ये काम करने से शिव जी होते हैं प्रसन्न, करते हैं हर मनोकामना पूरी

Friday, May 13, 2022 - 01:05 PM (IST)

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भारत की सांस्कृतिक धरातल पर पर्यावरण का अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थान रहा है। पर्यावरण के संरक्षण में प्राचीन भारतीय परम्पराओं का विशेष योगदान है। हमारे मनीषियों ने प्रकृति की समग्र शक्तियों को जीवनदायिनी स्वीकार करते हुए उन्हें देवत्व का स्थान प्रदान किया है। हमारे पूर्वजों को पर्यावरण में असंतुलन होने पर पृथ्वी पर बढऩे वाले खतरों की पर्याप्त जानकारी रही। वे प्रकृति को मनुष्यमात्र के लिए सर्वाधिक फलदायी मानते थे इसीलिए इसे जीवन का अभिन्न अंग मानते हुए उसकी पूजा अर्चना की व्यवस्था की गई थी।

वेदों का संदेश  
संत पुरुषों ने इसी संस्कृति को अपने आश्रमों और बाहर पल्लवित पुष्पित किया। धरती को मातृवत मानकर जल, हवा, नदियां, पर्वत, वृक्ष और जलाशयों को पूजनीय मानकर उनकी सुरक्षा एवं संरक्षण की व्यवस्था की गई। भूमि के दान से जो लोक प्राप्त होते हैं और जो गौ के दान से बतलाए हैं, उन्हीं लोकों को वृक्ष लगाने से मनुष्य प्राप्त करता है। वेदों का संदेश है कि मानव शुद्ध वायु में श्वास ले, शुद्ध जलपान करे, शुद्ध अन्न का भोजन करे, शुद्ध मिट्टी में खेल कूदे और कृषि करे तभी वेद प्रतिपादित उसकी आयु ‘शं जीवेम शरद’ हो सकती है। वृक्ष वनस्पति भगवान नीलकंठ का रूप हैं क्योंकि वे विषैली गैसों को पीकर अमृतमयी गैस निकालते हैं। अत: वृक्षों को सींचना भगवान शिव को जल चढ़ाने के समान है।



वेदों में इस बात का संकेत है कि पीपल के नीचे बैठना स्वास्थ्यप्रद है तथा पलाश (ढाक) के पेड़ दिन-रात सुगंध और प्राणवायु छोड़ते हैं। वृक्ष हमारी संस्कृति की धरोहर हैं, इसीलिए अनेक वृक्ष पूज्य माने जाते हैं। तुलसी को विष्णुप्रिय माना गया है। विष्णु पुराण में सौ पुत्रों की प्राप्ति से बढ़कर एक वृक्ष लगाना माना गया है। भक्त व भगवान के तिलक लगवाने के लिए चंदन सर्वमान्य है। मत्स्य पुराण में दस कुंओं, बावड़ियों  व तालाबों से भी बढ़कर वृक्ष लगाने को विशेष माना  गया है।

पुराकाल में यदि अपरिहार्य कारणों से किसी वृक्ष को काटना पड़ता था तो वृक्ष से क्षमा मांगने का प्रावधान था। राजस्थान में बिश्रोई समाज द्वारा जोधपुर जिले में खेजड़ी के वृक्ष को बचाने के लिए बलिदान दिए हैं। पीपल और बरगद के पेड़ों को तो ब्राह्मण माना गया है। अत: उन्हें काटना ब्रह्म हत्या के समान है। तुलसी का पौधा तो इतना पवित्र माना गया है कि हर भारतीय उसे घर में लगाता है  तथा उसके विवाह की भी परम्परा भारतीय समाज में रही है।

हमारे ऋषि महात्माओं के आश्रम वन खंडों में स्थित हैं। अनेक पेड़ों का संबंध देवी-देवताओं से जोड़ा गया है। पीपल में विष्णु वास, नीम को नारायण कहा गया है। वृक्षों के हैं अनगिनत लाभ पेड़ों की स्थिति पर भी विचार किया जाता है। नीम का पेड़ गांव की चौपाल पर और पीपल का पेड़ गांव के बाहर जलाशय के किनारे शोभायमान होता है। जिस वृक्ष पर पक्षियों के घोंसले हों तथा देवालय और श्मशान भूमि पर खड़े पेड़ों को नहीं काटना चाहिए जैसे बड़, पीपल, आक, नीम आदि। सिंधु घाटी की सभ्यता में प्राप्त मुहरों पर अंकित चित्रों से स्पष्ट है कि सिंधु घाटी के निवासी वृक्षों की पूजा किया करते थे।

प्राचीन काल से ही पेड़ों को सींचने की परम्परा चली आ रही है। वैशाख महीने में भारतीय नारियां व बालिकाएं पीपल के पेड़ को सींचती हैं। इसके पीछे यही धारणा है कि ज्येष्ठ मास की भीषण गर्मी से इन पेड़ों को बचाया जा सके। पेड़ों के बचाव व संरक्षण हेतु गोचर भूमि आदि व्यवस्थाएं क्रियान्वित की गईं। वन्य जीव-जंतु भी हमारे पर्यावरण के प्रमुख अंग माने जाते हैं। इनकी सुरक्षा के लिए वन्य जीवों को पूज्य मान कर इनकी पूजा का भी विधान हमारी सांस्कृतिक परम्पराओं में रखा गया है।

भारतीय संस्कृति में दस अवतारों में चार अवतार पशुओं व जंतुओं से संबद्ध हैं जैसे मत्स्य अवतार, वराह अवतार, कच्छप अवतार तथा नृसिंह अवतार आदि। विशेषत: गणेश, हनुमान और नाग पूजा की व्यवस्था की गई हैं ताकि लोगों में पशु प्राणियों के लिए आस्था बनी रहे। गायों की महत्ता को प्रकट करने हेतु गोपाष्टमी का पर्व मनाया जाता है।

कृषि भूमि में उत्पादन को हानि पहुंचाने वाले चूहों पर नियंत्रण रखने वाले सांपों के प्रति श्रद्धा सूचक नाग पंचमी व गोगानवमी का त्यौहार मनाया जाने लगा। पशु- पक्षियों के संरक्षण के लिए अनेक परम्पराएं भारतीय समाज में प्रचलित हैं। मरे हुए जानवरों की गंदगी को दूर करने वाले कौओं के प्रति श्रद्धा स्वरूप श्राद्ध पक्ष में उनको भोजन खिलाने की परम्परा है। विवाह के समय तोरण लगाने की परम्परा में भी पक्षियों को याद किया है। तोरण पर प्रतीकात्मक रूप से पक्षियों की आकृतियां बनाई जाती हैं। भोजन से पहले एक रोटी अथवा पांच ग्रास चींटी, कौए, कुत्ते आदि के लिए निकाल कर उन्हें जीवित रखने की व्यवस्था की गई है।

देवता समान है जल
जल को भारतीय समाज में देवता माना गया है। जल संरक्षण की परम्परा से नदियों को ‘माता’ का स्थान दिया गया है। इनकी पूजा की जाती है। गंगाजल को समस्त संस्कारों में महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। कुआं, बावड़ी, तालाब तथा झीलों के निर्माण की धार्मिक प्रथाएं रही हैं। गांवों में आज भी जल स्रोतों को गंदा करने पर सामाजिक प्रतिबंध रहता है। शिवरात्रि पर हरिद्वार से कांवड़ में गंगाजल लेकर कई मीलों तक यात्रा करते हुए घर पहुंचने की प्रथा चली आ रही है।



पर्यावरण संरक्षण में सम्राट अशोक का योगदान
संसार में पर्यावरण संरक्षण का कार्य सर्वप्रथम ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में सम्राट अशोक ने किया था। उन्होंने प्रकृति की महत्ता को स्वीकारते हुए वन्य जीव-जंतुओं के शिकार पर प्रतिबंध लगाया जो आज भी अशोक के शिलालेखों में अंकित है। कुएं, बावड़ी, झालरों का निर्माण करना धार्मिक कृत्य माना जाता है। जल स्रोतों को गंदा करने पर दंड का विधान था। प्राचीन काल में ऋषि आश्रमों में शिक्षा प्राप्ति के साथ-साथ विभिन्न प्रकार के पेड़ लगाने तथा उन्हें सिंचित करने का पुनीत कर्म करना आवश्यक था। धर्म परायण व्यक्ति जलाशय बनाकर, वृक्षारोपण कर, देवालय बनवाकर धर्म में संवर्धन करते थे।
पुरातन साहित्य में पर्यावरण की महत्ता को विभिन्न प्रकरणों एवं तरीकों से समझाने का प्रयास हुआ है।            
           
आज हमारी पुरातन परम्पराएं और रीति रिवाज समाप्त प्राय: हो गए हैं। हमारी प्रकृति उपासना की आस्थाएं समाप्त हो गई है जिस श्रद्धा और आस्था के साथ हम प्रकृति की पूजा करते थे, आज वह भावना समाप्त हो गई है। प्रकृति के दोहन से अधिकाधिक अर्थलाभ की भावना में वृद्धि हो गई हैं। वृक्ष पूजा केवल प्रतीकात्मक रह गई है। आज भी हमारी पुरातन पर्यावरण संरक्षण की प्रथाओं को सामाजिक स्तर पर प्रधानता देते हुए इन परम्पराओं का अनुगमन दृढ़ इच्छा शक्ति के साथ किया जाए तो पर्यावरण संतुलन तथा संरक्षण को प्रगाढ़ता मिलेगी।  

—सुरेंद्र माहेश्वरी 

Jyoti

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