रिक्शा चलाने वाले के बेटे को दी ऐसी शिक्षा कि बना आइएएस अफसर
Saturday, Sep 01, 2018 - 01:54 PM (IST)
वाराणसीः बृहदारण्य उपनिषद में सूर्य से प्रार्थना की गई है- असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय..। हे प्रकाशपुंज, हमें असत्य से सत्य की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो..। व्यक्ति और समाज के निर्माण में शिक्षक की भूमिका भी यही है। आगामी शिक्षक दिवस (05 सितंबर) के उपलक्ष्य में हम दायित्व बोध से भरे ऐसे ही समर्पित शिक्षकों की प्रेरक गाथाएं प्रस्तुत करने जा रहे हैं, जो हमारे लिए प्रकाशपुंज हैं।
वाराणसी के रहने वाले गोविंद बतौर आइएएस गोवा में पदस्थ हैं। उनके पिता ने रिक्शा चलाना छोड़ दिया है। मात्र परिवार ही नहीं वरन पीढ़ियों को गरीबी के घने अंधकार से मुक्ति मिल गई है। उन्हें उन्नति के सुनहरे प्रकाश की ओर ले जाने वाली कोई और नहीं, वरन एक समर्पित शिक्षिका हैं, डॉ. संगीता श्रीवास्तव।
भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयनित हो गोविंद इन दिनों गोवा में सचिव, विजिलेंस, स्वास्थ्य व खेल विभाग के तौर पर सेवा दे रहे हैं। वह बताते हैं कि उन्हें इस मुकाम तक पहुंचाने में बनारस के हरिश्चंद्र डिग्री कॉलेज की शिक्षका डॉ. संगीता श्रीवास्तव का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। डॉ. संगीता सहित कॉलेज के कुछ अन्य शिक्षकों ने गोविंद की प्रतिभा को देखते हुए अतिरिक्त समय और जरूरत के अनुरूप हर तरह की सहायता कर उसे पढ़ाया, आगे बढ़ाया और प्रतियोगी परीक्षा के लिहाज से प्रशिक्षण मुहैया कराया। नतीजा सामने है। आइएएस गोविंद जायसवाल अपनी इस बड़ी सफलता का श्रेय अपने इन गुरुओं को देते हैं।
गोविंद के पिता नारायण जायसवाल रिक्शा चलाते थे। डॉ. संगीता बताती हैं कि गोविंद पढ़ने में बहुत ही होनहार थे। उन्होंने वर्ष 2000 में बीएससी में दाखिला लिया था। पढ़ाई के दौरान कभी भी उन्होंने कोई क्लास नहीं छोड़ी। यही नहीं वह नियमित और बिल्कुल ठीक समय पर कॉलेज आ जाते थे। चुपचाप पीछे वाली बेंच पर बैठ जाते थे। क्लास में जो भी पढ़ाया जाता था, उसे पूरे ध्यान से सुनते और गुनते थे। जब कभी कोई सवाल समझ में नहीं आता था तो वह मेरे कक्ष के सामने आकर खड़े हो जाते और बढ़ी ही शालीनता से पूछ कर कमरे में आते। उनकी जिज्ञासा देखकर कई बार उन्हें अलग से समय देकर पढ़ाया गया। हालांकि एक बार में वह सवाल समझ लेते थे। शांत स्वभाव के होने के कारण वह सभी शिक्षकों व छात्रों से घुल मिलकर नहीं रहते थे। गरीब परिवार का होने के बावजूद उन्होंने कभी भी अपनी गरीबी का उल्लेख नहीं किया। वह हमेशा कहते थे मैडम मुझे आइएएस बनना है। उनकी लगन को देख कर उन्हें पढ़ाने में काफी संतोष मिलता था।