आपका ज्ञान ही आपका भगवान है

Friday, Jun 01, 2018 - 10:46 AM (IST)

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श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप व्याख्याकार: स्वामी प्रभुपाद 
अध्याय 4 (दिव्यज्ञान)

ज्ञान से ही मुक्ति 

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्ध: कालेनात्मनि विन्दति ।।38।।

शब्दार्थ: न—कुछ भी नहीं; हि—निश्चय ही; ज्ञानेन—ज्ञान से; सद्दशम्—तुलना में; पवित्रम्—पवित्र; इह—इस संसार में; विद्यते—है; तत्—उस; स्वयम्—अपने आप; योग—भक्ति में; संसिद्ध:—परिपक्व होने पर; कालेत—यथासमय; आत्मनि—अपने आप में, अंतर में; विन्दति—आस्वादन करता है।

अनुवाद: इस संसार में दिव्य-ज्ञान के समान कुछ भी उदात्त तथा शुद्ध नहीं है। ऐसा ज्ञान समस्त योग का परिपक्व फल है। जो व्यक्ति भक्ति में सिद्ध हो जाता है वह यथासमय अपने अंतर में इस ज्ञान का आस्वादन करता है।

तात्पर्य: जब हम दिव्यज्ञान की बात करते हैं तो हमारा प्रयोजन आध्यात्मिक ज्ञान से होता है। नि:संदेह दिव्यज्ञान के समान कुछ भी उदात्त तथा शुद्ध नहीं है। अज्ञान ही हमारे बंधन का कारण है और ज्ञान हमारी मुक्ति का। यह ज्ञान भक्ति का परिपक्व फल है। 

जब कोई दिव्यज्ञान की अवस्था को प्राप्त कर लेता है तो उसे अन्यत्र शांति खोजने की आवश्यकता नहीं रहती क्योंकि वह मन ही मन शांति का आनंद लेता रहता है। दूसरे शब्दों में, ज्ञान तथा शांति का पर्यवसान कृष्णभावनामृत में होता है। भगवद गीता के संदेश की यही चरम परिणति है। 
(क्रमश:)



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Niyati Bhandari

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