जानें कैसे हुई एक्स-रे’ की क्रांतिकारी खोज, पढ़े इतिहास

punjabkesari.in Saturday, Jan 18, 2020 - 01:04 PM (IST)

नई दिल्ली: ‘एक्स’ किरणों को न तो देखा जा सकता है, न महसूस किया जा सकता है। हालांकि, ये किरणें त्वचा, हड्डियों तथा धातु को सहजता से पार कर जाती हैं तथा उनके ऐसे चित्र भी बना देती हैं जिन्हें आंखों से देख पाना असम्भव होता है। ‘एक्स’ किरणों का प्रयोग आज टूटी हुई हड्डियों की तस्वीर लेने में, रेडिएशन थैरेपी में तथा हवाई अड्डों की सुरक्षा आदि में किया जा रहा है। इनकी खोज जर्मनी के भौतिकशास्त्री विल्हेल्म कोनराड रॉन्टजन ने सन् 1895 में 50 वर्ष की उम्र में की थी। 18वीं सदी के अंत तक वैज्ञानिकों को इन किरणों के बारे में कोई जानकारी नहीं थी इसलिए इनका नामकरण ‘एक्स रे’ किया गया जिसका मतलब होता है ‘अज्ञात किरणें’। रॉन्टजन के नाम इन किरणों को ‘रॉन्टजन रेज’ भी कहा जाता है। इनकी खोज के लिए रॉन्टजन को 1901 में भौतिकी का पहला नोबेल पुरस्कार भी प्रदान किया गया था।

क्रांतिकारी खोज
‘एक्स’ किरणों का उपयोग केवल शरीर की हड्डियों को ही चित्रित करने में नहीं किया जाता, बल्कि इनके द्वारा कैंसर जैसे भयानक रोग का इलाज भी किया जाता है। इनसे रिंगवार्म जैसे त्वचा रोगों का भी इलाज किया जाता है। इनके द्वारा शरीर में घुसी गोली, गुर्दे की पथरी तथा फेफड़ों के विकार का भी पता लगाया जाता है। इनके जरिए अपराधियों द्वारा शरीर के हिस्से में छिपाई गई हीरा-मोती या सोने जैसी मूल्यवान वस्तुओं का पता भी लगाया जा सकता है। अनुसंधान प्रयोगशालाओं में एक्स किरणों की सहायता से मणियों की संरचना का पता लगाया जाता है।

सन् 1972 में इन किरणों को प्रयोग में लाकर सी.टी. स्कैनर विकसित की गई जिसका प्रयोग आज शरीर की आंतरिक बीमारियों का पता लगाने के लिया किया जाता है।  वैसे उन्होंने एक्स-किरणों के अतिरिक्त और भी कई अनुसंधान किए। वह महान भौतिक शास्त्री थे। 19वीं सदी के अंत में वह बुर्जबर्ग से म्यूनिख आ गए और 77 साल की उम्र में इसी शहर में उनका देहांत हो गया।

जर्मनी में जन्मे
विल्हेम रॉन्टजन का जन्म जर्मनी के लेनेप नामक स्थान पर हुआ था। इनके पिता एक किसान थे। उनकी शिक्षा हॉलैंड में हुई। सन् 1885 में वह बुर्जबर्ग विश्वविद्यालय में भौतिकी के प्रोफैसर पद पर नियुक्त किए गए। यहीं उन्होंने एक्स किरणों का आविष्कार किया।

संयोग से हुई खोज
इनकी खोज की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है। वह अपनी प्रयोगशाला में एक ‘कैथोड रे ट्यूब’ पर कुछ परीक्षण कर रहे थे। उन्होंने पर्दे गिराकर प्रयोगशाला में अंधेरा कर रखा था और ट्यूब को काले रंग के गत्ते के डिब्बे से ढंक रखा था। रॉन्टजन ने देखा कि ट्यूब के पास में रखे कुछ बेरियम प्लेटीनो साइनाइड के टुकड़ों से एक प्रकार का प्रकाशपुंज जगमगाहट के साथ निकल रहा है। तब उन्होंने चारों ओर देखा तो पाया कि उनकी मेज से कुछ फुट की दूरी पर एक पर्दा भी चमक रहा है। यह देखकर उनकी हैरानी का ठिकाना न रहा क्योंकि ट्यूब तो काले गत्ते से ढंकी हुई है और कैथोड किरणों का बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं है। उन्हें यह विश्वास हो गया कि निश्चय ही ट्यूब से कुछ अज्ञात किरणें निकल रही हैं जो मोटे कागज से भी पार हो सकती हैं।

चूंकि उस समय इन किरणों के विषय में कुछ ज्ञान न था इसलिए रॉन्टजन ने इनका नाम ‘एक्स-रे’ रख दिया। ‘एक्स’ शब्द का अर्थ है ‘अज्ञात’। अपने प्रयोगों के दौरान उन्हें इन किरणों के कुछ विशेष गुण पता लगे। उन्होंने देखा कि ये कागज, रबड़ तथा धातुओं की पतली चादर के आर-पार निकल जाती हैं।

तब उन्हें एक बहुत ही महत्वपूर्ण किन्तु सरल विचार सूझा। उन्होंने सोचा कि जैसे साधारण प्रकाश से फोटो फिल्म प्रभावित हो जाती है, हो सकता है इन रहस्यमयी किरणों का भी फोटो फिल्म पर कुछ प्रभाव पड़े। इस विचार को प्रयोगात्मक रूप से परखने के लिए उन्होंने एक फोटो फिल्म को डिवैल्प किया तो देखा कि प्लेट पर हाथ की हड्डियां स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही हैं तथा उनके चारों ओर मांस धुंधला-सा दिखाई दे रहा है।

प्रोफैसर रॉन्टजन की पत्नी ने अंगूठी पहन रखी थी। ‘एक्स’ किरणों से लिए गए उनके हाथ के चित्र में यह अंगूठी भी स्पष्ट दिखाई दे रही थी। यह पहला अवसर था जब किसी जीवित व्यक्ति के ढांचे का चित्र लिया गया था। ‘एक्स’ किरणों के आविष्कारक प्रोफैसर रॉन्टजन और उनके दो साथियों जिन्होंने इन किरणों के विकास में अत्यन्त महत्वपूर्ण योगदान दिया था, की इनके घातक प्रभाव से मृत्यु हुई। यद्यपि ये किरणें जीवनदायी हैं लेकिन शरीर पर इनके घातक प्रभाव होते हैं।


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Author

Riya bawa

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