विचार करें, जब आप होंगे उम्र की ढलती सांझ में...

Monday, Sep 11, 2023 - 08:31 AM (IST)

शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ

संसार में आने के बाद सबसे पहले हर किसी पर माता-पिता का साया ही पड़ता है। उन्हीं की परवरिश, संस्कार और देखरेख में ही हर कोई बड़ा होता है। लेकिन बड़े होते-होते कई लोग इतना आगे बढ़ जाते हैं कि माता-पिता बहुत पीछे छूट जाते हैं। पलटकर उनकी ओर देखने की फुर्सत भी नहीं होती। अपने माता-पिता को लावारिस-सा छोड़ने वालों को सबक सिखाने के लिए महाराष्ट्र में कोल्हापुर स्थित हातकणंगले तालुका की माणगांव ग्राम पंचायत ने बहुत ही अच्छा निर्णय लिया है। इस ग्राम पंचायत ने उन घरों की जलापूर्ति काटने का फैसला किया है, जहां बुजुर्ग माता-पिता की देखभाल नहीं हो रही। 



इस पंचायत ने राज्य सरकार से मांग की है कि बुजुर्गों की संपत्ति से उनके बच्चों को बेदखल भी कर दिया जाए। दरअसल, ऐसा होना भी चाहिए क्योंकि बड़े-बुजुर्गों की संपत्ति जाने के बाद यदि बच्चे भी दूर हो गए तो उनके पास जीने के लिए बचेगा क्या ? इस बारे में मुंबई के एक परिवार की याद आती है, जिसमें 5 बच्चे थे। 

पिता के न रहने पर मां ने उन्हें अभावों में किसी तरह पाल-पोसकर बड़ा किया। मां के धैर्य और साहस का परिणाम था कि पांचों भाई पढ़-लिख कर अच्छे काम-धंधे पर लग गए। हर कोई उनके परिवार को देखकर कहता कि परिवार हो तो ऐसा। 
बाल-बच्चे होने के बाद परिवार बढ़ा। एक-साथ रहना संभव नहीं था। तब सबने मिलकर अलग-अलग घरों में रहने का फैसला किया। 

सभी ने बैठकर तय किया कि संपत्ति का किस तरह बंटवारा होना है। सवाल उठा कि मां कहां रहेगी ? सभी ने स्वीकार किया कि मां जब जहां चाहे रहेंगी। पिताजी के नाम के मकान को किराए पर देंगे। उसका पूरा किराया मां लेगी। ये सब पूरी सहमति से हुआ। आज मां की देखभाल के लिए वे सब तत्पर रहते हैं। उनकी आपसी एकता और परस्पर प्रेम एक अद्भुत आदर्श है। 

मां के लिए तो यह बहुत खुशी की बात हुई कि सारी जिंदगी एक घर में बिताने वाली मां आज पांच घरों की मालिक है। अब घर अलग हुए तो वे किसी भी घर में चली जाती क्योंकि वह अपने हर पुत्र से दिन में एक बार मिलने को व्याकुल रहतीं। खाने के समय जहां होती, वहीं खाना खा लेतीं।

मां की सब चिंता करते हैं। क्योंकि यह वही मां है जो दर्द-पीड़ा और आर्थिक अभावों से गुजरने के बावजूद पूरे परिवार को एक-साथ विकास की राह पर लाने का आधार रही हैं। बच्चों को अपने हाथों से खाना खिलाने वाली वह मां, जिसने अपनी परवाह किए बिना सब कुछ संभाला।



वह मां, जिसने सबका गुस्सा, ताने सब कुछ सुना, पर कभी कुछ न कहा। वह मां, जो आज भी अपनी मनपसंद चीज न मिलने पर कोई शिकायत नहीं करती। बस सबकी खुशियों का ध्यान रखती हैं। इसी मां का दूसरा नाम त्याग है।

चाहे बेटे के माता-पिता हों या बहू के, सभी के माता-पिता का एक जैसा सम्मान होता है। माता-पिता अपने बच्चों पर स्नेह, वात्सल्य और आशीष की धारा हरदम प्रवाहित करते रहते हैं। आधुनिक जमाने में कई पति-पत्नी अपने बच्चों, रिश्तेदारों, मित्रों, सहकर्मियों आदि के साथ सैर-सपाटे, मनोरंजन और व्यस्त जीवनशैली में अपने मां-बाप से बहुत दूर हो गए हैं। 

उन्हें अपने मां-बाप के पास बैठने, उनका हालचाल पूछने, उनका दुख-दर्द समझने की चिंता नहीं है। उनसे स्नेह से बात करने की फुर्सत भी नहीं है मगर ध्यान रहे, कल उनके साथ भी ऐसा हो सकता है।

एक कवि ने सच ही कहा है-
छलिया यह संसार है, पकड़ छोड़ दे हाथ। छोड़ते न मां-बाप हैं, रहें अंत तक साथ॥  

Niyati Bhandari

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