ज्ञान की तलाश में भटक रहे पंडित की वैश्या बनी गुरू

Thursday, Sep 28, 2017 - 12:13 PM (IST)

एक पंडित जी कई वर्षों तक काशी में शास्त्रों का अध्ययन करने के बाद गांव लौटे। पूरे गांव में यह खबर फैल गई कि वह काशी से शिक्षित होकर आए हैं और धर्म से जुड़ी किसी भी पहेली को सुलझा सकते हैं।

शोहरत सुनकर एक किसान उनके पास आया और उसने पूछ लिया, ‘‘पंडित जी आप हमें यह बताइए कि पाप का गुरु कौन है?’’

प्रश्र सुनकर पंडित जी चकरा गए। उन्होंने धर्म व आध्यात्मिक गुरु तो सुने थे लेकिन पाप का भी गुरु होता है यह उनकी समझ और ज्ञान के बाहर था। पंडित जी को लगा कि उनका अध्ययन अभी अधूरा रह गया है। वह फिर काशी लौटे। अनेक गुरुओं से मिले लेकिन उन्हें किसान के सवाल का जवाब नहीं मिला।

अचानक एक दिन उनकी मुलाकात एक गणिका (वेश्या) से हो गई। उसने पंडित जी से परेशानी का कारण पूछा, तो उन्होंने अपनी समस्या बता दी।

गणिका बोली, ‘‘पंडित जी! इसका उत्तर है तो बहुत सरल लेकिन उत्तर पाने के लिए आपको कुछ दिन मेरे पड़ोस में रहना होगा।’’

पंडित जी इस ज्ञान के लिए ही तो भटक रहे थे। वह तुरंत तैयार हो गए। गणिका ने अपने पास ही उनके रहने की अलग से व्यवस्था कर दी। पंडित जी किसी के हाथ का बना खाना नहीं खाते थे। अपने नियम-आचार और धर्म परम्परा के कट्टर अनुयायी थे। गणिका के घर में रहकर अपने हाथ से खाना बनाते व खाते। कुछ दिन तो बड़े आराम से बीते लेकिन सवाल का जवाब अभी नहीं मिला। वह उत्तर की प्रतीक्षा में रहे।

एक दिन गणिका बोली, ‘‘पंडित जी! आपको भोजन पकाने में बड़ी तकलीफ होती है। यहां देखने वाला तो और कोई है नहीं। आप कहें तो नहा-धो कर मैं आपके लिए भोजन तैयार कर दिया करूं।’’

पंडित जी को राजी करने के लिए उसने लालच दिया। यदि आप मुझे इस सेवा का मौका दें तो मैं दक्षिणा में 5 स्वर्ण मुद्राएं भी प्रतिदिन आपको दूंगी। स्वर्ण मुद्रा का नाम सुनकर पंडित जी विचारने लगे। पका-पकाया भोजन और साथ में सोने के सिक्के भी। अर्थात दोनों हाथों में लड्डू हैं।
 

पंडित जी अपना नियम-व्रत, आचार-विचार, धर्म सब कुछ भूल गए। उन्होंने कहा, ‘‘तुम्हारी जैसी इच्छा, बस विशेष ध्यान रखना कि मेरे कमरे में आते-जाते तुम्हें कोई न देखे।’’ 
 

पहले ही दिन कई प्रकार के पकवान बनाकर उसने पंडित जी के सामने परोस दिए। पर ज्यों ही पंडित जी ने खाना चाहा, उसने सामने से परोसी हुई थाली खींच ली।
इस पर पंडित जी क्रुद्ध हो गए और बोले, ‘‘यह क्या मजाक है?’’

गणिका ने कहा, ‘‘यह मजाक नहीं है पंडित जी, यह तो आपके प्रश्र का उत्तर है।’’

यहां आने से पहले आप भोजन तो दूर, किसी के हाथ का पानी भी नहीं पीते थे। मगर स्वर्ण मुद्राओं के लोभ में आपने मेरे हाथ का बना खाना भी स्वीकार कर लिया। यह लोभ ही पाप का गुरु है।

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