  

पत्रलेखा

PunjabKesari

1 - वैसे तो हम बहुत मॉडर्न हो गए है लेकिन आपको क्या लगता है कि ऐसी कौन सी चीज़ है जिससे अभी भी मॉडर्न वूमेन लड़ रही है ?

मुझे लगता है कि लड़कियों की पढ़ाई और जातिवाद इससे तो आज भी हम लड़ रहे हैं।  आज कल तो बहुत सारी बच्चियां स्कूल नहीं जा पाती एक तो स्कूल काफी दूर होता है और उन्हें पैदल चल कर जाना पड़ता है दूसरा उनके जो टॉयलेट है वो बहुत दूर है क्लास रूम से , जहाँ पहुँचने में ही उन्हें 15 से 20 मिनट लगते हैं , इस लिए भी वो स्कूल नहीं जाती।  

2 - हर फिल्म एक एक्टर को कुछ नया सिखाती है तो फुले ने आपको क्या सिखाया ? 

फुले ने मुझे सिखाया सेल्फ कॉन्फिडेंस , डिटर्मिनेशन और स्ट्रेंथ।  

3 - आपने अभी अपना प्रोडक्शन हाउस भी खोला तो अभी कंटेंट को लेकर दिमाग में क्या चल रहा है? अपने आप को कास्ट करेंगी आप ? 

मेरे प्रोडक्शन हाउस में मैं अपने आप को भी कास्ट नहीं करुँगी अगर फिल्म मेरे लिए सही नहीं होगी।  प्रोडक्शन हाउस खोलने का मोटिव ही यही था कि हम अच्छा कंटेंट बनाए।  बहुत सारे अच्छे डायरेक्टर्स और नए अच्छे कलाकार हैं हम उनके साथ काम करना चाहते हैं अच्छी अच्छी फ़िल्में बनाना चाहते हैं यही मोटिवेशन है।  मोटिवेशन ये नहीं था कि काम नहीं मिल रहा तो अपना प्रोडक्शन शुरू करते हैं।  लेकिन अगर एक अच्छी स्क्रिप्ट आएगी और मुझे लगेगा कि मैं उसमें फिट बैठूंगी तो मैं जरूर वो फिल्म करूंगी। लेकिन वो टाइम अभी तक नहीं आया।  

4 - फिल्मों को लेकर आपके लिए क्या चीज़ है जो नॉन नेगोशिएबल है ?

स्क्रिप्ट।  दूसरा मुझे अपने डायरेक्टर के साथ कोलैबोरेट करना बहुत पसंद है और अगर मुझे लगेगा कि मैं डायरेक्टर के विज़न के साथ कोलैब्रेट नहीं कर पा रही तो मैं उस फिल्म को ना करना ज़्यादा पसंद करूंगी।  क्यूंकि फिर जाके वो बहुत मैसी और टॉक्सिक हो जाता है। और जो यादें रह जाती हैं वो अच्छी नहीं रहती।    

अनंत महादेवन 

PunjabKesari

1 - पहले जैसी मुवी का आईडिया आने से फिल्म बनने तक का सफर कैसा रहा ?

बहुत अच्छा रहा। लेकिन ज्योतिराव फुले और सावित्रीबाई फुले को जो सिनेमैटिक जो जस्टिस देना चाहिए वो हुआ नहीं था तो हमने पूरी टीम ने इकट्ठा होकर सोचा कि इन पर फिल्म बननी चाहिए।  अंत तक ग्रोथ तो हर आदमी का होता है हर एंगल से और हम सब का भी हुआ है।  

2 - क्या 90's की  कोई ऐसी चीज़ है जिसे आप बहुत मिस करते है जो अब नहीं है लेकिन आप चाहते हैं कि वो होनी चाहिए ?

पहले इंडिपेंडेंट प्रोडूसर्स थे और वो अपने फैसले खुद लेते थे उनको कोई और नहीं डिक्टेट करता था , इसी वजह से पहले एक अच्छी बॉन्डिंग होती थी और बहुत अच्छी फ़िल्में भी बनती थी।  ये बात 60 , 70 और 80's की कर रहा हूँ , क्यूंकि 90's तो मुझे लगता है कि हिंदी सिनेमा का बुरा टाइम था।  लेकिन 80 में भी बहुत अच्छी फ़िल्में बनाई गई थी। अब तो अनुशासन और सिस्टम के नाम पर बहुत कुछ बदल गया है , सब कुछ कॉरपरेट वर्ल्ड में चला गया और मुझे लगता है कि वो क्रिएटिव प्रोसेस से वाकिफ नहीं हैं।  ये लोग कॉर्पोरेट की दुनिया से है ये कुछ भी बेच सकते हैं लेकिन एक आईडिया नहीं बेच सकते।  हमें भी ये लगता है कि कुछ चीज़ें मैच नहीं हो रही है। 

3 - आपको क्या लगता है कि ये चीज़ें बदलेंगी ?

हां जी , मुझे लगता है कि इंडिपेंडेंट प्रोडूसर्स वापस आएँगे।  जो कुछ चल रहा है उसे देखकर लगता है कि कॉरपोरेट सेकंडरी हो जाएगा और पहले फिर से क्रिएटिविटी ही आएगी।


सबसे ज्यादा पढ़े गए

News Editor

DW News

Related News