श्री हरि ने जब-जब धरती पर अवतार लिया, फॉलो किए ये Rules

Sunday, Apr 19, 2020 - 09:13 AM (IST)

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हमारे धर्म-ग्रन्थों में बताई गई कथाओं में रिश्तों के सम्मान के संबंध में श्री हरि जी की बहुत सी लीलाओं का वर्णन प्राप्त होता है। भगवान ने अपनी इन लीलाओं के माध्यम से जगत के प्राणीमात्र को यह शिक्षा दी कि ज्ञान का लक्ष्य तभी पूर्ण होता है यदि हम भगवान द्वारा प्रदान किए गए रिश्ते अथवा संबंधों का सम्मान करेंगे। भगवान ने अपनी लीलाओं में बड़े ही सरल भाव से इन रिश्तों को परिभाषित किया।

भगवान श्री कृष्ण तथा सुदामा की मित्रता ने सम्पूर्ण विश्व को यह प्रेरणा दी कि मित्र के रिश्ते के सम्मान में कोई बाधा नहीं होती। मित्रता का भाव ऊंच-नीच, छोटे-बड़े की बाधाओं से ऊपर होता है। कोई भी सांसारिक अवरोध किसी को मित्र धर्म का पालन करने से नहीं रोक सकता। भले ही भगवान श्री कृष्ण देवकी व वसुदेव के पुत्र थे, लेकिन उनका पालन-पोषण यशोदा व नंद ने किया। भगवान श्री हरि ने माता-पिता के रूप में दोनों को समान रूप से सम्मान प्रदान कर अपने कर्तव्यों का निर्वहन किया।

भगवान अपने पूर्ण परब्रह्म रूप में इस धरा पर अवतरित हुए। उन्होंने सांदीपनी ऋषि के आश्रम में शिक्षा ग्रहण की। अपने कुलगुरु गर्गाचार्य तथा ऋषि सांदीपनी जी का उन्होंने बहुत सम्मान किया। उनकी आज्ञा का पालन किया। भगवान ने सदैव श्रेष्ठ एवं ज्ञानी पुरुषों एवं सन्तों को सम्मान दिया। वास्तव में यही वैदिक सनातन संस्कृति की विलक्षणता है। जहां स्वयं जगत के पालनहार ने अपने माता-पिता, गुरु-मित्र एवं संबंधियों के प्रति बड़े ही मर्यादित, सम्मानित तथा आदर भाव से कर्तव्यों को निभाया।

वास्तव में मानवीय जीवन का आधार ये रिश्ते ही हैं, इनसे विमुख होकर मनुष्य के जीवन में नीरसता के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं। अर्जुन भगवान के सखा थे। युद्ध भूमि में जब अर्जुन ने अपने सखा गोबिन्द से मार्गदर्शन मांगा तब भगवान ने सखा भाव से ही अर्जुन को भगवद्गीता के रूप में धर्मोपदेश दिया। स्वयं नारायण होते हुए भी शेषनाग के रूप में अवतरित हुए बलराम जी को अपने बड़े भाई के रूप में सम्मान दिया।

जब प्रभु श्री राम के रूप में श्री हरि अवतरित हुए तब प्रभु को जिस कैकेयी ने 14 वर्ष का वनवास दिया। वनवास से लौटने पर उन्होंने अपनी माता कौशल्या से पहले भरत जी की माता जी कैकेयी का सर्वप्रथम चरण वन्दन कर सम्मान दिया। केवट, सुग्रीव, विभीषण सभी से प्रभु ने मित्रता भाव से रिश्ता निभाया। अपने पिता की पत्नियों कैकेयी तथा सुमित्रा के पुत्रों भरत जी, शत्रुघ्न जी तथा लक्ष्मण जी के प्रति सहोदर भाई से भी अधिक प्रेमभाव रखा। भरत जी ने भी भगवान श्री राम की अनुपस्थिति में भगवान श्री राम जी के मर्यादित आचरण का अनुसरण करते हुए प्रभु राम जी की चरण पादुक को ही स्थापित कर अयोध्या का शासन चलाया।

प्रभु ने अपने आचरण से मानवीय रिश्तों का सम्मान करने की प्रेरणा दी। भगवान श्री राम ने गुरु के रूप में महर्षि वसिष्ठ तथा महर्षि विश्वामित्र की सेवा कर शिक्षा प्राप्त की। सम्पूर्ण विश्व को वेद तथा उपनिषदों का ज्ञान प्रदान करने वाले प्रभु ने अपनी मानवीय लीला में अपने मर्यादित आचरण से सम्पूर्ण विश्व के लिए अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया। रावण जैसे असुर का वध कर, उसके अन्तिम समय में उसकी विद्वता का सम्मान करते हुए अपने छोटे भाई लक्ष्मण को उससे नीति का ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया।

हमारे धर्म-ग्रन्थों में मानवीय मूल्यों पर आधारित मानवीय रिश्तों को सबसे अधिक महत्व प्रदान किया गया है। वास्तव में हमें अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए मानवीय संबंधों को राष्ट्र एवं समाज हित में मजबूत कड़ी के रूप में इसकी अत्यधिक उपयोगिता को नजर अंदाज नहीं करना चाहिए। मानवीय रिश्तों की मर्यादा शाश्वत सिद्धांतों का प्रतिपादन करती है जिसका अनुकरण स्वयं श्री हरि ने भी किया है।

Niyati Bhandari

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